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क्या है विपक्षी एकता का भविष्य?


-बलबीर पुंज

राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव के परिणाम क्या होंगे? यह 3 दिसंबर की मतगणना के बाद स्पष्ट हो जाएगा। उस दिन यह भी पता चल जाएगा कि आई.एन.डी.आई. गठबंधन का भविष्य क्या हो सकता है? एक बात स्पष्ट है कि इस विपक्षी गठजोड़ को लोकसभा चुनाव से पहले कई चुनौतियों से पार पाना होगा।

कुछ दिन पहले जो विपक्षी कुनबा आई.एन.डी.आई.ए. की पताका तले ‘एकता’ की बात करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देने रहे थे, उनका सिर-फुटव्वल वर्तमान विधानसभा चुनाव में सीट बंटवारे को लेकर सड़क पर आ गया। मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी गठबंधन करना चाहती थी। इसपर कांग्रेस ने मुंह मोड़ लिया। तब सपा ने न केवल 70 से अधिक सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दिए, अपितु पार्टी मुखिया अखिलेश यादव ने अपनी चुनावी सभाओं में अन्य विरोधियों की भांति कांग्रेस पर भी जमकर कटाक्ष करना शुरू कर दिया। मनमुटाव इतना बढ़ गया कि प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ ने पत्रकारों के अखिलेश संबंधित सवाल पर कह दिया, “अरे भाई छोड़ो, अखिलेश वखिलेश”। इससे पहले दिल्ली-पंजाब में ‘आप’-कांग्रेस, तो प.बंगाल के वामपंथी, तृणमूल और कांग्रेस के नेताओं के बीच जुबानी जंग हो चुकी है।

मध्यप्रदेश में सपा-कांग्रेस के टकराव का प्रभाव उत्तरप्रदेश में पड़ना स्वाभाविक है। अखिलेश यादव कह चुके हैं कि यदि प्रदेश में गठबंधन हुआ, तब भी उनकी पार्टी 80 में से 65 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी, तो इसके जवाब में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय ने सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने की बात कह दी। बाद में अखिलेश ने अजय को ‘चिरकुट’ कहकर संबोधित कर दिया।

बात केवल यही तक सीमित नहीं। छद्म-सेकुलरवादियों की विभाजनकारी राजनीति, जिसमें अक्सर मुसलमानों को इस्लाम के नाम पर एकजुट और हिंदुओं को जातियों के नाम विभाजित किया जाता है— उसके अनुरूप कांग्रेस और उसके शीर्ष नेता (राहुल गांधी सहित) खुलकर जातीय जनगणना की मांग करने लगे, तो मुस्लिम तुष्टिकरण को बढ़ावा देने हेतु इजराइल-हमास युद्ध में फिलिस्तीन का समर्थन कर दिया। परंतु अखिलेश ने मध्यप्रदेश की एक चुनावी सभा में कांग्रेस की पोल खोलते हुए कह दिया कि कांग्रेस जातीय जनगणना का समर्थन इसलिए कर रही है, क्योंकि उसके पारंपरिक मतदाता छिटक गए है।

यह ठीक है कि सदियों से हिंदू समाज अस्पृश्यता से अभिशप्त है और इसके परिमार्जन हेतु एक लंबा संघर्ष भी किया गया है, जिसमें अब भी काफी कुछ किया जाना शेष है। परंतु वर्तमान दौर में स्वयंभू सेकुलरवादियों द्वारा जातीय जनगणना से सामाजिक विषमता दूर करने की बात मात्र छलावा है। इनका वास्तविक उद्देश्य समरसता के बजाय टकराव को बढ़ावा देना है। जिन वंचितों का हितैषी होने का दम यह राजनीतिक कुनबा भरता है, उनके प्रति इस जमात का आचरण कैसा है, इसका उदाहरण बिहार के विधानसभा सदन में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा पूर्व मुख्यमंत्री और महादलित समाज के वरिष्ठ नेता जीतन राम मांझी पर बिफरने में मिल जाता है। मांझी शालीन भाषा में आरक्षण व्यवस्था की जमीनी सच्चाई के बारे में बता रहे थे, तभी नीतीश अपना आपा खो बैठे और शब्दों की मर्यादा भूल गए।

यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले नीतीश ने विधानसभा और विधानपरिषद में महिलाओं को लेकर बहुत ही असहज वक्तव्य दिया था। जन्मदर संबंधित चर्चा में जिस सड़कछाप भाषा का उपयोग नीतीश ने किया, उसने न केवल महिलाओं की गरिमा पर गहरा प्रहार किया, साथ ही आई.एन.डी.आई. गठबंधन की मानसिकता को भी उजागर कर दिया। विवाद बढ़ने पर मुख्यमंत्री नीतीश ने अपनी अभद्र टिप्पणियों के लिए माफी तो मांग ली, परंतु प्रदेश में उनके मुख्य सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल के शीर्ष नेता और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव— नीतीश का बचाव करते दिखे।

इस विपक्षी गठबंधन की हिंदू विरोधी मानसिकता भी सर्वविदित है। रामचरितमानस और बदरीनाथ के बाद आई.एन.डी.आई. गठबंधन और सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने दीपावली के अवसर पर करोड़ों हिंदुओं की आस्था पर पुन: कुठाराघात करते हुए मां लक्ष्मी पर अपमानजनक टिप्पणी कर दी। इससे पहले इसी गठबंधन के एक मुख्य घटक द्रमुक ने सनातन धर्म को समाप्त करने का आह्वान किया था, जिसे कांग्रेस के कई नेताओं का समर्थन भी प्राप्त था।

कई विरोधाभासों के बाद भी यह सभी विपक्षी दल एकजुट रहने का स्वांग क्यों कर रहे है? इसके दो कारण है। पहला— उनका एकमात्र लक्ष्य किसी भी सूरत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाना है। इसी कारण उनकी नीतियां भी भारत-विरोधी हो जाती है। भारतीय उपमहाद्वीप सदियों से इस्लामी आतंकवाद का शिकार रहा है। जब हमास के हालिया भयावह जिहादी हमले के बाद इजराइल ने प्रतिक्रियास्वरूप अपनी सैन्य कार्रवाई शुरू की, तब भारत सरकार ने इसका पुरजोर समर्थन किया। इसके उलट, 16 विपक्षी नेताओं (कांग्रेस-वामपंथी सहित) का एक समूह दिल्ली में 16 अक्टूबर को फिलीस्तीन दूत से मिलने चला गया।

दूसरा— आज अधिकांश विरोधी दलों का दामन भ्रष्टाचार-कदाचार के आरोपों से दागदार है। तृणमूल कांग्रेस नेताओं पर शिक्षक भर्ती सहित सारधा-रोजवैली चिटफंड आदि घोटालों का आरोप, राजद नेतृत्व पर बेनामी संपत्ति, रेलवे परियोजना आवंटन में वित्तीय गड़बड़ी और आईआरसीटीसी घोटाले का आरोप, ऑनलाइन सट्टेबाजी मामले में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल तक जांच की आंच पहुंचना और कांग्रेस में राहुल-सोनिया हजारों करोड़ के नेशनल हेराल्ड वित्तीय कदाचार मामले में जमानत पर बाहर है। गत दिनों ही दिल्ली आबकारी घोटाला मामले में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को प्रवर्तन निदेशालय ने पूछताछ हेतु समन भेजा है, तो उनके दो पूर्व मंत्री पहले से जेल में है। ऐसे कई उदाहरण है।

वास्तव में, भारत बीते 2014 से एक वांछित परिवर्तन से गुजर रहा है। इसमें वैश्विक आर्थिकी में देश का 10वें से चौथे स्थान पर पहुंचना, भारतीय हितों को सर्वोपरि रखना, श्रीराम मंदिर और काशी विश्वनाथ धाम आदि के रूप में देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण करना और धारा 370-35ए का संवैधानिक क्षरण इत्यादि शामिल है। क्या कांग्रेस सहित मोदी-विरोधी दल यह बता सकते है कि मोदी सरकार ने ऐसा क्या नहीं किया है, जो उसे बीते साढ़े नौ वर्षों में करना चाहिए था या उसने ऐसा क्या कर दिया है, जिसे पुरानी स्थिति में लौटाना अत्यंत आवश्यक हो गया है? इन प्रश्नों के उत्तर में भी आई.एन.डी.आई. गठबंधन का भविष्य निहित है।

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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