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आर एस एस की यात्रा और अब हिन्दू विरोध का आरोप लगाने के मायने

रमेश शर्मा 

अपनी जीवन यात्रा आरंभ करने के पहले दिन से विरोध और आलोचना झेल रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचनाओं में “हिन्दु विरोध” का एक नया अध्याय और जुड़ गया। संघ पर इससे पहले यह आरोप तो लगते रहे हैं कि वह एक हिन्दूवादी साम्प्रदायिक संगठन है किंतु अब एक नया आरोप लगा है कि संघ हिन्दू हितों के विपरीत काम करने लगा है । संघ पर यह आरोप तब लगा जब संघ प्रमुख मोहन भागवत एक इस्लामिक धर्म गुरु से मिलने उनके निवास पर पहुँचे और वहाँ चल रहे मदरसे के बच्चों  के बीच भी गये ।

 इस्लामिक धर्म गुरु और कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों से संघ प्रमुख मोहन भागवत जी के मिलने की घटना इस वर्ष अगस्त माह की हैं। संघ प्रमुख अखिल भारतीय इमाम संगठन के प्रमुख डॉ उमैर अहमद इलियासी से मिलने नई दिल्ली कस्तूरबा गांधी मार्ग स्थित उनके निवास परिसर में गये थे । भेंट के समय मुस्लिम समाज के कुछ कई प्रमुख व्यक्ति भी उपस्थित थे । डा इलियासी के इस परिसर में एक मदरसा भी संचालित था । उनके आग्रह पर संघ प्रमुख मदरसे में पढ़ने वाले बच्चों के बीच भी गये । संघ प्रमुख मोहन भागवत जी ने मदरसे के बच्चों के बीच अपनी बात रखी और उनके प्रश्नों के उत्तर भी दिये । इसके अतिरिक्त एक घटना और घटी। कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों का एक समूह संघ प्रमुख से मिलने संघ कार्यालय आया । इनमें पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी, दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) जमीरुद्दीन शाह, पूर्व सांसद शाहिद सिद्दकी और उद्योगपत्ति सईद शेरवानी शामिल थे । यद्यपि इसमें कुछ नया नहीं था । समय समय पर संघ प्रमुख विभिन्न समाज प्रतिनिधियों और धर्म गुरुओं से मिलते रहे हैं । लगभग प्रत्येक संघ प्रमुख ने अपने कार्यकाल में इस प्रकार की मुलाकातें कीं हैं। और संघ अपने समागमों में अन्य समाज जनों को आमंत्रित भी करता रहा है । इसलिए इसमें कुछ नया नहीं था । यह बात संघ के प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने स्पष्ट भी कर दी थी । किन्तु फिर भी इन दोनों मुलाकातों से मानों चर्चाओं का तूफान उठ खड़ा हुआ । डा इलियासी से भेंट के बाद तो तुरन्त प्रतिक्रिया आई और मुस्लिम बुद्धिजीवियों की भेंट पर प्रतिक्रिया लगभग एक माह बाद आई । इस प्रतिक्रिया पर एक माह का समय संभवतः इसलिए लगा होगा कि भेंट की सार्थकता पर मुस्लिम बुद्धिजीवियों की ओर से मीडिया में  रपट आई । पहली प्रतिक्रियाएं तो कांग्रेस सहित विभिन्न राजनैतिक दलों और वाम विचारकों की ओर से आईं। जो स्वाभाविक थीं। इन सब की आलोचनाओं  में कुछ नया नहीं  हाँ  इस बार आलोचनाओं में कुछ तीखापन अधिक था । जो स्वाभाविक भी था । चूँकि मुलाकात के बाद इमाम संगठन के प्रमुख मोहम्मद उमैर इलियासी ने एक तो संघ प्रमुख के उस ब्यान पर अपनी सहमति दी थी जिसमें “सभी भारतवासियों का डीएनए एक” होने की बात कही थी । और दूसरे उन्होंने संघ प्रमुख को राष्ट्र ऋषि एवं राष्ट्रपिता जैसे संबोधनों की उपमा भी दे दी थी । यही बात उन्हे न पच पा रही थी ।