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संघीय ढांचे व लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये जरूरी ये फ़ैसले

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों ने देश की शीर्ष अदालत के उन फ़ैसलों से जनमत को जोड़ा है जो देश में कथित “डबल इंजिन” की सरकार जैसी कल्पनाओं को नकारता हैं। आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनाव के नतीजे शायद यही संदेश की ओर इशारा करते दिखे कि “जिन मुद्दों को लोकतांत्रिक मूल्यों व सर्वमान्य कायदों के आधार पर सुलझाया जा सकता है, उन्हें राजनीतिक जिद और अहंकार इतना जटिल बना देता है कि उन पर अदालतों को निर्णय देने पड़ते हैं।“ इस सबमें जन कल्याण और विकास पीछे छूट जाता है। देश के बड़े दलों के लिए जनता का कर्नाटक और सुप्रीम कोर्ट के ताजे फ़ैसले मर्गदर्शी सिद्धांत हो सकते हैं।

चुनी हुई सरकार गिराने [महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार] के लिये चले राजनीतिक प्रपंच में राज्यपाल की भूमिका और गुट विशेष की राजनीतिक तिकड़मों पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाये, वहीं एक अन्य फैसले में दिल्ली सरकार को अधिकार देकर दायित्वों के निर्वहन के लिये सक्षम बनाया है। जाहिर है आज देश के अन्य महत्वपूर्ण व जरूरी मुद्दों पर समय देने के बजाय अदालतों को टाले जा सकने वाले मुद्दों पर उलझना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को महाराष्ट्र में चले राजनीतिक ड्रामे के बाबत कहा कि उद्धव ठाकरे को फिर से मुख्यमंत्री नहीं बनाया जा सकता। वजह है कि उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया था। लेकिन साथ ही कहा कि जून 2022 में राज्यपाल द्वारा महाराष्ट्र विधानसभा में फ्लोर टेस्ट का आदेश नियमों के अनुरूप नहीं था। वहीं दूसरी ओर कोर्ट ने विधानसभा अध्यक्ष को 16 विधायकों को अयोग्य ठहराने वाली याचिका पर फैसला लेने को कहा है। दरअसल, विगत में मुख्यमंत्री रहते हुए उद्धव ठाकरे ने पार्टी व्हीप का उल्लंघन करने वाले 16 विधायकों को अयोग्य ठहराने की मांग की थी। कोर्ट का कहना था कि फ्लोर टेस्ट का प्रयोग किसी दल की आंतरिक कलह सुलझाने के लिये कदापि नहीं किया जा सकता। उल्लेखनीय है कि यह स्थिति महाराष्ट्र में बीते साल जून में सोलह विधायकों के बागी होने की बाद पैदा हुई थी।

इसी प्रकार दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर केजरीवाल सरकार व एलजी के बीच लंबे समय से चले आ रहे टकराव पर सुप्रीम कोर्ट ने मार्गदर्शक फैसला दिया है। अधिकारों को लेकर जारी कानूनी लड़ाई के बात शीर्ष अदालत ने फैसला दिया कि अधिकारियों की तैनाती और स्थानांतरण का हक दिल्ली सरकार का है, यह राज्य और केंद के आशिकारों की स्पष्ट व्याख्या है । कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि भूमि, लोक व्यवस्था तथा पुलिस केंद्र सरकार के अधिकार के दायरे में रहेगी। निस्संदेह, यह फैसला वर्ष 2019 में आये विभाजित फैसले से इतर स्पष्ट व मार्गदर्शक है। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि जनता द्वारा चुनी गई दिल्ली सरकार के प्रत्येक कार्यक्षेत्र में एलजी दखल नहीं दे सकते। अधिकारियों की तैनाती व तबादले का अधिकार जनता द्वारा चुनी सरकार के पास होना तार्किक ही है। दरअसल, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल आरोप लगाते रहे हैं कि केंद्र सरकार द्वारा तैनात अधिकारी उन्हें काम नहीं करने दे रहे हैं क्योंकि उनकी नियुक्ति व तबादले का अधिकार उनकी सरकार के पास नहीं है। जहां कर्नाटक की जनता का फ़ैसला भी सरकार के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ शंखनाद है तो वहीं सुप्रीम कोर्ट के ये फ़ैसले सिर्फ प्रशासनिक व्यवस्था के लिये ही नहीं बल्कि राजनीतिक मायने भी रखते हैं। निस्संदेह, इससे राज्य सरकारों का मनोबल बढ़ेगा। ‘आप’ दलील देती रही है कि “जो जनता हमें सरकार बनाने का जिम्मा सौंपती है, नौकरशाहों के जरिये उनके लिये काम करने का अधिकार भी हमें होना चाहिए। ऐसी विकट स्थिति में हम जनता के दरबार में फिर किस मुंह से जाते? यदि उनके कार्य न करा पाते।“ अब सचिवों के सरकार के अधीन होने से यह जिम्मेदारी पूरी हो ये फ़ैसले सरकार चुनने किसी भी चुनी हुई सरकार को लोकतांत्रिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाएँगे जो संघीय ढांचे व लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये भी जरूरी है।

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