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नई शिक्षा नीति के तीन वर्ष और उच्च शिक्षा : न्यू नार्मल में एब्नार्मल


– अनुज अग्रवाल

अभी हाल ही में मैं अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी के बारे में अपने परिचित से जानकारी ले रहा था जो वहाँ पढ़ रहा है।अमेरिका की टॉप 20 यूनिवर्सिटी में शामिल लगभग छ: हज़ार एकड़ में फैली इस यूनिवर्सिटी में तीन सौ से अधिक रिसर्च सेंटर व संस्थान हैं जिनमे 67 हज़ार से भी अधिक विद्यार्थी पढ़ रहे हैं। फ़ीस के अतिरिक्त यूनिवर्सिटी के पास इतने प्रोजेक्ट कारपोरेट सेक्टर व सरकारों से आ जाते हैं कि वह पूर्णत: आत्मनिर्भर है। यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले एक छात्र के अनुसार ” Great school with good professors, world class infrastructure , library & labs, fun social life, and lots of school spirit, excellent achievements of our people and for their contributions to society in the pursuit of education, research, and health care.Admission strictly on merit basis. Placement is good and The average base salary after PG is $106,372.”
भारत में निश्चित रूप से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बहुत काम हुआ है।किंतु विश्व स्तरीय संस्थानों से हम कितना पीछे हैं यह ऊपर के कथन से स्पष्ट हो गया है। इतने पर भी हमारे सैकड़ों केंद्रीय विश्वविद्यालयों व शोध संस्थानों ने सीमित संसाधनों व चुनौतियों के बीच विश्व में झंडे गाड़े हैं। केंद्रीय व राज्यों के सरकारी व सरकारी और निजी डीम्ड यूनिवर्सिटी लगातार अपनी साख और सेवाओं का विस्तार कर रहीं हैं तो पिछले दो दशकों में निजी विश्वविद्यालयों की एक बड़ी श्रृंखला खड़ी हो गई है। इसके अतिरिक्त इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, मेडिकल, डेंटल, फार्मेसी , पेरामेडिकल, नर्सिंग, होटल मैनेजमेंट, डिज़ाइन, फाइन आर्ट्स, ला, स्पोर्ट्स, बीएड, पॉलीटेक्निक आदि के हज़ारो संस्थान खड़े हो चुके हैं। जो भी अच्छा कर रहा है वह तीव्र विस्तार कर रहा है और बड़े शिक्षा समूह व विश्वविद्यालय अथवा विश्वविद्यालयों के समूह में बदलता जा रहा है। कई ने देश के बाहर भी शाखाएं खोल ली हैं।
इतना सब के बाद भी भारत के मात्र दस प्रतिशत सरकारी व निजी विश्वविद्यालय व उच्च शिक्षा संस्थान ही ऐसे हैं जो परिसर, इंफ्रास्ट्रक्चर, योग्य शिक्षक, लाइब्रेरी, शोध संस्थान, गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा व योग्य विद्यार्थियों से भरे हों। अच्छे प्रोजेक्ट, टाइ-अप्स, अच्छे प्लेसमेंट व स्टार्टअप भी इन्ही के हिस्से में आते हैं। इनको भारी मात्रा में सरकारी व अन्य सहायता व अनुदान भी मिल जाता है। इतना सबके बाद भी विश्व रैंकिंग में ये बहुत पीछे हैं।विडम्बना यह है कि भारत का कोई भी संस्थान वैश्विक शीर्ष सौ संस्थानों में अपनी जगह नहीं बना पाया। वैश्विक टॉप 200 में केवल तीन भारतीय संस्थान ही जगह बना पाए हैं। कुल मिलाकर 41 भारतीय संस्थान और विश्वविद्यालय हैं जिन्होंने इस वर्ष क्यूएस विश्वविद्यालय रैंकिंग सूची में जगह बनाई है।
आइआइटी हो या आईआईएम या फिर कॉलेज और विश्वविद्यालय, रैंकिंग के टॉप टेन में जगह बनाने वाली शिक्षण संस्थाओं में पिछले सालों से एक से नाम ही नजर आते हैं। यह तो लगता है कि ये संस्थाएं अपनी गुणवत्ता बनाए हुए हैं पर यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि दूसरी उच्च शिक्षण संस्थाएं आखिर टॉप सूची में आने से क्यों वंचित रहती हैं? हम क्या कहकर विदेशी छात्रों को आकर्षित करेंगे? भारत प्राचीन समय में उच्च शिक्षा एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का केंद्र रहा है, फिर आजादी के बाद इस विरासत को क्यों नहीं कायम रख पाये?