उधर उनसे मिलने वाले मुस्लिम बुद्धिजीवी समूह ने देश में सामाजिक सद्भाव के लिये इस भेंट को आवश्यक बताया था । और कहा था कि देश की समस्याओं का समाधान करने के उपाय संघ के पास हैं। इन बातों पर काँग्रेस सहित विभिन्न राजनैतिक समूहों की प्रतिक्रिया होना तो स्वाभाविक थीं पर पहली बार कुछ प्रतिक्रियाएँ ऐसी भी आईं जिनमें इन मुलाकातों को हिन्दू विरोध की कसौटी पर कसा गया और कहा गया कि संघ अब हिन्दू हितों के विरुद्ध मार्ग पर चल पड़ा है। आलोचनाओं और हमलों को झेलना और अपने मार्ग पर बढ़ते जाना संघ का स्वभाव रहा है । संघ ने अपनी ओर से कभी किसी आरोप की कोई सफाई कभी नहीं दी । आरोप की सफाई न देना संघ के स्वभाव में है इसलिए संघ ने इस बार भी किसी  आलोचना पर अपनी कोई सफाई नहीं दी । संघ पर उसकी स्थापना के पहले दिन से आलोचनाएँ हुई हैं, विरोध हुआ है, और हमले भी हुये हैं। जितने हमले हुये संघ संगठन उतना ही आगे बढ़ा है । अपनी स्थापना के आरंभिक दिनों में संघ की पहली आलोचना मुस्लिम लीग ने की थी । लीग ने संघ पर साम्प्रदायिक आधार पर हिन्दुओं का संगठन खड़ा करने का आरोप लगाया था । फिर ईसाई मिशनरियाँ और अंग्रेज सामने आये । इनके बाद वामपंथी विचारक भी संघ को अपने निशाने पर लेने लगे । स्वतंत्रता से पूर्व लीग, मिशनरीज और वामदलों का अपना एजेण्डा था । उन्हें लगता था कि संघ का कार्य उनकी गति को बाधा देगा । इसलिये उन्होने संघ पर जाति और धर्म का कट्टरपंथ फैलाकर अलगाव करने का आरोप लगाना आरंभ कर दिया । जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्वयं को सदैव जाति, धर्म और राजनीति से तटस्थ रखा है । वह न तो किसी जाति धर्म का समर्थक है और न किसी का विरोधी । संघ की प्राथमिकता में भारत राष्ट्र और भारतीय संस्कृति है । यह ठीक है कि भारत राष्ट्र और संस्कृति की केन्द्रीभूत चेतना हिन्दुत्व है । इसीलिए लीग और मिशनरियों ने संघ को अपने  विस्तार अभियान में बाधक माना और हमले आरंभ कर दिये। यह हमले दोनों प्रकार से हुये । शाब्दिक आरोप के भी और शस्त्र द्वारा संघ स्वयंसेवकों की हत्या के भी । संघ पर ये दोनों प्रकार के हमले आज भी हो रहे हैं। मीडिया डिवेट के माध्यम से संघ पर शाब्दिक प्रहार प्रतिदिन सुने जा सकते हैं और देश के विभिन्न प्रांतों में स्वयंसेवकों की हत्या होने के समाचार भी अक्सर आते हैं। संघ के कार्य संकल्प से राष्ट्र भाव सशक्त हुआ और संस्कृति सेवकों का मनोबल भी बढ़ा। यही बात कट्टरपंथी ताकतों को चुभती है । वे ताकतें भारतीय समाज के विभाजन में और भारतीय जनों के संस्कृति से दूर होने में ही अपनी सफलता मानतीं हैं। इसलिए इन सबने ने संघ और संघ वालों के विरोध की रणनीति पर काम शुरु किया था । स्वाधीनता से पहले संघ वाले तीन प्रकार के लोगों के हमले के शिकार होते थे । लीग और मिशनरीज अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार केलिये मतान्तरण को प्राथमिकता दे रहीं थीं तो वामपंथी विचार ने अपनी सफलता केलिये वर्ग संघर्ष और वर्ण संघर्ष का मार्ग चुना था । इन तीनों की सफलता के लिये यह आवश्यक था कि भारतीय समाज जन परस्पर एक दूसरे से दूर हों उनमें फूट हो, और वे अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटें। यद्धपि तीनों में परस्पर कोई साम्य नहीं पर भारत में भारत को कमजोर करने और संघ पर हमला करने केलिये तीनों एकजुट दिखाई देते हैं । इस बार भी ऐसा ही हुआ ।  