भारत का राष्ट्रीय पशु(जानवर) बाघ है। समय के साथ मानवीय हस्तक्षेप के कारण बाघों पर भी खतरा मंडराया और यह बात हमें आंकड़ों से पता चलती है।
एक समय था जब बाघों की तेजी से कम होती संख्या को लेकर चिंता जताई जाने लगी थी, लेकिन अब धीरे-धीरे इसमें प्रोजेक्ट टाइगर व अन्य बाघ संरक्षण कार्यक्रमों से इसमें कुछ सुधार आ रहा है। समय के साथ ही वन्य जीवों के शिकार के संबंध में कानून को भी सख्त बनाया गया है। बहरहाल, एक अनुमान के अनुसार, विश्व भर के बाघों ने अपने प्राकृतिक निवास स्थान का तकरीबन 93 प्रतिशत हिस्सा खो दिया है। यह बहुत ही गंभीर व संवेदनशील है कि इन निवास स्थानों(अधिवासों) को अधिकांशतः मानव गतिविधियों द्वारा नष्ट किया गया है। वनों और घास के मैदानों को कृषि ज़रूरतों के लिये परिवर्तित किया जा रहा है। बाघों से मानव को कथित खतरे को देखते हुए और मौद्रिक लाभ कमाने के उद्देश्य से बाघों का शिकार मानव द्वारा(पशु तस्करों, जानवर/गिरोह/ माफिया) किया जाता है।वर्ष 2012 से वर्ष 2019 की अवधि के मध्य आँकड़ों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि देश में प्रतिवर्ष बाघों की औसतन मृत्यु दर लगभग 94 रही है। वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2019 में देश भर में बाघों की मृत्यु के 85 प्रत्यक्ष मामले सामने आए और 11 मामलों में मरने की पुष्टि उनके अंगों के मिलने के आधार पर की गई, जबकि इससे पहले वर्ष 2018 के दौरान बाघों की मृत्यु के 100 मामले, वर्ष 2017 में 115 मामले और वर्ष 2016 में बाघों की मृत्यु के 122 मामले सामने आए थे। इसलिए खाद्य श्रंखला, धरती के इको सिस्टम (पारिस्थितिकीय तंत्र),पर्यावरण को बनाए रखने(पर्यावरण संरक्षण), जैव-विविधता(बॉयो-डायवर्सिटी) के क्रम में बाघों के संरक्षण की आवश्यकता अति अहम् और महत्वपूर्ण है। बाघ वास्तव में, ताकत, फुर्तीलेपन और अपार शक्ति का प्रतीक है और शायद यही कारण भी है कि बाघ को भारत के राष्ट्रीय जानवर का दर्जा दिया गया है। जानकारी देना चाहूंगा कि वर्ष 1969 में वन्यजीव बोर्ड ने शेर को राष्ट्रीय पशु घोषित किया था, लेकिन वर्ष 1973 में राष्ट्रीय पशु का दर्जा शेर को हटाकर बाघ को (राष्ट्रीय पशु बाघ) को बना दिया गया था।अप्रैल 1973 में ‘बाघ’ को भारत का राष्ट्रीय पशु घोषित किया गया था और बाघों के संरक्षण के लिए वर्ष 1973 में ही ‘बाघ परियोजना’ को प्रारम्भ किया गया था। जानकारी देना चाहूंगा कि 1970 के दशक में भारत में 2,000 से भी कम बाघ शेष बचे थे। वर्ष 1973 में भारत सरकार ने बाघ को भारत का राष्ट्रीय पशु घोषित किया और प्रोजेक्ट टाइगर (Project Tiger) नाम से एक संरक्षण योजना शुरू की जिसके तहत बाघों के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। पूरे भारत के 20 राज्यों में आयोजित 2018-19 की टाइगर जनगणना के अनुसार, 2968 बाघ भारत में रहते हैं। 29 जुलाई को पूरे विश्व में ‘टाइगर डे'(बाघ दिवस) मनाया जाता है। बाघों पर आ रहे खतरों और समस्याओं के साथ ही बाघों के प्रति जागरूकता के उद्देश्य से यह दिवस मनाया जाता है। आज जंगलों की निरंतर हो रही अंधाधुंध कटाई, कंक्रीट के खड़े किए जा रहे जंगलों, अवैध ट्रेडिंग, शिकार, धरती के इकोसिस्टम में आ रहा निरंतर बदलावों, धरती के तापमान(ग्लोबल वार्मिंग), बदलते प्राकृतिक परिवेश, विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों में निरंतर आ रही कमी, शहरीकरण, उधोग धंधों के अनवरत विकास व बढ़ती जनसंख्या के कारण जानवरों के अधिवासों में भी अभूतपूर्व कमी देखने को मिली है जिससे भारत का राष्ट्रीय पशु ही नहीं अपितु हाथी जैसे विशालकाय जानवर पर भी लगातार अनेक प्रकार के खतरे मंडरा रहे हैं। वास्तव में,जंगलों के खत्म होते जाने और अवैध शिकार पर अंकुश न लग पाने से बाघों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और यह विलुप्ति के कगार पर पहुँच गया है।