इन त्रासद उच्च स्तरीय शिक्षा के परिदृश्यों में बदलाव लाने लाते हुए यह देखना है कि गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा में हम कैसे सम्मानजनक स्थान बनाये।भारत में समुचित सुविधाएं और अनुसंधान एवं विकास के लिए वह माहौल नहीं है जो युवाओं को नया सोचने और खोज करने को प्रेरित करे। जहां तकनीक चालित जगत में नित उन्नत अनुसंधान हो रहा है वहीं हमारी पुराने ढर्रे की शिक्षा प्रणाली आज भी रट्टा मारकर परीक्षा उत्तीर्ण करने पर केंद्रित है। यह कृत्य गहन प्रतिस्पर्धा वाली मौजूदा दुनिया में हमें पछाड़कर रख देगा, न ही इससे हमारे विश्वविद्यालयों और लैब्स में क्वांटम फिजिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, नैनो-टेक्नोलॉजी, रोबोटिक्स इत्यादि नवीनतम तकनीकों का वैसा प्रसार हो पाएगा, जो भविष्य को आकार दे रहा है। आज भारत तमाम क्षेत्रों और विधाओं में पश्चिमी जगत और चीन का मुकाबला करना चाहते है, परंतु तरक्की के लिए जो दो अवयव – शिक्षा और स्वास्थ्य – एक पूर्व-शर्त हैं। भारत में रक्षा सामग्री, मेडिकल उपकरण, सेमीकंडक्टर, कंप्यूटर, वाहन, हवाई जहाज और समुद्री जहाजों के आयात पर अरबों-खरबों रुपये खर्च रहे हैं। यह इसलिए कि स्वदेशी अनुसंधान एवं विकास सुविधाएं नगण्य हैं। पहले ही बहुत देर हो चुकी हैं, अपने उद्योगों का आधुनिकीकरण युद्धस्तर पर करना ज़रूरी है और इसकी राह शिक्षा एवं स्वास्थ्य से होकर है। जिस रूस और अन्य पश्चिमी मुल्कों से हम खरबों डॉलर का आयात कर रहे हैं उन्हीं से तकनीक देने को कह रहे हैं ताकि वे वस्तुएं भारत में बन सकें, पर इसमें सफलता न्यून रही है। कंप्यूटिंग क्षमता की बात करें तो आज भी हमारे पास सुपर कंप्यूटर नहीं है और सेमीकंडक्टर के क्षेत्र में तो हमारी स्थिति उस बच्चे की मानिंद है जो अभी चलना सीख रहा है। दवा क्षेत्र में, मुख्य घटक सामग्री और नवीनतम खोज के लिए हम अभी भी चीन और पश्चिमी मुल्कों पर निर्भर हैं। हमारे पास आईआईटी, आईआईएम, एम्स जैसे विश्वस्तरीय संस्थान हैं, लेकिन हमारी जरूरत के हिसाब से बहुत कम हैं और बड़ी बात यह कि यहां से प्रशिक्षित होकर निकली प्रतिभाओं को हम उचित माहौल देकर देश में नहीं रोक पा रहे। इन संस्थानों से पढ़कर निकले अधिकांश स्नातक उच्च शिक्षा या रोजगार के लिए पश्चिमी देशों का रुख करते हैं। भारत में वैसा माहौल और अवसर नहीं हैं कि देश की प्रतिभा स्वदेश में रहना चुनें। । यह ब्रेन-ड्रेन देश का बड़ा घाटा है। ध्यान का केंद्र उद्योगों और विश्वविद्यालयों के बीच साझेदारी बनाने और अनुसंधान के लिए सरकारी धन मुहैया करवाने पर हो। विकसित देशों में यही युक्ति कारगर रही है, जहां पर वे आपसी तालमेल से चलते हैं।

भारत में उच्च शिक्षा की इस दयनीय स्थिति के कारण ही वर्ष 2017 से 2022 के दौरान 30 लाख से अधिक भारतीय छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए थे। अकेले वर्ष 2022 में ही 7.5 लाख भारतीयों ने विदेश जाने का अपना उद्देश्य अध्ययन करना बताया था। एक बात साफ है कि विश्व स्तरीय रैंकिंग में भारतीय उच्च शिक्षण संस्थाओं का काफी नीचे के पायदान पर होना भी इसकी एक महत्त्वपूर्ण वजह है। भारत की रैंकिंग में टॉप टेन पर रहने वाली उच्च शिक्षण संस्थाएं जब वैश्विक रैंकिंग में शीर्ष सौ की सूची में भी नहीं आए तो चिंता होनी चाहिए।
