ललित गर्ग
कर्नाटक में चुनावों को लेकर नफरती सोच एवं हेट स्पीच का बाजार बहुत गर्म है। राजनीति की सोच ही दूषित एवं घृणित हो गयी है। नियंत्रण और अनुशासन के बिना राजनीतिक शुचिता एवं आदर्श राजनीतिक मूल्यों की कल्पना नहीं की जा सकती। नीतिगत नियंत्रण या अनुशासन लाने के लिए आवश्यक है सर्वोपरि राजनीतिक स्तर पर आदर्श स्थिति हो, तो नियंत्रण सभी स्तर पर स्वयं रहेगा और इसी से देश एक आदर्श लोकतंत्र को स्थापित करने में सक्षम हो सकेगा। अक्सर चुनावों के दौर में राजनीति में बिगड़े बोल एवं नफरत की राजनीति कोई नई बात नहीं है। चर्चा में बने रहने के लिए ही सही, राजनेताओं के विवादित बयान गाहे-बगाहे सामने आ ही जाते हैं, लेकिन ऐसे बयान एक ऐसा परिवेश निर्मित करते हैं जिससे राजनेताओं एवं राजनीति के लिये घृणा पनपती है। यह सही है कि शब्द आवाज नहीं करते, पर इनके घाव बहुत गहरे होते हैं और इनका असर भी दूर तक पहुंचता है और देर तक रहता है। इस बात को राजनेता भी अच्छी तरह जानते हैं इसके बावजूद जुबान से जहरीले बोल सामने आते ही रहते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने कर्नाटक में प्रधानमंत्री को लेकर जो कुछ कहा उसके अगले दिन कर्नाटक के ही भाजपा विधायक बासनगौड़ा पाटिल यतनाल ने सोनिया गांधी को लेकर उतनी ही आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी। सार्वजनिक रूप से ऐसी टिप्पणियों को हेट स्पीच के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता। राष्ट्रीय एकता एवं राजनीतिक ताने-बाने को ध्वस्त कर रहे जहरीले भाषणों की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है।
संकीर्णता एवं राजनीति का उन्माद एवं ‘हेट स्पीच’ के कारण न केवल विकास बाधित हो रहा है बल्कि देश की एकता एवं अखण्डता भी खण्ड-खण्ड होने के कगार पर पहुंच गयी है। राजनेताओं के नफरती, उन्मादी, द्वेषमूलक और भड़काऊ भाषणों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने भी कड़ी टिप्पणियां की है। भाषा की मर्यादा सभी स्तर पर होनी चाहिए। कई बार आवेश में या अपनी बात कहने के चक्कर में शब्दों के चयन के स्तर पर कमी हो जाती है और इसका घातक परिणाम होता है। मुद्दों, मामलों और समस्याओं पर बात करने की बजाय जब नेता एक-दूसरे पर निजी हमले करने लगें तो यह उनकी हताशा, निराशा और कुंठा का ही परिचायक होता है। कांग्रेस पार्टी ने भाषा एवं बयानों की मर्यादा को लांघा है। दरअसल, कांग्रेस में यह रिवाज ही बन चुका है। चुनाव में वह कुछ बुनियादी समस्याओं पर बोलने की बजाय है, कोई न कोई ऐसी नफरती एवं गैरजरूरी बयानबाज़ी कर ही देता है जिसका परिणाम आखिरकार पार्टी को भुगतना पड़ता है। इसी कारण पार्टी लगातार जनआधार खो रही है और रसातल में धंसती जा रही है।
कांग्रेस सहित अनेक राजनीतिक दलों के नेता ऐसे वक्तव्य देते हैं और विवाद बढ़ता देख बाद में सफाई देने से भी नहीं चूकते। वोट के लिए धर्म, सम्प्रदाय, जाति, समाज किसी को भी नहीं छोड़ा जा रहा। पार्टी कोई सी भी हो, चुनावी सभाओं में नेता अपने विरोधियों के खिलाफ जहर उगलने से नहीं चूकते। नेता चाहे सत्ता पक्ष से जुड़े हों या प्रतिपक्ष से, अक्सर भाषणों में हदें पार कर देते हैं। सुप्रीम कोर्ट के समय-समय पर दिए गए निर्देशों की भी इन्हें परवाह नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों ही चुनाव आयोग को मजबूत करने के प्रयास करते हुए उसे अपनी ताकत का अहसास भी कराया है। कोर्ट ने यहां तक कहा कि कुछ गलत होने पर उसे प्रधानमंत्री के खिलाफ कार्रवाई करने से भी नहीं हिचकना चाहिए। कर्नाटक के ताजा उदाहरण बताते हैं कि चुनाव आयोग का भी अभी तंद्रा से जागना बाकी है। चुनाव आयोग सख्ती दिखाए तो किसकी मजाल कि भरी सभाओं में जहर उगलती भाषा का इस्तेमाल कर जाए।