भारत व बांग्लादेश के सुंदरबन में पाये जाने वाले बाघ मैंग्रोव वनों में रहने वाले विश्व के एकमात्र बाघ हैं।आज बाघों के साथ ही हाथियों का संरक्षण भी बहुत ही जरुरी व आवश्यक है। भारत के राष्ट्रीय पशु बाघ और विशालकाय जानवर हाथी के संरक्षण के लिए लंबे समय से भारत में प्रयास किए जाते रहे हैं। बाघ भारत का राष्ट्रीय प्रतीक ही नहीं अपितु भारत की पहचान और आधार है। यह देश की गरिमा का भी प्रतीक है। बाघ का वैज्ञानिक नाम ‘पैंथेरा टिगरिस’ है।बाघ की आठ प्रजातियों में से भारत में पायी जाने वाली बाघ प्रजाति को ‘रॉयल बंगाल टाइगर’ के नाम से जाना जाता है। यदि हम यहाँ आंकड़ों की बात करें तो वर्ष 2006 में देश में टाइगर्स की कुल संख्या 1411 थी जो कि 2018 में बढ़कर 2967 हो गयी थी। कनार्टक, उत्तराखंड, झारखंड जैसे राज्यों में बाघ पाये जाते हैं। वैसे बाघ की अधिक आबादी वाले भारत के अन्य राज्यों में उत्तराखंड, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, असम, केरल और उत्तर प्रदेश शामिल हैं। वैसे, राजस्थान में भी बाघ पाए जाते हैं। गौरतलब है कि देश में मध्य प्रदेश और कर्नाटक में बाघों की संख्या सबसे अधिक है। आँकड़ों के अनुसार, मध्य प्रदेश में बाघों की संख्या सबसे अधिक 526 पाई गई, इसके बाद कर्नाटक में 524 और उत्तराखंड में इनकी संख्या 442 थी। आंकड़़ें बताते हैं कि वर्ष 2014 में यह संख्या 2226 थी, जानकारी मिलती है कि इसमें लगभग 33 फीसदी का इजाफा हुआ है। जबकि जिस साल बाघ को राष्ट्रीय पशु घोषित किया गया था उस समय बाघों की संख्या केवल 9 थी। जानकारी देना चाहूंगा कि बाघों की घटती संख्या को रोकने के लिए वर्ष 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत की गयी थी। जानकारी देना चाहूंगा कि भारत में इस समय 53 टाइगर रिजर्व हैं।आज देश में राष्ट्रीय पशु बाघ ही नहीं हाथियों के संरक्षण का सवाल भी बहुत ही अहम और महत्वपूर्ण बना हुआ है, क्योंकि ये दोनों ही पशु शिकारियों, पशु तस्करों, माफियाओं आदि के कई तरह से निशाने पर रहे हैं।1980 के दशक तक एशिया में लगभग 93 लाख हाथी थे, लेकिन अब केवल 50 हजार बचे हैं। इसलिए, हाथी जैसे सहज उपलब्ध होने वाले प्राणी को भी ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर’ की रेड लिस्ट में शामिल किया गया है। वन संसाधनों में आ रही लगातार कमी, अंधाधुंध मानवीय गतिविधियां और अंधाधुंध अतिक्रमण, उद्योग धंधों के विकास के कारण, तथा शिकार के कारण हाथियों की संख्या में भी अभूतपूर्व कमी देखने को मिली है।हाथियों की संख्या में तेज गिरावट का मुख्य कारण उनके आवासीय क्षेत्र(रहवास) का लगातार सिकुड़ते जाना है, विकास योजनाओं के कारण उनके रहने के ठिकाने तेजी से नष्ट हो रहे हैं। एक कहावत है’जिंदा हाथी लाख का, मरा सवा लाख का।’ दरअसल,हाथी-दांत के लिए भी हाथियों का बड़े पैमाने पर शिकार किया जा रहा है।