आर्थिक बदहाली के शिकार पाकिस्तान की समस्या उसके जन्म के कारण से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। दरअसल पाकिस्तान का निर्माण जिस इस्लामी अवधारणा के आधार पर हुआ, उसमें आर्थिक चिंतन जैसी कोई चीज ही नहीं है। कुरान और हदीस में पूरी चिंता सबको मुसलमान बनाने और दुनिया पर इस्लामी एकाधिकार की है। इस बीच, जब जहां भी इस्लामी सत्ता कायम हुई, वहां टैक्स वसूल कर राज करना, आगे ऐसे हमले जारी रखना और कब्जा करने का ही रक्तरंजित इतिहास रहा है।*
*किसी इस्लामी राज्य के मुख्यतः चार आर्थिक स्रोत रहे हैं। खाम (लूट का माल), खिराज (कब्जा किए क्षेत्र में किसानों से टैक्स), जजिया (काफिरों से टैक्स) और जकात (मुसलमानों से चंदा या दान)। इसके अतिरिक्त कोई अन्य आर्थिक माडल इस्लामी किताबों में नहीं मिलता। चूंकि मुस्लिम अपने पैगंबर और मूल इस्लामी ग्रंथों को ही संपूर्ण मानते हैं, इसलिए वे इस माडल से बाहर निकलकर सुधार नहीं कर सकते। वह इस्लाम-विरुद्ध होगा, जिस पर उन्हें कट्टरपंथियों का कोप झेलना पड़ेगा।*
*जहां तक आर्थिक तंगी की बात है तो पैगंबर ने उसका भी दो-टूक समाधान दिया और वह यह कि, ‘इस दुनिया का धन-असबाब बेमतलब है। जन्नत में इससे बढ़कर सब कुछ है। काफिर पर्शियनों और रोमनों के पास धन-दौलत आदि इस धरती पर अच्छे कर्मों के फल हैं और यहीं तक सीमित रहेंगे। जबकि मुसलमानों को जन्नत मिलेगी।’ (हदीस बुखारी)। पैगंबर की पत्नियों को भी आरामदेह चीजों की कमी पर वही सलाह मिली (कुरान, 33:28)। इस प्रकार, इस्लाम इस धरती पर आर्थिक-सामाजिक उन्नति के विचार से ही पल्ला झाड़ता है। जो मिलेगा, वह जन्नत में। युवा जिहादियों को भी इसी लालसा से प्रेरित किया जाता है। ऐसे में यदि किसी मुस्लिम देश को यूरोप, अमेरिका, जापान, चीन या भारत की तरह आर्थिक, सामाजिक उन्नति की चाह हो, तो उसे खुद को इस्लाम की इस राह से अलग करना होगा।*
*चूंकि इस्लामी मतवाद में कोई मध्यमार्ग नहीं, इसलिए अंततः मुस्लिम शासक तरह-तरह की मुसीबतों में फंसते हैं। यह पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि सभी मुस्लिम देशों का दुष्चक्र है। कुछ देशों में जरूर प्राकृतिक संपदा और गैर-मुस्लिमों का उपयोग कर अर्थव्यवस्थाएं बेहतर चल रही हैं। पाकिस्तान बनने से पहले लाहौर, कराची और मुल्तान आदि भी शैक्षिक-आर्थिक-सांस्कृतिक दृष्टि से अग्रणी नगर थे। इन शहरों में ऐसी गतिविधियों के अगुआ मुख्य रूप से हिंदू और सिख थे, लेकिन विभाजन के बाद उन्हें प्रताड़ित कर भगा दिया गया। परिणामस्वरूप उनके साथ ही आर्थिक उन्नति भी पलायन कर गई।*