उच्च शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री देना ही नहीं है बल्कि चिंतन, मनन और शोध की नई धारा को प्रवाहित करना एवं गुणवान नागरिकों का निर्माण करना भी इस उद्देश्य में शामिल है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2035 तक स्कूल में दाखिला लेने वाले पचास फीसदी छात्र-छात्राएं उच्च शिक्षा का मार्ग भी चुनेंगे। ऐेसे में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की उच्च शिक्षण संस्थाओं को वैश्विक मुकाबले में आने योग्य बनाना होगा। यह चुनौती इसलिये भी बड़ी है कि हमने विदेशी विश्वविद्यालयों के लिये भी भारत के दरवाजे खोल दिये हैं। इसलिये भारत के उच्च-शिक्षण संस्थानों के लिये यह भी सुनिश्चित करना होगा कि वे संख्यात्मक नहीं, बल्कि गुणात्मक दृष्टिकोण लिए हों। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति की शुरुआत करते हुए अगस्त तक डिजिटल यूनिवर्सिटी के शुरू होने और विदेशों के ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज और येल जैसे उच्च स्तरीय लगभग पांच सौ श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थानों के भारत में कैंपस खुलने शुरु हो जायेंगे। अब भारत के छात्रों को विश्वस्तरीय शिक्षा स्वदेश में ही मिलेगी और यह कम खर्चीली एवं सुविधाजनक होगी। इसका एक लाभ होगा कि कुछ सालों में भारतीय शिक्षा एवं उसके उच्च मूल्य मानक विश्वव्यापी होंगे।
डायलॉग इंडिया का वर्ष 2023 का सर्वे बता रहा है कि शीर्ष दस प्रतिशत संस्थानों को छोड़ दिया जाए तो भारत में शेष 90% उच्च शिक्षा संस्थान एक जैसी समस्याओं व चुनौतियों से घिरे हैं। लगभग सभी संस्थान एडमिशन के लिए कंसल्टेंट, एजुकेशन फेयर व एक्सीबिशन, आक्रामक व अक्सर झूठा प्रचार, अतिरंजित इंफ्रास्ट्रक्चर,लैब, टाई-अप्स, सुविधाओं, प्लेसमेंट के दावे करने वाले विज्ञापन, एचआर मैनेजर की मदद से फर्जी नियुक्ति पत्र, डिग्री बेचने, बेमतलब के शोध, झूठे पेटेंट, सरकारों व रेग्युलेटरी संस्थाओं को भारी रिश्वत, सरकारी अनुदान में गड़बड़ी आदि का शिकार हैं। बेसिक स्किल की कक्षाएं देना उनकी मजबूरी है क्योंकि स्कूली शिक्षा की स्थिति बहुत दयनीय है।
भारत में स्कूली शिक्षा में छात्र-छात्रों के ड्रॉपआउट्स की संख्या बढ़ना न केवल शिक्षा-व्यवस्था पर बल्कि स्कूल-प्रबंधकों पर एक बड़ा सवाल बनता जा रहा है। स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या आठ करोड़ से भी ज्यादा है, जो यह बताने के पर्याप्त है कि स्थिति काफी गंभीर है। पिछले साल पैंतीस लाख विद्यार्थी दसवीं के बाद ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने नहीं गए। इनमें से साढ़े सत्ताइस लाख सफल नहीं हुए और साढ़े सात लाख विद्यार्थियों ने परीक्षा नहीं दी। इसी तरह, पिछले साल बारहवीं के बाद 2.34 लाख विद्यार्थियों ने बीच में पढ़ाई छोड़ दी।
डायलॉग इंडिया का सर्वे कहता है कि अगर उच्च शिक्षा व उनसे जुड़े संस्थानो के स्तर को सुधारना है तो बेसिक व माध्यमिक शिक्षा को पेचिदा बनाने की बजाय सहज एवं रोचक बनाना होगा। ताकि कुछ बच्चों को स्कूल बोरिंग न लगे है, 9वीं और 10वीं कक्षा तक आते-आते कई बच्चों को स्कूल बोरिंग लगने लगता है। इस कारण वे स्कूल देरी से जाना चाहते हैं, क्लास बंक कर देते हैं और लंच ब्रेक में बैठे रहते हैं। पढ़ाई और स्कूल से लगाव ना होने की वजह से अक्सर बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। किसी भी वजह से बच्चे का स्कूल या पढ़ाई छोड़ने का मन करना, पैरेंट्स के लिए एक बड़ी परेशानी है, लेकिन यह शिक्षा की एक बड़ी कमी की ओर भी इशारा भी करता है।
लगातार शिक्षा मन्दिरों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव भी बच्चों को स्कूलें छोड़ने पर विवश करते हैं। शिक्षा का अधिकार कानून आने के बाद भी भारत में सिंगल टीचर स्कूलों की मौजूदगी बनी हुई है। स्कूलों में विभिन्न विषयों के अध्यापक नहीं है, इससे बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होती है। वे आठवीं के बाद आगे पढ़ने लायक क्षमता का विकास नहीं कर पाते। स्कूल आने वाले लाखों बच्चों में गणित और भाषा के बुनियादी कौशलों का विकास नहीं हो पा रहा है। इस कारण से स्कूल छोड़ने वाली स्थितियां निर्मित होती हैं।
