नए आपराधिक क़ानून क्यों हैं सवालों के घेरे में?
- रजनीश कपूर
देश की संसद ने भारतीय दंड संहिता, 1860, आपराधिक प्रक्रिया अधिनियम, 1898 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 को बदल कर भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम का नाम दिया है
जहां इन नए क़ानूनों में कई अहम प्रावधान लाए गए हैं। वहीं इनकी ख़ामियों को लेकर विवाद भी पैदा हो रहे हैं। देश भर में हर दल में मौजूद बड़े-बड़े वकील या क़ानून के विशेषज्ञ एक ओर इसका समर्थन कर रहे हैं वहीं इन क़ानूनों को लागू करने में आने वाली दिक़्क़तों की बात भी कर रहे हैं।
“जब भी कभी कोई नया क़ानून लाया जाता है या इस से संबंधित कोई विधेयक पास होता है तो आम जनता में यह उम्मीद जगती है कि स्थिति पहले से बेहतर होगी और उन्हें न्याय मिलने में देरी नहीं होगी।” ऐसा मानना है देश के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी यशोवर्धन आज़ाद का। एक टीवी चैनल पर बोलते हुए उन्होंने मोदी सरकार की इस पहल का स्वागत करते हुए कहा कि, “यह एक अच्छी शुरुआत है, इसमें एक अहम बात है कि जिस तरह सूचना प्रौद्योगिकी को इन क़ानूनों में प्रमुखता दी गई है, यह न्याय प्रणाली में तेज़ी लाने की ओर एक अच्छी पहल है। परंतु देश में लंबित पड़े 4.5 करोड़ मुक़दमों को पहले तेज़ी से निपटना होगा तभी नये क़ानूनों को लागू किया जा सकेगा क्योंकि नये क़ानूनों की धाराओं में भी परिवर्तन किया गया है। जो धारा पहले लागू होती थी, नये क़ानूनों में वह धारा बदल गई है और उससे संबंधित सज़ा में भी बदलाव आया है।”
इसके साथ ही श्री आज़ाद का मानना है कि, “जब भी कभी आपराधिक न्यायिक व्यवस्था में सुधार लाए जाते हैं तो यह स्वाभाविक है कि इस प्रणाली के हर अंग का भी सुधार हो। जैसे कि पुलिस, जेल, अभियोजन और कोर्ट। जब तक इस तंत्र के हर अंग का सुधार नहीं होगा तब तक आपराधिक न्यायिक व्यवस्था में सुधार का क्या फ़ायदा? मिसाल के तौर पर पुलिस सुधार की सिफ़ारिशें 1978 से लंबित पड़ी हैं। जिस तरह मौजूदा न्यायिक व्यवस्था में पुलिस हिरासत में दिया गया कोई भी बयान कोर्ट में वैध नहीं माना जाता, उससे लोगों का पुलिस पर विश्वास नहीं बैठता। उसी तरह देश की जेलों में भी कई तरह के सुधार होने अनिवार्य हैं। इसलिए जब तक आपराधिक न्यायिक व्यवस्था के सभी अंगों में सुधार नहीं होंगे तब तक इन बदलावों से कुछ विशेष फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।”
देश के नामी वकील और राज्य सभा सांसद कपिल सिब्बल ने इन नये क़ानूनों को पास किए जाने के तरीक़े पर सवाल उठाए हैं। वे कहते हैं कि, “जो संवैधानिक संस्थाएँ हैं उन्हें इन बिलों को इस तरह से पास नहीं करना चाहिए था। जहां लोक सभा में से 100 सांसदों को और राज्य सभा में से 46 सांसदों को निलंबित कर, बिना किसी चर्चा के इन विधेयकों को पारित किया है
वह नियमों के विरुद्ध है। इन विधेयकों को पास करने से पहले जो कमेटी बनाई गई वहाँ पर क़ानून जानने वाले दिग्गजों की राय नहीं ली गई। जो बिल इस तरह से आम जनता के सांविधानिक हक़ों के ख़िलाफ़ पास किए जाते हैं वो असंवैधानिक कहलाते हैं।” सिब्बल आगे कहते हैं कि, इन नये क़ानूनों में 90 प्रतिशत क़ानून औपनिवेशिक काल के ही हैं जिनका केवल अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद ही किया गया है। यानी कि जो बात अंग्रेजों ने नहीं की वो आज की मौजूदा सरकार द्वारा की जा रही है।” कपिल सिब्बल ने इन बिलों का विरोध करते हुए इन्हें “मानवाधिकार विरोधी” बताया।
देश के पूर्व एएसजी अमन लेखी कहते हैं कि “इन नए क़ानूनों को बदलने की कोई ज़रूरत नहीं थी। इनमें बदलाव कर सरकार ने केवल आम जनता की भावनाओं को जागृत किया है। यह बात सही है कि ये क़ानून ब्रिटिश सरकार द्वारा लाए ज़रूर गये थे परंतु समय के चलते इन्हीं क़ानूनों को हमारे द्वारा ही विकसित किया गया था। इनमें एक आधुनिक न्यायशास्त्र है जो औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर है और आज के मौजूदा लोकतांत्रिक दौर का अभिन्न हिस्सा है। जब भी किसी राजनैतिक बयान की बात होती है तो वहाँ तो कुछ भी कहा जा सकता है। परंतु जब किसी क़ानून के बारे में बात की जाए तो बहुत सोच समझ कर, सही ढंग से और क़ानून के दायरे में रह कर ही की जानी चाहिए।” लेखी के अनुसार, “यह बदलाव आने वाली कई
सदियों के लिए किए जाएँगे इसलिए इनको यदि बदलना ही है तो इनके हर पहलू पर काफ़ी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।” लेखी आगे कहते हैं कि, “जिस तरह इन विधेयकों को पास किया गया है वह अलोकतांत्रिक है। इसमें सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही दोषी हैं। क्योंकि जिस तरह की हरकत विपक्षी नेताओं ने की वह निलंबन के ही हक़दार थे। उधर संसद से विपक्षी नेताओं के निलंबन के चलते सरकार द्वारा ऐसे विधेयक को पास करना भी ग़लत था।”
देश में पुलिस सुधार के सुझावों को विधि आयोग की कई रिपोर्टों में दर्ज किया गया है। इसके साथ ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय के कई ऐसे फ़ैसले भी हैं जहां पुलिस सुधार की बात की गई है। इन पुलिस सुधारों में एक अहम बात है कि अभियोजन और जांच को एक दूसरे से अलग किया जाए। परंतु इन नये विधेयकों में ऐसा कुछ भी नहीं है। यदि इन विधेयकों में ऐसे कुछ अहम बदलाव लाए गए होते तो यह पुराने क़ानूनों से बेहतर होते। ब्रिटिश काल के कई ऐसे क़ानून हैं जहां गंभीर कृत्यों में मामूली सी सज़ा का प्रावधान है। वहीं इसके उलट कुछ कम गंभीर अपराधों में कड़ी से कड़ी सज़ा का प्रावधान है।
इन पहलुओं को भी नहीं देखा गया है और न ही इनमें समावेश किया गया है। इन विधेयकों में एक अच्छी बात यह है कि ‘कम्युनिटी सर्विस’ को भी सज़ा का दर्जा दिया गया है। पश्चिम देशों की तरह कुछ अपराधियों को उनके अपराध का एहसास दिलाने में यह एक अच्छी पहल साबित होगी। यह नये क़ानून कितने उपयोगी सिद्ध होंगे यह तो आनेवाला समय ही बताएगा।
*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक हैं।