*स्पष्ट है कि इस्लामी मतवाद और आर्थिक विकास के बीच दुराव-तनाव स्थायी है। उन्नति, खुशहाली, सामाजिक शांति के लिए शरीयत के कायदे छोड़ना जरूरी हैं। जबकि इस्लाम की शान के लिए भौतिक प्रगति की बात ही खारिज करना लाजिमी है। जब भी किसी मुस्लिम शासक ने इस्लामी निर्देशों का परित्याग कर सुधार की ओर कदम बढ़ाए तो ऐतिहासिक अनुभव यही बताते हैं कि वे ज्यादा दूर नहीं जा पाए। कारण यह भी है कि इस्लाम एक अंतरराष्ट्रीय मतवाद है। वह देश की सीमाएं नहीं मानता। इस्लामी उलमा दुनिया भर के मुसलमानों पर दबाव रखते हैं। इसके लिए उनके पास कानून, मानवता या नैतिकता की कोई बाधा नहीं। वे छल, बल और हिंसा आदि हरसंभव तरीके से मुस्लिमों को मूल रास्ते पर टिके रहने के लिए बाध्य करते हैं। अधिकांश मुस्लिम शासक और बुद्धिजीवी भी यह बाध्यता महसूस करते हैं।*
*प्रत्येक विवेकशील मुसलमान भी इस दुष्चक्र को महसूस करता है। जैसे, मिस्र के लेखक इस्लाम अल-बेहेरी ने हाल में ‘स्काई न्यूज’ को दिए साक्षात्कार में कहा कि इस्लामी मुख्यधारा ही जिहाद को प्रोत्साहित करती है। इसी के चलते आज की हर चीज से इस्लाम को समस्या है– अन्य धर्मों, स्त्रियों, नागरिक मूल्यों, संविधान, मानवीय नैतिकता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार, बैंक और ब्याज, अंग-प्रत्यारोपण, तमाम दवाएं, खान-पान और पहनावे से लेकर औपचारिक शिक्षा के अनेक विषयों से भी। इसीलिए हाल के दौर में तुर्की, इराक, सीरिया, ईरान और लेबनान सरीखे कई मुस्लिम देशों की भी दुर्दशा दिख रही है, जो पहले अधिक खुशहाल थे। वास्तव में उनकी समृद्धि का कारण इस्लामी रिवाजों को पीछे छोड़ना और गैर-मुस्लिमों के साथ समानता का संबंध रखना ही था।*
*पाकिस्तान भी एक समृद्ध क्षेत्र है। ऐतिहासिक रूप से वह ज्ञान-विज्ञान-संस्कृति की महान विरासत से जुड़ा है, किंतु वह सब इस्लाम से पहले की हिंदू देन थी। इसी कारण पाकिस्तान में संपूर्ण शिक्षा उसे खारिज करती है। वहां इतिहास पढ़ाया ही नहीं जाता, ताकि ‘काफिरों’ से जुड़ी गौरवशाली बातें छिपाई जाएं। बदले में जो वर्तमान उन्होंने बनाया, वह पूरी दुनिया में जिहाद का निर्यात एवं कुख्यात मदरसों के रूप में जिहादी फैक्टरियां ही हैं। इसलिए पाकिस्तान की समस्या अनाज की कमी नहीं है। वहां एक महत्वपूर्ण वर्ग मानता है कि इस्लाम से दूर होने से ही वे मुसीबत में पड़े हैं, तो उन्हें पक्का इस्लाम लागू करना चाहिए। पड़ोसी अफगानिस्तान को उन्होंने यही सिखाया और अब उनकी भी वही दुर्गति हो रही है।*
*पाकिस्तान का टूटना भी हमारी समस्या का समाधान नहीं। आखिर 1971 में टूट के बाद भी उसका वजूद बना रहा और वह भारत में जिहादी हमले करवाता रहा। इस सबके बावजूद उसे पश्चिमी और अरब देशों से भारी सहायता मिलती रही। इसीलिए हमें वहां मौजूद समस्या को समग्रता में देखना होगा। परवेज मुशर्रफ ने कहा ही था कि ‘भारत के अंदर भी एक पाकिस्तान है, जो अंततः भारी पड़ेगा।’ इसलिए, पाकिस्तान का ध्वस्त होना हमारे लिए कोई स्वत: राहत नहीं। यह लड़ाई तो उस मतवाद से है जिससे पाकिस्तान और भारत ही नहीं, दुनिया के असंख्य देश अपनी-अपनी तरह से त्रस्त हैं। तभी पाकिस्तान की समस्या का वास्तविक हल हो सकेगा।*
डॉ. शंकर शरण*