पूरे विश्व में आज जब हिंदुस्तान का डंका बज रहा है, तो देश के भीतर और देश के बाहर बैठी ‘भारत विरोधी शक्तियां’ एकजुट होकर राष्ट्रीय एकता एवं लोकतांत्रित मूल्यों के ताने-बाने को क्षत-विक्षित करना चाहती है। ऐसी शक्तियां किसी भी तरह भारत से विकास का एक कालखंड छीन लेना चाहती हैं। भारत के लोगों में सहन करने की अद्भुत शक्ति रही है, लेकिन विदेशी ताकतें एवं देश की विरोधी शक्तियां उन्माद एवं नफरत के बीज बौने के तरह-तरह के षड़यंत्र रचते रहते हैं, उनके मंनसूबों को पूरा करने में राजनीति दल एवं नेता अपनी भूमिका निभा रहे हैं। सोचने की बात तो यह है कि राजनीतिक भावनाओं एवं नफरती सोच को प्रश्रय देने वाले राजनीतिक दल भी खतरे से खाली नहीं हैं। उनका भविष्य कालिमापूर्ण है। उनकी नफरती कोशिशों पर दुनिया की नजरे टिकी हैं। वे क्या बोलते हैं, क्या सोचते हैं, इसी से भारतीय लोकतंत्र की गरिमा दुनिया में बढ़ सकती है। जरूरत है कि हमारे राजनीति दल अपनी सोच को परिपक्व बनाये, मतभेदों को स्वीकारते हुए मनभेद को न पनपने दे।
राजनीति में नफरत उगलने वाले बयानों को रोकने के लिए चुनाव आयोग को सख्ती दिखानी ही चाहिए। आखिर नेताओं को नफरत का बाजार सजाने की छूट क्यों हो? समय रहते नहीं रोका गया तो अपने आपको तीसमारखां समझने वाले राजनेता और उच्छृंखल एवं अनुशासनहीन ही होंगे। ऐसे नेता अपनी जुबान का इस्तेमाल सुर्खियों में रहने के लिए भी करने लगे हैं। उन्हें लगता है कि जो संदेश जनता को देना था वह दे दिया है। नाप-तोल कर नहीं बोलने वालों के खिलाफ कानून तो सख्त हो ही, नेताओं को भी सार्वजनिक जीवन में रहने की आचरण संहिता खुद तैयार कर लेनी चाहिए। जनता भी ऐसे नेताओं का बहिष्कार करते हुए उनको उनकी जमीन दिखाये। हर राजनीतिक दल के लिये दायित्व के साथ आचार संहिता अवश्य हो। दायित्व बंधन अवश्य लायें। निरंकुशता नहीं। आलोचना भी हो। स्वस्थ आलोचना, पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को जागरूक रखती है। पर जब आलोचक मौन हो जाते हैं और चापलूस मुखर हो जाते हैं, तब फलित समाज को भुगतना पड़ता है।
आज हम अगर राजनीतिक दलों एवं दायित्व स्वीकारने वाले समूह के लिए या सामूहिक तौर पर एक संहिता का निर्माण कर सकें, तो निश्चय ही लोकतांत्रिक ढांचे को कायम रखते हुए एक मजबूत एवं शुद्ध व्यवस्था लोकतंत्र संचालन के लिये बना सकते हैं। हां, तब प्रतिक्रिया व्यक्त करने वालों को मुखर करना पड़ेगा और चापलूसों को हताश, ताकि सबसे ऊपर अनुशासन और आचार संहिता स्थापित हो सके अन्यथा अगर आदर्श ऊपर से नहीं आया तो क्रांति नीचे से होगी। जो राजनीतिक व्यवस्था अनुशासन आधारित संहिता से नहीं बंधती, वह विघटन की सीढ़ियों से नीचे उतर जाती है। काम कम हो, माफ किया जा सकता है, पर आचारहीनता तो सोची समझी गलती है- उसे माफ नहीं किया जा सकता।
”राजनीतिक सिस्टम“ की रोग मुक्ति, स्वस्थ समाज एवं राष्ट्र का आधार होगा। राष्ट्रीय चरित्र एवं राजनीतिक चरित्र निर्माण के लिए नेताओं एवं उनके दलों को आचार संहिता से बांधना ही होगा। अब तो ऐसा भी महसूस होने लगा है कि देश की दंड व्यवस्था के तहत जहां ‘हेट स्पीच’ को नये सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता है वहीं इस समस्या से निपटने के लिए ‘हेट स्पीच’ को अलग अपराध की श्रेणी में रखने के लिए कानून में संशोधन का भी वक्त आ गया है? मगर इस दौर की राजनीति का स्वरूप कुछ ऐसा बनता गया है कि दूसरे दलों एवं उनके नेताओं के खिलाफ नफरती भाषण देकर अपना जनाधार बढ़ाने का प्रयास किया जाने लगा है। निश्चित ही यह विकृत एवं घृणित सोच वोट की राजनीति का हिस्सा बनती जा रही है। इस प्रवृत्ति पर अविलंब अंकुश लगाने की आवश्यकता है ताकि इस समस्या को नासूर बनने से पहले ही इस पर प्रभावी तरीके से नियंत्रण पाया जा सके। आजादी के अमृत-काल में राजनीतिक दलों में नफरत एवं उन्माद की आंधी को नियंत्रित करने के लिये विभिन्न राजनीतिक दलों में विनाशकारी बोलोें की बजाय निर्माणात्मक बोलों का प्रचलन बढे़।