बलबीर पुंज
नववर्ष की शीतलहर में राजनीतिक ऊष्मा चरम पर है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि फरवरी-मार्च में त्रिपुरा-मेघालय-नागालैंड, मई में कर्नाटक के साथ नवंबर-दिसंबर में मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना का विधानसभा चुनाव होना है। इसके बाद 2024 के लोकसभा चुनाव की उलटी गिनती भी शुरू हो जाएगी। इसी बीच गत दिनों कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी ने दिल्ली में प्रेसवार्ता करते हुए विपक्षी दलों को साथ जोड़ने और प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में अपनी दावेदारी का संकेत दे दिया।
कांग्रेस देश का सबसे पुराना दल है, जो स्वतंत्र भारत में न केवल 50 वर्षों तक सत्तासीन रहा है और प्रारंभिक वर्षों में लगभग सभी राज्यों में उसकी सरकारें भी थी। वर्तमान समय में, राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के बाद कांग्रेस का सर्वाधिक मतप्रतिशत— लगभग 20% और लोकसभा में 53 सीट है। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश में बहुमत, तो तमिलनाडु, बिहार और झारखंड में क्रमश: द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम, जनता दल यूनाइटेड-राष्ट्रीय जनता दल और झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ उसकी गठबंधन सरकार है। वही पार्टी मध्यप्रदेश में मुख्य विपक्षी दल के रूप में स्थापित है।
यक्ष प्रश्न यह है कि वर्ष 2024 में सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ मुकाबला करने वाला प्रमुख दल कौन होगा? क्या वर्तमान कांग्रेस, भाजपा के साथ दो-दो हाथ करने की स्थिति में है? क्या सभी भाजपा विरोधी दल एक महागठबंधन बनाकर, भाजपा के खिलाफ चुनावी मैदान में उतर सकते है? यदि ऐसा गठजोड़ मूर्त रूप लेता है, तो उसका नेतृत्व किस दल के पास होगा? क्या राहुल गांधी ऐसे गठबंधन के सर्वमान्य नेता हो सकते है? और क्या भारी विषमता के बीच इन विपक्षी दलों को आपस में जोड़ने के लिए, मोदी विरोध के अतिरिक्त कोई सर्वसम्मत सकारात्मक साझा कार्यक्रम हो सकता है? स्वाभाविक रूप से इस सभी प्रश्नों के उत्तर 2024 के लोकसभा चुनाव परिणामों की दिशा तय करेंगे।
सबसे बड़ा विरोधी दल होते हुए भी कांग्रेस तीन बड़े संकटों से जूझ रही है। पहला— विचारधारा। कांग्रेस स्वयं को भाजपा से अलग दिखाने के लिए भाजपा और आरएसएस के खिलाफ उन कालबह्य अभिव्यक्तियों का उपयोग कर रही है, जिनपर दशकों से वामपंथियों का एकाधिकार रहा था। इसका कारण 1969-71 के कालखंड में छिपा है, जब कांग्रेस ने वामपंथी चिंतन को ‘आउटसोर्स’ कर लिया। वर्तमान गांधी परिवार घोषित वामपंथी तो नहीं, परंतु वे स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने हेतु वामपंथी मानस को त्यागने को तैयार भी नहीं है। इसी वैचारिक उलझन के कारण कांग्रेस ने संघ के प्रति अपनी घृणा दिखाते हुए ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में ‘जलती खाकी निक्कर’ की तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट की, तो स्वयं राहुल गांधी आदिवासी समाज को देश का ‘असली मालिक’ और वीर सावरकार को ‘अंग्रेजों का एजेंट’ बताते नजर आए।
