सर वी एस नायपॉल ने अपनी पुस्तक “द मास्क ऑफ अफ्रीका” में अफ्रीकी आस्थाओं का एक अध्ययन प्रस्तुत किया है.
पुस्तक में पश्चिम अफ्रीका के एक देश गेबॉन में एक पात्र है रोसेटाँगा-रेनयु, जो एक लॉयर और एकेडेमिक है. उसके पिता फ्रेंच थे, माँ अफ्रीकन. उसने पेरिस में लॉ की पढ़ाई की थी, वह एंथ्रोपोलॉजिस्ट भी था और यूनिवर्सिटी ऑफ गेबॉन में डीन था.
रोसेटाँगा अफ्रीका के बारे में कहता है :
मॉडर्न रेलिजन्स यहाँ सिर्फ सतह पर है. उसके नीचे घने जंगल हैं.
हर अफ्रीकी के अंदर यह घना जंगल है. वे जंगल से डरते हैं, तो जंगल के साथ जीते भी हैं. वे पेड़ों से बातें करते हैं. उसे मन की बात, अपना दुख दर्द बताते हैं. जब कोई किसी पेड़ की डाल काटता है या छाल निकालता है तो उसे उस पेड़ की अनुमति माँगनी होती है. उसे बताना होता है कि वह यह लकड़ी या छाल किसलिए ले जा रहा है. यह जरूरी है.
जंगल की एक अपनी ऊर्जा है. यह जीवन ऊर्जा हर चीज में है, पेड़ पौधों में, पशु पक्षियों में, नदियों और पहाड़ों में भी. हर कबीले का एक पवित्र जंतु है – मगरमच्छ, तोता या बन्दर… कुछ भी. वे कभी भी उसका शिकार नहीं करते, उसको नुकसान नहीं पहुँचाते.
एक बार रोसेटाँगा के साथ उसका एक अमेरिकी मित्र घूमने आया. कबीले के एक बूढ़े ने उसे हिदायत दी, कभी भी जंगल या नदी को गन्दा मत करना. अमेरिकी ने इसे एक अफ्रीकी टोना टोटका समझ कर झिड़क दिया. उसने चलते चलते नदी में थूक दिया. अगले दिन वह नदी सूख गई. गाँव मे हाहाकार मच गया. जब बात पता चली तो फिर नदी की पूजा की गई, उससे माफी माँगी गई… फिर नदी में पानी वापस आया.
डच इंजीनियर्स की एक टीम नदी पर एक पुल बनाना चाहती थी. जंगल के लोगों ने उन्हें कहा कि उन्हें नदी से इसकी अनुमति माँगनी चाहिए. डच लोगों ने इसका मजाक उड़ाया और काम शुरू कर दिया. अगले दिन से हर रोज कंस्ट्रक्शन साइट पर एक मौत होने लगी. काम बन्द करना पड़ा और नदी से अनुमति माँगने के लिए पूजा की गई… फिर पुल पूरा हुआ.
गेबॉन कहाँ है, मैं नहीं जानता था. वहाँ के लोग कैसे थे, मुझे नहीं पता. यहां जो घटनाएं वर्णित हैं वह सचमुच ऐसी ही हुई थीं या नहीं, पता नहीं. पर इस कहानी में मैं क्या देखता हूँ?
पश्चिम अफ्रीका के घने जंगलों में बसे इन कबीलों में जो लोग हैं, उनकी प्रकृति के प्रति जो भावना है, वह मेरी हिन्दू भावना से अलग है क्या? सभी जीव जंतुओं में अपने समान ही एक आत्मा को देखना, मनुष्य से परे भी किसी जीव को अपने बराबर या उससे भी अधिक सम्मान देना, प्रकृति के प्रति एक कृतज्ञता का भाव…क्या यह हिन्दू भाव नहीं है?
वहाँ अफ्रीका में वेद नहीं थे, पुराण और उपनिषद नहीं थे…फिर भी यह हिन्दू भाव था. यह भाव वैश्विक है, ईश्वर ने यह भाव मानवमात्र को दिया है…कुछ ने इसे बचा कर रखा, कुछ ने इसके पीछे के दर्शन को खोजा और समझा, और कुछ ने इसे खो दिया. आदिकाल से जब हम भारत में गंगा को माँ कहते थे, तब गॉथ (जर्मनी) में डेन्यूब नदी के प्रति भी कोई वही भाव रखता होगा, अफ्रीका में कॉन्गो नदी के लिए या मेक्सिको में एज़्टेक नदी के लिए भी कोई वही भाव रखता होगा.
कल को हो सकता है धरती पर मानव ना रहें, पर तब भी यह भाव प्रकृति में रहेगा. जब नदी जीवों को जल देती है, जब वृक्ष जीवों को आहार देते हैं, जब गाय अपने बछड़े की आवश्यकता से अधिक दूध देती है..यह करुणा और वात्सल्य का भाव हमेशा रहता है. बाघ भी शिकार करता है, जीवहत्या करता है…लेकिन क्रूरता नहीं करता. द्वेष या हिंसा से किसी को नहीं मारता… सिर्फ भूख मिटाने के लिए किसी को मारता है, लालच में अनावश्यक नहीं मारता. वह भी समझता है कि उसका अस्तित्व हिरण के अस्तित्व से जुड़ा है.
मेरे लिए यह भाव ही हिंदुत्व है. मनुष्य क्या, यदि मैं पशु भी होता तो हिन्दू ही होता. हिंदुत्व सृष्टि का मूल भाव है. यह किसी एक भूभाग, एक भाषा और संस्कृति तक सीमित नहीं है. यह वैश्विक और सर्वकालिक है, इसलिए सनातन है. यह हरिद्वार, अयोध्या, काशी, मथुरा, पुरी तक सीमित नहीं है. बीथोवेन और मोजार्ट को भी संगीत की प्रतिभा, थॉमस सॉवेल को ज्ञान और बुद्धि माँ सरस्वती ने ही दी है. जॉफ बेज़ोस और एलोन मस्क को धन उसी माँ लक्ष्मी ने दिया है. जब आइसलैंड में ज्वालामुखी फटता है, या ब्राज़ील में बाढ़ आती है तो शिव का नेत्र खुलता है.
ईश्वर की सृष्टि में विविधता है, असमानता है…पर छुद्रता नहीं है. हर कोई विशिष्ट है, हर कोई पवित्र है. ईश्वर ने सबको बनाया, सबको दैवीय गुण दिए. जिन्होंने उसकी सृष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव रखा, वे हिन्दू हैं… जिन्होंने इसे त्याग दिया वे म्लेच्छ हो गए. कोई अपनी ऑंखें फोड़ ले तो प्रकाश नष्ट नहीं हो जाता.
-राजीव मिश्रा जी