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पाकिस्तान में ‘सिख-मुस्लिम भाईचारा’ नारे का सच


-बलबीर पुंज

“सतगुरु नानक प्रगट्या, मिटी धुंध जग चानन होया, कलतारण गुरु नानक आया…” आगामी 27 नवंबर को पूरा विश्व— विशेषकर सिख, श्री गुरु नानक देवजी (1469-1539) का 555वां प्रकाश उत्सव मनाएंगे। जब सिख समाज इस पर्व की तैयारियों में जुटा है, तब विभाजन के बाद पाकिस्तान के हिस्से गए श्री करतारपुर साहिब गुरुद्वारा की मर्यादा भंग होने का समाचार सामने आया है। बकौल मीडिया रिपोर्ट, गुरुद्वारा परिसर में शराब और मांसाहार व्यंजन युक्त पार्टी हुई थी, जिसका एक वीडियो भी वायरल है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति और दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक समिति सहित अन्य सिख संगठनों ने इसकी निंदा की है। इसी पृष्ठभूमि में जब पंजाब विधानसभा के अध्यक्ष कुलतार सिंह संधवा 20 नवंबर को करतारपुर साहिब गए, तब वहां उपस्थित मुख्य ग्रंथी गोबिंद सिंह ने गुरुद्वारा परिसर में पार्टी की खबरों को ‘शरारती तत्वों द्वारा फैलाई गई अफवाह’ बता दिया। उनके अनुसार, वीडियो गुरुद्वारे के बाहरी क्षेत्र का है। क्या इस स्पष्टीकरण से श्री करतारपुर साहिब गुरुद्वारा को अपवित्र करने का पाप कम हो जाता है?

श्री करतारपुर साहिब गुरुद्वारा, 42 एकड़ में फैले हुए परिसर में स्थित है। माना जाता है कि इसका निर्माण सिख पंथ के संस्थापक श्री गुरु नानक देवजी के जीवनकाल में हुआ था। रावी नदी के पश्चिमी तट पर स्थित करतारपुर गांव में नानकजी ने अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष बिताए थे और यही ‘नाम जपो, किरत करो और वंड छको’ का भी उपदेश दिया था। जिस क्षेत्र में सदियों से गुरुग्रंथ साहिब का पाठ पढ़ा और गुरु साहिब का नाम जपा जा रहा है, उस पावन क्षेत्र में शराब और मांस-मछली का सेवन, निसंदेह मर्यादा का उल्लंघन है। गुरुद्वारा पवित्र होता है, साथ ही जिस परिसर में वह स्थापित है, वह भी उतना ही पवित्र होता है और उसकी मर्यादा का हर हाल में पालन होना चाहिए।

सच कहूं, तो मुझे अंतरराष्ट्रीय सीमा से कुछ ही दूर करतारपुर में इस तरह सिख मर्यादा के भंग होने पर कोई अचरज नहीं हुआ। यह पाकिस्तान के वैचारिक डीएनए के अनुरूप है, जिसे ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरणा मिलती है। इसमें गैर-मुस्लिमों (हिंदू और सिख सहित) का उत्पीड़न, उनकी पूजा-पद्धति और पूजास्थलों पर हमला या पवित्रता भंग करना— मजहबी दायित्व की पूर्ति माना जाता है। इसी चिंतन प्रेरित ‘इको-सिस्टम’ में हिंदुओं की भांति सिख भी ‘काफिर’ है, जो शरीयत प्रदत्त व्यवहार के पात्र है। यह मामला भारतीय वाम-उदारवादियों द्वारा प्रदत्त ‘दलित-मुस्लिम बंधुत्व’ की भांति ‘सिख-मुस्लिम भाईचारे’ संबंधित नारे की फिर से हवा निकालने हेतु पर्याप्त है।