रेल दुर्घटना के कारण भी बड़ी तादाद में हाथी मारे जा रहे हैं। इस आशय की खबरें असम, गुवाहाटी से ज्यादातर आती रहती हैं। असम के काजीरंगा की खबरें भी हम पढ़ते ही हैं। बहुत बार बिजली के नंगे तारों से दुर्घटना के कारण भी हाथी मारे जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में ही अकेले बिजली के झटकों से भारत में लगभग 482 हाथियों की मौत का आंकड़ा सामने आया है, जो बहुत ही गंभीर व संवेदनशील है। केंद्रीय पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में करीब 27,312 हाथी हैं। अहम बात यह है कि यह दुनिया की हाथियों की आबादी का लगभग 55% है, लेकिन बावजूद इसके इनकी असमय मौत(दुर्घटना, शिकार) बहुत ही चिंतनीय व संवेदनशील है। हालांकि सरकार ने कुछ साल पहले प्रोजेक्ट ‘हाथी परियोजना’ को हाथ में लिया था। यह एक अच्छी पहल थी, लेकिन फिर भी हमें लगातार हाथियों के संरक्षण की ओर ध्यान देने की जरूरत है। समाज के स्तर पर लोगों को जागरूक किया जा रहा है। हाल ही में तेरह मार्च को बेस्ट डाक्यूमेंट्री फिल्म की श्रेणी में ‘द एलीफेंट व्हिस्पर्स’ ने बाजी मारी और प्रतिष्ठित ऑस्कर पुरस्कार जीता। जानकारी देना चाहूंगा कि ‘द एलिफेंट व्हिस्पर्स’ 8 दिसंबर, 2022 को रिलीज हुई थी और कुल 39 मिनट की इस मूवी में, इंसान और बेबी एलीफेंट के बीच की बॉन्डिंग(अनाथ हाथी की देखभाल) को दिखाया गया है कि कैसे एक कपल हाथी को अपने बच्चे की तरह पालता है, उसकी देखभाल करता है। इसके साथ ही प्रकृति की अहमियत भी फिल्म में बखूबी दिखाई गई है। निश्चित ही ऐसी फिल्मों से हाथियों के संरक्षण के प्रति आम लोगों में जागरूकता फैलेगी और हम हाथियों के संरक्षण की ओर ध्यान देंगे। हमारे देश में पहले बाघ और हाथियों के संरक्षण के लिए आवश्यक धन का इंतजाम करने के मकसद से अलग-अलग कोष बनाए गए थे, लेकिन अब सरकार ने इन दोनों कोषों को साझा कर दिया है। बताया जा रहा है कि अब नई व्यवस्था के तहत साझा कोष में मिली राशि के उपयोग में पहले की भांति ज्यादा जटिलता नहीं खड़ी होगी। वन्यजीव संरक्षण के दायरे में आने वाले ये दोनों पशु(हाथी और बाघ) धरती की पारिस्थितिकी के लिए बेहद जरूरी माने जाते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि भारत में इस साल बाघ के संरक्षण के मामले में पचास साल और हाथियों के संरक्षण के संदर्भ में तीस साल पूरे होने का जश्न मनाया जा रहा है। इतने लंबे समय से चल रही इन योजनाओं की वजह से इन दोनों पशुओं(बाघ एवं हाथियों) की संख्या और उनकी जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने में मदद मिली है। अंत में, यही कहूंगा कि यह हम सभी का कर्तव्य बनता है कि हम अपने आसपास अधिकाधिक पेड़ लगाएं और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करें। जंगली जानवरों की रक्षा,संरक्षण करें। यानी कि
हम जानवरों के संरक्षण की ओर पर्याप्त ध्यान दें।
उनके अधिवासों की रक्षा करें। सरकार को यह चाहिए कि वह लुप्तप्राय प्रजातियों के लिए प्रजनन कार्यक्रमों का आयोजन करें। हमें यह चाहिए कि हम ईंधन के लिए जंगलों में पेड़ों से लकड़ियों का अनाधिकृत रूप से काटना तुरंत बंद करें, क्योंकि वनों की कमी जंगली जानवरों के प्राकृतिक आवास(अधिवास) को नष्ट कर देती है। आम जनता को इस बारे में समय समय पर विभिन्न जन जागरूकता कार्यक्रम चलाकर जागरूक भी किया जाने की आवश्यकता है।
(आर्टिकल का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।)सुनील कुमार महला,