संघ प्रमुख की मुस्लिम बुद्धिजीवियों और मुस्लिम धर्म गुरु से भेंट के बाद तीनों अंतर्धाराओं ने हमला बोला । और इन हमलों के कुछ दिनों बाद इन दोनों भेंट मुलाकात को हिन्दु विरोधी बताने का भी प्रयास हुआ जो आश्चर्य चकित करने वाला था। यह ठीक है कि संघ ने कभी स्वयं को हिन्दु हित रक्षक होने का उद्घोष नहीं किया । और न अपनी प्राथमिकता में ही हिन्दुत्व बताया पर संघ की पूरी यात्रा से हिन्दुत्व भाव ही गौरान्वित हुआ है, हिन्दुत्व समर्थकों का आत्मविश्वास जागा है । चूँकि हिन्दुत्व ही भारत की सांस्कृतिक आत्मा है जो सामाजिक समरसता, सामाजिक एकत्व और सांस्कृतिक गौरव की प्रतिष्ठापना के भाव से ही पुष्पित और पल्लवित होती है और यही संघ यात्रा का मुख्य ध्येय रहा है । इसलिए मिशनरीज, मुस्लिम कट्टपंथियों, वाम विचारकों और काँग्रेस के भीतर तथाकथित सेकुलर समूह के निशाने पर सदैव संघ रहा है । फिर भी संघ प्रमुख मोहन भागवत की इस्लामिक धर्म गुरू और मुस्लिम बुद्धिजीवियों से भेंट को हिन्दु हितों के विपरीत बताकर हमला बोला गया । जो आश्चर्यजनक है । चूँकि संघ ने स्वयं को भले धर्म, संस्कृति, अथवा हिन्दुत्व का पैरोकार घोषित न किया हो पर संघ की सक्रियता और चैतन्यता से राजनीति, धर्म और हिन्दुत्व की सात्विकता में ही वृद्धि हुई है । संघ की भूमिका एक ऐसे सारथी की रही जो मार्ग दर्शन करता है, सहयोग करता है, सहभागी भी बनता है पर स्वयं के लिये नहीं । राष्ट्र और संस्कृति की प्रतिष्ठापना और भारत राष्ट्र के परम् वैभव केलिये । जैसी भूमिका भगवान योगेश्वर श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में निभाई थी । वे युद्ध में सहभागी रहे, सहयोगी भी रहे पर राज्याकाँक्षा के लिये नहीं अपितु सत्य और धर्म रक्षा के लिये रहे। महायुद्ध के समापन पर उन्होने गांधारी का श्राप भी झेला और सहर्ष स्वीकारा किन्तु किसी से कोई शिकायत नहीं की । किसी से कोई अपेक्षा नहीं की । इसके बाद भी उनकी यात्रा न रुकी । वे धर्म रक्षा के अपने अभियान में ही संलग्न रहे । इसी प्रकार महर्षि विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण की  वन यात्रा भी सत्य धर्म और संस्कृति की स्थापना के लिये थी । राम स्वयं निर्णायक न बने, न लक्ष्मण को ऐसा करने के लिये प्रोत्साहित किया । दोनों भाई सदैव महर्षि विश्वामित्र के अनुगामी ही रहे । उनके निर्देश पर शस्त्र संचालन किया । पर राज्य विस्तार की आकांक्षा से नहीं केवल सत्य, धर्म और  संस्कृति रक्षा के लिये । अग्रणी तो महर्षि विश्वामित्र ही रहे । संघ यात्रा का भाव भी ऐसी प्रतीत होता है । संघ जीवन यात्रा के सत्तानवे वर्ष की पूरे हो गये हैं। संघ का जो साहित्य और संघ प्रमुखों की यात्राओं का जो विवरण उपलब्ध है उसमें भी ऐसी ही भूमिका प्रतिबिंबित होती है जिसमें नेतृत्व करने की, श्रेय लेने की, अथवा स्वयं निर्णायक बनने की महत्वाकांक्षा कहीं नहीं दिखती । पर संकल्पना में सांस्कृतिक भारत राष्ट्र के वैभवमय स्वरूप का भाव ही उभरता है । जिसे हिन्दुत्व के भाव से ही पारिभाषित कर सकते है । संघ का प्रत्येक कार्य, प्रत्येक गतिविधि या संघ अधिकारी की किसी धर्म या समाज जनों से भेंट का निमित्त भी सदैव राष्ट्र हित ही रहा है, संस्कृति की सेवा ही रही है । तब मोहन भागवत जी की यह भेंट हिन्दुत्व के विरुद्ध कैसे मानी जा सकती है । राष्ट्र के परम वैभव का मार्ग काँटों से भरा है । इस पर चलने वाला प्रत्येक साधक लहूलुहान ही हुआ है । संघ वाले भी हो रहे हैं। वह आलोचना के परोक्ष हमले से हों अथवा कश्मीर, बंगाल, केरल, कर्णाटक या महाराष्ट्र आदि प्रांतों में संघ कार्यकर्ताओं की हत्याएँ हों  वे सब राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिये बलिदान ही हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवत यदि मुस्लिम धर्म गुरु से मिलने गये तो वे अपने हित के लिये नहीं गये थे । उन्हे अपने व्यक्तिगत हित या संघ हित के लिये मुस्लिम धर्म गुरु या मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मिलने की कोई आवश्यकता नहीं थी । वे जानते होंगे कि इस भेंट की आलोचना होगी। चूँकि उनसे पहले संघ प्रमुख रहे सुदर्शन जी भी इसी प्रकार की आलोचनाओं के शिकार हो चुके थे । फिर भी मोहन भागवत जी गये । तो यह मुलाकातें राष्ट्र संस्कृति और समाज के हित के लिये थीं। यह भेंट संघ की उस यात्रा ध्येय की ही परिपूर्ति है जिसमें राष्ट्र के परम वैभव और सांस्कृतिक श्रेष्ठता की प्रतिष्ठापना का संकल्प है। भेंट के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हिन्दुत्व के ह्रास कोई बात नहीं की और न कोई तुष्टीकरण की कोई बात कही । अपितु इस भेंट के बाद इस्लामिक धर्म गुरु डाॅ उमैर इलियासी ने मीडिया के प्रश्नों के उत्तर में सहमति दी कि सभी भारतवासियों का डीएनए एक है । यदि समस्त भारत वासियों के एक डीएनए की बात कोई अन्य धर्मावलंबी स्वीकारता है तो इससे हिन्दुत्व भाव कमजोर होगा कि  मजबूत होगा ? स्वाभाविक है इससे हिन्दुत्व भाव मजबूत ही होगा। संघ की इतनी लंबी यात्रा से एक बात तो बहुत स्पष्ट है कि वह किसी के महत्व को कम नहीं करना चाहता और न किसी पर प्रहार करना चाहता है । संघ सर्व सुख, सर्व कल्याण भाव से राष्ट्र और संस्कृति को सर्वोपरि रखकर  काम करता है । अपनी सथापना से अब तक संघ ने जो स्थापित किया है वो है- स्वराष्ट्र की चेतना, हिन्दुत्व का भाव, और भारत के गौरवशाली इतिहास की पुनर्प्रतिष्ठा। 

संघ कार्य तो वैभवशाली भारत राष्ट्र के निर्माण हेतु सर्वागींण उन्नति के मार्ग को प्रशस्त करना और इसके लिये व्यक्ति निर्माण पहला पायदान है । यह तभी संभव है जब भारत राष्ट्र मेः निवास करने वाले प्रत्येक नागरिक के चेतन और अवचेतन एक ही भाव हो, और परस्पर संबंधों में एकरस हो तभी संघ प्रमुख ने सभी भारतीयों के एक डीएनए की बात कही थी । 

 यही उद्देश्य इन दोनों भेंट मुलाकातों का भी था। और यही सनातन संस्कृति का मुख्य सूत्र भी है । मोहन भागवत जी की इस भेंट के निष्कर्ष में भी राष्ट्र की सर्वोच्च संकल्पना का ही प्रकटीकरण हुआ । राष्ट्र भाव की सर्वोच्चता ही हिन्दुत्व का हित रक्षण है जो इस्लामिक धर्म गुरु के एक डीएनए पर सहमति देने से प्रकट भी हुआ । फिर भी इस भेंट को हिन्दु हित विरोधी निरूपित कर इस बार आलोचना का एक नया अध्याय जोड़ा गया ।  यह किसी विशेष योजना का अंश लगता है । इस भेंट को हिन्दु हित विरोधी निरूपित करने के लिये जो चेहरे सामने आये वे केवल वाह्य स्वरूप हो सकते हैं। उनके पीछे कोई और योजनाकार हो सकता है । जब लीगी, मिशनरीज, वामपक्ष और काँग्रेस के राजनैतिक हमलों से संघ की यात्रा गति न रुकी तो हिन्दु हित को सामने रखकर संघ पर निशाना साधा गया । यह ठीक उसी प्रकार है जैसे चित्तौड़ में अपनी असफलताओं के बाद अकबर ने शक्ति सिंह के चेहरा आगे किया था । भारत राष्ट्र और उसकी संस्कृति पर आघात करने केलिये ऐसी घटनाओं से इतिहास भरा है । लगता है यही रणनीति अब संघ पर हमले के लिये अपनाई गई। संघ विरोधियों ने कुछ ऐसे नाम तलाशे जो हिन्दुत्व के पैरोकार माने जाते थे । उन्होने योजनानुसार हमला बोल दिया । इन दोनों भेंट मुलाकातों में कुछ और संदर्भ जोड़कर संघ प्रमुख मोहन भागवत और संघ की कार्यशैली को हिन्दुत्व हित विरोधी घोषित कर दिया । पर उनकी बातों को मीडिया में उतना स्थान भी न मिल सका जितना राजनैतिक आलोचनाओं को मिल गया था । अपने स्वभाव के अनुरूप संघ ने इस बार भी अपनी आलोचनाओं का कोई उत्तर न दिया तो इन नये आलोचकों ने सोशल मीडिया पर अभियान छेड़ दिया । अब देखना है कि विरोध की यह नई अंतर्धारा कहाँ तक जाती है ।

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