इस प्रकरण पर मुझे दो दशक पहले बतौर राज्यसभा सांसद और साफमा प्रतिनिधिमंडल सदस्य के रूप में मेरा पाकिस्तान का दौरा स्मरण होता है। तब मैंने अपनी आंखों से पाकिस्तानी हुकमरानों द्वारा गुरु परंपरा की मर्यादा को तार-तार होते देखा था। ‘काफिर-कुफ्र’ दर्शन से प्रेरित व्यवस्था में वहां सत्ता अधिष्ठान द्वारा गैर-इस्लामी संस्कृति, परंपराओं और प्रतीकों से कैसा व्यवहार किया जाता है, इसका प्रत्यक्षदर्शी मैं दुर्भाग्यवश गुरु नानक देवजी की पवित्र जन्मस्थली ननकाना साहिब में ही बना। जब मैं वहां पहुंचा और मैंने वांछित पंथिक शिष्टाचार के अंतर्गत पवित्र गुरुद्वारे में प्रवेश किया, तब मेरे साथ भेजे गए पाकिस्तानी सुरक्षाबलों ने बिना सिर ढके और पैरों में जूतों के साथ गुरुद्वारे में कदम रख दिया। मेरे कड़े विरोध के बाद जब सुरक्षाकर्मी बाहर गए, तब ग्रंथी ने मुझे बताया कि पाकिस्तान के गुरुद्वारों पर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई का दबदबा है और वहां का चढ़ावा सीधे उनके खजाने में जाता है।

इस्लाम के नाम पर 1947 में भारत के खूनी विभाजन के बाद जन्मे पाकिस्तान में पिछले सात दशकों में अल्पसंख्यक— विशेषकर हिंदू-सिख किस स्थिति में है, यह इस घोषित इस्लामी देश में अल्पसंख्यकों के पूजास्थलों की दशा देखकर भी स्पष्ट हो जाता है। इस संबंध में गत माह देश के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचारपत्र ने पाकिस्तान में गुरु परंपरा से जुड़े गुरुद्वारों पर सारगर्भित रिपोर्ट प्रकाशित की थी। बकौल रिपोर्ट, पाकिस्तान में 345 स्थायी सिख तीर्थस्थल हैं, जिनमें से 135 सीधे पहले छह गुरुओं से संबंधित हैं। परंतु इनमें केवल 22 ही सक्रिय हैं, जिनमें से दो के बड़े हिस्से तो मजहब उपेक्षा के कारण इसी वर्ष वर्षा में ढह गए। इसी में एक— भारत-पाक सीमा से 2-3 किलोमीटर दूर लाहौर स्थित जाहमन गांव का ऐतिहासिक गुरुद्वारा रोरी साहिब है, जो 1947 से पहले सिखों और हिंदुओं के लिए आस्था का एक केंद्र बना हुआ था। यह गुरुद्वारा महाराजा रंजीत सिंह (1780-1839) के शासन काल में बनाया गया था। ऐसा माना जाता है कि गुरु नानक देवजी ने झामन के बाहर एक टीले पर विश्राम किया था। एक प्राचीन खंडहर में उन्हें मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े मिले, जिससे उस स्थान पर बने मंदिर का नाम बाद में गुरुद्वारा रोरी साहिब रखा गया। पंजाबी भाषा में रोरी का अर्थ टुकड़े होता है।

गंभीर बात यह है कि जर्जर हो चुके गुरुद्वारा रोरी साहिब के फर्श पर जहां कभी मर्यादा के साथ गुरु ग्रंथ साहिब को रखा जाता था और उसका पाठ किया जाता था, उसे स्थानीय मुसलमानों ने न केवल खजाने की खोज में जगह-जगह से खोद दिया है, साथ ही उसपर कब्जा भी कर लिया है। श्री रोरी साहिब एकमात्र गुरुद्वारा नहीं था, जो बारिश में ढहा हो। कसूर ज़िले स्थित दफ्तू गांव में बना गुरुद्वारा दफ्तू साहिब भी इसी वर्ष 23 जुलाई को ढह गया था।

बात केवल यही तक सीमित नहीं। विभाजन के समय पाकिस्तान की कुल जनसंख्या में 15-16 प्रतिशत आबादी हिंदुओं और सिखों की थी, जो सात दशक बाद एक प्रतिशत भी नहीं रह गई है। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, 24 करोड़ की आबादी वाले पाकिस्तान में हिंदू 22 लाख (0.91 प्रतिशत) और सिख 74 हजार (0.03 प्रतिशत) है, जिनकी बहू-बेटियां स्थानीय मुसलमानों द्वारा आए दिन अपहरण पश्चात जबरन मतांतरण और मजहबी उत्पीड़न-दमन की शिकार है। इसी इस्लामी कट्टरता से मुस्लिम समाज के शिया, सुन्नी और अहमदिया संप्रदाय भी अभिशप्त है। वास्तव में, पाकिस्तान में ‘काफिर’ हिंदू-सिखों की आस्था, उनकी पूजापद्धति और पूजास्थलों का सम्मान करना, इस इस्लामी देश के वैचारिक और भौतिक अस्तित्व का विरोधाभास है।

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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