कांग्रेस में दूसरा बड़ा संकट नेतृत्व का है। 80 वर्षीय वृद्ध, गांधी परिवार के विश्वासी और कर्नाटक तक सीमित मल्लिकार्जुन खड़गे को पार्टी अध्यक्ष के रूप में मोहरा बनाकर, ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के माध्यम से राहुल गांधी ने पार्टी में अपनी अगुवाई को पुन: स्थापित कर दिया है। भारतीय राजनीति में राहुल की छवि एक गैर-गंभीर राजनीतिज्ञ की रही है, जिनकी कार्यपद्धति पर प्रश्न उठाकर कई वरिष्ठ नेता पार्टी तक छोड़ चुके है। वर्ष 2014 से अबतक 50 से अधिक चुनाव हो चुके है, जिसमें राहुल के प्रत्यक्ष-परोक्ष नेतृत्व में कांग्रेस को 40 में पराजय मिली है।
तीसरा कारण— कई राज्यों में कांग्रेस का ढांचा सिकुड़ना है। स्वतंत्रता के बाद प.बंगाल में फरवरी 1977 से कांग्रेस सत्ता से बाहर है। मार्च 1967 तक तमिलनाडु में कांग्रेसी सरकार थी और वह पिछले 55 वर्षों से अपने बल पर पुन: सरकार नहीं बना पाई है। तेलंगाना में मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव की भारतीय राष्ट्र समिति, तो आंध्रप्रदेश में मुख्यमंत्री वाई.एस. जगनमोहन रेड्डी की वाई.एस.आर कांग्रेस ने कांग्रेस को लगभग नगण्य कर दिया है। उत्तरप्रदेश में वर्ष 1989 तक कांग्रेस बड़ी राजनीतिक शक्ति थी, फिर ‘समाजवादी पार्टी’ और ‘बहुजन समाज पार्टी’ उसका ऐसा विकल्प बनी कि कांग्रेस आज प्रदेश में गौण है। बिहार में भी कांग्रेस की कहानी अलग नहीं, जहां वह 1990 तक प्रभावशाली थी।
नवंबर 2012 से अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी (‘आप’) के समर्थक भी विशुद्ध कांग्रेसी ही है। दिल्ली, पंजाब और गोवा के बाद गुजरात इसका उदाहरण है, जहां के हालिया चुनाव में कांग्रेस को जितने मतों का नुकसान हुआ, लगभग उतना वोट ‘आप’ को स्थानांतरित हो गया। यहां ‘आप’ के 70 प्रतिशत प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई, तो हिमाचल में उसे शर्मनाक पराजय झेलनी पड़ी। वहां ‘आप’ के सभी उम्मीदवार अपनी जमानत बचाने में विफल हो गए। स्पष्ट है कि जहां भाजपा बड़ी राजनीतिक शक्ति है या सत्तासीन है, वहां ‘आप’ वैसा चमत्कार नहीं दोहरा पा रही, जैसा उसने दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस के खिलाफ दिखाया था।
लगभग सभी गैर-भाजपा क्षत्रप दल परिवारवाद का अनुकरण करते हुए ‘छद्म-सेकुलरवादी’ राजनीति कर रहे हैं, जिसमें इस्लामी-ईसाई कट्टरता को बढ़ावा देने का प्रत्यक्ष-परोक्ष भाव है। मई 2014 से इसी संकीर्ण राजनीति को भाजपा— विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की जोड़ी से कड़ी चुनौती मिल रही है। क्या राहुल के आह्वान पर विपक्ष एकजुट होगा? संभवत: नहीं— क्योंकि जिन विपक्षी दलों ने कांग्रेस की कीमत पर अपना विस्तार किया है, क्या वे अपनी राजनीतिक बलि देकर कांग्रेस को पुन: जीवनदान देना चाहेंगे?
कांग्रेस और अधिकांश विपक्षी दल, भाजपा का विकल्प देने की बात करते है। विगत साढ़े आठ वर्षों के दौरान देश में नोटबंदी सहित कई आर्थिक सुधार हुए, भ्रष्टाचारियों के खिलाफ अभियान छेड़ा, शीर्ष स्तर पर बिना किसी वित्तीय गड़बड़ी के धरातल पर करोड़ों लोगों को जनकल्याणकारी योजनाओं लाभ पहुंचाया, कोरोना-विरोधी नीतियों का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन, जम्मू-कश्मीर में सामान्य स्थिति बहाल करने के प्रभावी प्रयास, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, काशी विश्वनाथ के जीर्णोद्धार सहित आधारभूत ढांचे का व्यापक विकास और विश्व पटल पर भारत का कद बढ़ा है। इस सब विषयों पर विपक्षी दल, भाजपा की प्रत्यक्ष-परोक्ष आलोचना तो करते है— परंतु क्या वे सत्ता में आने पर इन उपरोक्त निर्णयों को उलटने का साहस कर सकते है?
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।
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