इस न्यायालयीन प्रशासन के लिए किसे दोष दें ? हमारे देश भारत में,प्रति 10 लाख जनसंख्या पर लगभग 20 न्यायाधीश हैं, जो बेहद कम हैं। वर्ष 2016 से अब तक की अवधि में, मुकदमों की लंबित संख्या जिला अदालतों में 2 करोड़ 65 लाख से बढ़कर 4 करोड़ 11 लाख हो गई है, जो कि 54.64 प्रतिशत की वृद्धि है। चार करोड़ मामले निचली अदालतों में जबकि 42 लाख दीवानी मामले और 16 लाख आपराधिक मामले उच्च न्यायालयों में लंबित हैं। उच्चतम न्यायालय में भी 68435 मामले लंबित हैं।उच्च और सर्वोच्च नयालयों में जजों की नियुक्ति को लेकर तनातनी जारी है | सरकार और न्यायपालिका के बीच यह तनातनी कोई नयी बात नहीं है, लेकिन पिछले कुछ समय से मामला गहराता दिख रहा है। ख़ास तौर पर केंद्रीय कानून मंत्री के उस बयान के बाद जिसमें उन्होंने कॉलेजियम सिस्टम को लेकर गंभीर सवाल उठाए।
आंकड़ों की बात करें तो 30 नवंबर, 2022 तक उच्च न्यायलय के जजों की स्वीकृत क्षमता 1108 है लेकिन फिलहाल 776 जज हैं और 332 रिक्तियां हैं। उच्च न्यायलय ने 146 (44प्रतिशत ) सिफारिशें की हैं जो सरकार और सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं, बीच में कॉलेजियम सिस्टम है |
हकीकत में कॉलेजियम सिस्टम वह प्रक्रिया है जिससे सर्वोच्च और उच्च न्यायलय जजों की नियुक्ति और तबादले किए जाते हैं। ताज़ा बहस तब शुरू हुई जब गत 25 नवंबर को केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने जजों की नियुक्ति करने की पूरी प्रक्रिया को ही संविधान से परे बता दिया। कानून मंत्री ने याद दिलाने की कोशिश की कि सुप्रीम कोर्ट ने अपनी समझ और अदालत के ही आदेशों को आधार बनाते हुए कॉलेजियम बनाया। केंद्रीय मंत्री की यह बात सही है कि संविधान में कॉलेजियम का कहीं जिक्र नहीं है ।
वैसे कॉलेजियम भारत के चीफ़ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों का एक समूह है। ये पांच लोग मिलकर तय करते हैं कि सर्वोच्क नायालय में कौन जज होगा। ये नियुक्तियां उच्च न्यायलय से की जाती हैं और सीधे तौर पर भी किसी अनुभवी वकील को भी उच्च न्यायलय का जज नियुक्त किया जा सकता है। ये नियुक्तियां भी कॉलेजियम की सलाह से होती है जिसमें सर्वोच्च न्यायलय के चीफ़ जस्टिस, उच्च नायाय्लय के चीफ़ जस्टिस और राज्य के राज्यपाल शामिल होते हैं। कॉलेजियम बहुत पुराना सिस्टम नहीं है और इसके अस्तित्व में आने के लिए सर्वोच्च न्यायलय के तीन फ़ैसले जिम्मेदार हैं, जो ‘जजेस केस’ के नाम से जाने जाते हैं ।
इस तनातनी की शुरुआत साल 2014 से हुई। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब देश में एनडीए सरकार बनी तो केंद्र सरकार संविधान में 99 वां संशोधन करके नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन (एनजेएसी) अधिनियम लेकर आई। इसमें सरकार ने कहा कि चीफ़ जस्टिस और उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की जगह अब एनजेएसी के प्रावधानों के तहत काम हो। अक्तूबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने नये अधिनियम एनजेएसी को ‘संविधान के आधारभूत ढांचे से छेड़छाड़’ बताते हुए रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में संविधान में न्यायपालिका और चीफ़ जस्टिस की राय को तरजीह देने की बात कही गई है और सरकार का ऐसा दख़ल संविधान की मूल भावना के खिलाफ़ है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर उच्चतम न्यायालय कॉलेजियम और सरकार के बीच गतिरोध देखते हुए संसद की एक समिति ने कहा है कि वह केंद्रीय कानून मंत्रालय के न्याय विभाग की टिप्पणियों से सहमत नहीं है कि उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्तियों का समय इंगित नहीं किया जा सकता। समिति ने कहा कि न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों में उन समय-सीमाओं का पालन नहीं किया जा रहा है, जिससे रिक्तियों को भरने में देरी हो रही है। कॉलेजियम की सिफारिशों पर अमल के लिए डेडलाइन न होने की वजह से सिफारिशों को लागू करने में कई बार देरी होती है तो कई बार केंद्र गजब की तेजी से उन पर सहमति देकर वापस लौटा देता है।
उदहारण है एक जस्टिस की नियुक्ति के मामले में तो केंद्र ने कॉलेजियम की सिफारिश के तकरीबन सात माह बाद मुहर लगाई थी। केंद्र की तरफ से अप्रैल में उनकी फाइल वापस लौटा दी गई थी। लेकिन जब बार ने तीखा विरोध जताया तो जुलाई में उनकी फाइल पर केंद्र ने मुहर लगाई थी। जबकि जिस अन्य जस्टिस के साथ उनके नाम की सिफारिश 11 जनवरी, 2018 को की गई थी उनकी फाइल तुरंत अप्रूव हो गई। इसी तरह दो अन्य जजों के लिए भी कॉलेजियम की फाइल दो दिनों में ही मंजूर कर ली गई। कॉलेजियम ने 26 अगस्त 2021 को सबसे ज्यादा नौ नियुक्तियों की सिफारिश की थी। इन मामलों को नौ दिनों में ही मंजूर कर लिया गया। ऐसे ही कई मामले हैं जहां केंद्र ने ज्यादा हीला-हवाली न करते हुए कॉलेजियम की सिफारिशों को कुछ दिनों में ही मंजूर कर लिया।
मुद्दा बेशक केंद्र और सर्वोच्च न्यायलय के क्षेत्राधिकारों का हो किन्तु इसमें पिस आम लोग रहे हैं, जिन्हें शीघ्र न्याय की दरकार है। न्याय मिलने में देरी न्याय नहीं मिलने के समान है। केंद्र सरकार अपनी जिद पर कायम है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति उसके बनाए कानून से हो, उधर सर्वोच्च न्यायलय कॉलेजियम प्रणाली से नियुक्ति पर अड़ा हुआ है। दो प्रमुख संवैधानिक स्तंभों में खुलेआम जारी रस्साकसी का खमियाजा फरियादियों को भुगतना पड़ रहा है। न्यायाधीशों के पद रिक्त होने से फरियादियों को न्याय मिलने में विलंब हो रहा है।देश के संवैधानिक ढांचे और लोकतांत्रिक मूल्यों को बरकरार रखने की दरकार है कि केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीशों की भर्ती के मुद्दे पर बने टकराव को खत्म करें, ताकि पीडि़तों को शीघ्र न्याय सुलभ हो सके।
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