भोजन की गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है ताकि करोड़ों बच्चों को कुपोषण से बचाया जा सके। बहुत से सरकारी स्कूलों में शौचालय की स्थिति दयनीय है, विशेषतः बालिकाओं एवं बच्चे सम्मान के साथ उनका इस्तेमाल नहीं कर सकते। गांवों एवं पिछड़े इलाकों की स्कूलों की बात छोड़िये, राजधानी दिल्ली में स्कूलों में पीने का स्वच्छ पानी नहीं है, बैठने के लिये पर्याप्त साधन नहीं है, इस स्थिति में भी बदलाव की जरूरत है। बहुत से स्कूलों में शिक्षक शराब पीकर आते हैं। या फिर स्कूल में हाजिरी लगाकर स्कूल से चले जाते हैं। ऐसी स्थिति का असर भी बच्चों की पढ़ाई पर पड़ता है। शिक्षकों को बच्चों की प्रगति और पीछे रहने के लिए जिम्मेदार बनाने वाला सिस्टम नहीं बन पाया है, इस दिशा में भी गंभीर पहल की जरूरत है।
ऐसे में अधिकांश बारहवीं पास बच्चे जैसे तैसे रट्टा मारकर या नकल कर पास होते हैं और उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए मुसीबत व बोझ बन जाते हैं। बड़े जतन व बहला फुसला कर लिए गए इन विद्यार्थियों को न तो लैब समझ आती है न लाइब्रेरी और न ही अंग्रेज़ी में पढ़ाते अध्यापक की बाते और यह सब दिखाबटी और सजावटी अधिक हो जाता है। दस बीस प्रतिशत औसत या बेहतर विद्यार्थियों को अलग कक्षायें देकर शेष के लिए मजबूरी में संस्थान बेसिक स्किल पढ़ाते रह जाते हैं और मूल कोर्स कवर ही नहीं हो पाता। फिर इज़्ज़त बचाने के लिए अतिरिक्त अंक दिलवाने के जुगाड़ किए जाते हैं और जैसे तैसे विद्यार्थी को डिग्री थमा दी जाती है। इसीलिए भारत में डिग्री का रोजगार से कोई ख़ास नाता नहीं है। यहाँ तक कि स्किल डेवलपमेंट के प्रोजेक्ट और शिक्षा भी बस काग़ज़ी ज़्यादा हैं।
भारत की शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी सुधारों की आवश्यकता है। नई शिक्षा नीति और चौथी औद्योगिक क्रांति की सफलता के लिए आवश्यक है कि –
– शिक्षा का भारतीयकरण हो, भारत की भाषाओं में हो व यह भारत की आवश्यकताओं पर केंद्रित हो ।
– बेसिक व माध्यमिक शिक्षा पर अधिक फोकस किया जाए।अगर उच्च शिक्षा संस्थानो को प्रतिभाशाली व योग्य विद्यार्थी मिलेंगे तो उनकी गुणवत्ता में निखार आता जाएगा।
– उच्च शिक्षा संस्थानों में शोध , अनुसंधान, इनोवेशन, स्किल व एंटरप्रेन्योरशिप को बढ़ाना होगा।
– कंप्यूटर व आईटी के साथ अन्य ब्रांचों में भी समान रूप से अवसरों की उपलब्धता व वेतन उपलब्ध होने चाहिए।
– आरक्षण व्यवस्था समाप्त करनी होगी व निर्धन को निःशुल्क शिक्षा की सुविधा देनी होगी। साथ ही एजुकेशन लोन के लिए धन की उपलब्धता को भी कई गुना बढ़ाना होगा
– छात्र व अध्यापकों के संस्थानों में प्रवेश की प्रक्रिया निष्पक्ष, न्यायपूर्ण व पारदर्शी बनानी होगी ।
– वह सभी वस्तुएँ जो हम आयात करते हैं उनको देश में ही बनाने का तंत्र विकसित करना होगा।
– विश्व को जलवायु परिवर्तन के कारण मिल रही चुनौतियों का समाधान भारतीय दृष्टिकोण से खोजना होगा।
– डिजिटलीकरण व एआई की चुनौती का सामना करने में हमारा शिक्षा तंत्र सक्षम हो व रोजगार परक हो।
यह सब यूही नहीं होगा, इसके लिए शिक्षा के बजट व सरकार और समाज के संकल्प दोनों को दोगुना करना होगा ताकि सभी जरूरी संसाधन जुटाए जा सके और उनके माध्यम से ईमानदारी से लक्ष्यों की पूर्ति का मनोबल विकसित किया जा सके।
अनुज अग्रवाल
संपादक , डायलॉग इंडिया

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