सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीद जगाई
रजनीश कपूर
बचपन में जब हम सभी दोस्त मिल कर क्रिकेट खेलते थे तो कोई मित्र बैट ले कर आता था तो कोई बॉल। अचानक खेलते हुए
जब बैट या बॉल लाने वाला मित्र बिना कोई रन बनाए आउट हो जाता था तो ख़ुद को आउट होना न स्वीकारते हुए ग़ुस्से में
वो अपना बैट या बॉल लेकर घर चला जाता था। ऐसा वो इस उम्मीद से करता था कि उसे एक बार और खेलने का मौक़ा
मिले। परंतु जैसे ही उसे कोई बड़ा जना यह समझाता कि खेल को खेल की भावना से खेलना चाहिए, हार-जीत तो होती ही
रहती है। इसमें बुरा मानने की क्या बात? तो वो मान जाता था।
पिछले दिनों देश की सर्वोच्च अदालत ने भी एक समझदार व्यक्ति की भूमिका निभाते हुए न सिर्फ़ बेईमानी कर रहे अधिकारी
को आईना दिखाया बल्कि पूरे देश में एक संदेश भी भेजा कि जो भी हो नियम और क़ानून की हद में हो।
चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव को लेकर जो विवाद सुर्ख़ियों में था उस पर सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को विराम लगा दिया।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश माननीय डी वाई चंद्रचूड़ ने इस चुनाव के विवादित वीडियो का संज्ञान लेते हुए
पीठासीन अधिकारी, अनिल मसीह को दोषी करार दिया और जिस प्रत्याशी को बहुमत मिला उसी को मेयर घोषित भी
किया। देखा जाए तो यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचना ही नहीं चाहिए था। जैसे ही यह मामला पंजाब और हरियाणा
हाई कोर्ट पहुँचा इसका निर्णय वहीं हो जाना चाहिए था। परंतु ऐसा न हो पाने के कारण इसे सुप्रीम कोर्ट तक आना पड़ा।
इस मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि, “अदालत ये सुनिश्चित करने के लिए बाध्य है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया इस
तरह के हथकंडों से नष्ट नहीं हो।” अदालत ने यह भी कहा कि, “मेयर चुनाव में अमान्य किए गए आठ बैलट पेपर मान्य माने
जाएंगे। इसके साथ ही रिटर्निंग ऑफिसर अनिल मसीह को कोर्ट की अवमानना का नोटिस जारी किया। अब आने वाले तीन
सप्ताह में इस अधिकारी को यह साबित करना होगा कि उनके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही क्यों न की जाए?
जिस तरह से चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव के मामले ने सुप्रीम कोर्ट पहुँच कर तूल पकड़ा, देश भर की जनता में एक उम्मीद की
किरण जागी है। बात यहाँ किसी भी दल की नहीं है। परंतु जिस तरह एक अधिकारी ने पहले तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में
हस्तक्षेप कर बेईमानी की। इतना ही नहीं सुप्रीम में सुनवाई के दौरान उस अधिकारी ने ग़लत बयान भी दिया। अनिल मसीह
की इस ग़ैर-क़ानूनी हरकत से जनता के बीच यह संदेश गया कि सीधी-सादी चुनावी प्रक्रिया में धांधली कैसे की जाती है।
इसके साथ ही कोर्ट के कड़े रुख़ से यह बात भी साफ़ हो गई कि मामला चाहे एक मेयर के छोटे से चुनाव का ही क्यों न हो,
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पारदर्शिता होना बहुत ज़रूरी है।
उल्लेखनीय है कि इस चुनाव में धांधली इसलिए सामने आई क्योंकि जब यह चुनाव चल रहा था तब पूरी कार्यवाही को वहाँ
पर लगे सीसीटीवी में रिकॉर्ड किया जा रहा था। जैसे ही इस धांधली के वीडियो दुनिया भर में घूमने लगे तो ये सवाल भी
उठने लगे कि जिस प्रत्याशी को बहुमत मिला है उसे मेयर के पद पर बैठाने में चुनावी अधिकारी को क्या आपत्ति है?
अब चूँकि सुप्रीम कोर्ट ने इस चुनाव के रिटर्निंग ऑफिसर अनिल मसीह के इस ग़ैर-क़ानूनी कृत पर कड़ा रुख़ लेते हुए उनको
कारण बताओ नोटिस भी जारी किया है तो इससे एक बात तो तय लगती है कि कोर्ट इस मामले की तह तक जा सकता है।
यहाँ यह सवाल भी उठता है कि क्या यह रिटर्निंग ऑफिसर ऐसा किसी के कहने पर कर रहा था? क्या यह अधिकारी इतना
मासूम था कि उसे नियमों का ज्ञान ही नहीं था? ऐसा इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि जब भी किसी व्यक्ति को ‘रिटर्निंग
ऑफिसर’ बनाया जाता है तो उसे उस पद से संबंधित सभी क़ायदे-क़ानून समझाए भी जाते हैं। इसलिए यह कहना ग़लत
नहीं होगा कि चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में जो भी हुआ वो किसी सोची-समझी साज़िश के तहत ही हुआ। देखना यह है कि
तीन सप्ताह बाद जब इस दोषी अधिकारी पर कार्यवाही होगी तब जाँच एजेंसी या पुलिस इसकी तह तक जाएगी या नहीं?
जो भी हो जिस तरह से देश की शीर्ष अदालत ने हाल ही के कुछ फ़ैसलों में कड़ा रुख़ अपनाते हुए सभी को क़ानून की हद में
रहने की हिदायत दी है, उससे देश भर में एक सही संदेश गया है। इन मामलों में सुनवाई करते हुए अदालत ने यह बात स्पष्ट
कर दी है कि कोर्ट की जिम्मेदारी है कि वो लोकतांत्रिक सिद्धांतों और मूल्यों को बहाल करे। देश के करोड़ों मतदाताओं को
यह संदेश भी दिया है कि कोई भी व्यक्ति या दल कितना ही बड़ा क्यों न हो क़ानून उससे भी बड़ा है। देश की अदालतें
लोकतंत्र का मज़ाक़ उड़ने नहीं देंगी। देखना यह है कि आगामी लोक सभा चुनावों पर कोर्ट के कड़े रुख़ का देश के चुनाव
आयोग, मतदाताओं और राजनैतिक दलों पर क्या असर पड़ेगा? जिस तरह से विपक्षी दल चुनावी प्रक्रिया में ईवीएम को
लेकर शोर मचा रहे हैं क्या देश की शीर्ष अदालत इस मामले का भी संज्ञान लेगी? यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि
विधायिका और न्यायपालिका का ऊँठ किस करवट बैठेगा। कुल मिलाकर देखा जाए तो कोर्ट इस कड़े रुख़ से यह बात सिद्ध
हो गई है कि स्वस्थ लोकतंत्र में पारदर्शिता का होना कितना अनिवार्य है।
*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंध संपादक हैं।