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क्यों उठते हैं एनकाउंटर पर सवाल?

विनीत नारायण
उत्तर प्रदेश के व्यापारी आजकल कहते हैं कि योगी राज में मुसलमानों का आतंक ख़त्म हो गया है। इसलिये माफिया डॉन अतीक अहमद के बेटे असद अहमद की एनकाउंटर में मौत का समाचार उन लोगों को सुखद लगा। एनकाउंटर के विषय में कुछ तथ्य और क़ानूनी पेचीदगियों का ज़िक्र मैं इस लेख में आगे करूँगा। पर यहाँ एक सवाल जो समाजवादी पार्टी ने उठाया है वो भी महत्वपूर्ण है। वो ये कि ऐन चुनावों के पहले ही इस एनकाउंटर को करने का योगी सरकार का क्या उद्देश्य था? सिवाय इसके कि इस एनकाउंटर की खबर को दिन-रात टीवी चैनलों पर चलवाकर इसका फ़ायदा अगले महीने होने वाले निकायों के चुनावों में लिया जाए। इसलिये सरकार की नीयत पर शक होता है। क़ानून की नज़र में सब बराबर होने चाहिए। किसी अपराधी का कोई जाति या धर्म नहीं होता। इसलिए बिना भय और पक्षपात के अगर प्रदेश के माफ़ियाओं के विरुद्ध योगी सरकार कड़े कदम उठाती है तो उसका स्वागत ही होगा। पर ऐसे कदम सब अपराधियों पर एक समान उठाए जाने चाहिए, जो आज नहीं हो रहा है। हत्या, बलात्कार और पुलिस उत्पीड़न के शिकार कितने ही लोगों को न्याय नहीं मिल रहा। फ़रियादी हताश होकर आत्महत्या तक कर रहे हैं ऐसी खबरें अक्सर सामने आती रहती है। उत्तर प्रदेश के एक विशेष जाति के माफ़ियाओं की सूची आज कल सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है जिसमें योगी सरकार से पूछा जा रहा है कि इन माफ़ियाओं के विरुद्ध
आजतक ‘बुलडोज़रनुमा’ कार्यवाही क्यों नहीं हुई? उनमें से किसी का एनकाउंटर क्यों नहीं होता? उत्तर प्रदेश सरकार की इस नीति के विरुद्ध भी बहुत लोगों को आक्रोश है।
एनकाउंटर उमेश पाल के आरोपियों का हो या किसी अन्य का जब भी उस पर सवाल उठते हैं तो मामला जाँच कमेटी के पास पहुँचता है। आपको याद होगा कि कुछ ही समय पहले नवंबर 2019 में तेलंगाना राज्य के हैदराबाद में हुए गैंगरेप और हत्या के चार अभियुक्तों के संदिग्ध एनकाउंटर को सर्वोच्च न्यायालय की जाँच समिति ने फ़र्ज़ी पाया। जाँच समिति द्वारा इन पुलिसवालों पर हत्या का मुक़द्दमा चलाने की सिफ़ारिश भी की गई।
पाठकों को याद होगा कि जब यह एनकाउंटर हुआ था, तब लोगों ने पुलिस का समर्थन करते हुए भारी जश्न मनाया था। जैसा असद व अन्य आरोपियों के एनकाउंटर पर भी हो रहा है। वहीं दूसरी ओर हमेश की तरह पुलिस एनकाउंटर पर तमाम सवाल भी खड़े हो रहे हैं। प्रायः ऐसा मान लिया जाता है कि पुलिस द्वारा किए गए एनकाउंटर फ़र्ज़ी ही होते हैं। एनकाउंटर कब और कैसे होते हैं इस बात पर कोई विशेष ध्यान नहीं देता।
क़ानून की बात करें तो देश में मौजूद भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) दोनों में ही एनकाउंटर का कोई भी ज़िक्र नहीं है। तो फिर सवाल उठता है कि पुलिस एनकाउंटर आख़िर है क्या? यदि कोई भी पुलिसकर्मी आत्मरक्षा में सामने वाले पर गोली चलाता है तो उसे सामान्य भाषा में एनकाउंटर माना जाता है। तो क्या पुलिस किसी भी अपराधी पर आत्मरक्षा में गोली चला सकती है? नहीं ऐसा नहीं है।
जब कभी भी पुलिस को किसी अपराधी के बारे में सूचना मिलती है और वह उसे गिरफ़्तार करने जाती है, तो अगर वो अपराधी आत्मसमर्पण कर देता है तब पुलिस उस पर बल प्रयोग नहीं कर सकती। यदि कोई कुख्यात अपराधी, जिसे उम्र क़ैद या उससे ज़्यादा सज़ा हो सकती है और वो गिरफ़्तारी से बचने के लिए भागने का प्रयास करता है और पुलिस उसे पकड़ नहीं पाती, तो उस सूरत में पुलिस उसे ज़ख़्मी करने की नियत से उसके शरीर के किसी भी हिस्से में गोली मार सकती है। प्रायः ये गोली उसकी टांगों में मारी जाती है। जिससे वह ज़्यादा दूर न भाग सके और उसे गिरफ़्तार कर लिया जाए। यदि ऐसे किसी अपराधी के पास कोई जान लेवा हथियार होता है और वो पुलिस पर वार करता है, तो केवल उस सूरत में पुलिस उस पर
आत्मरक्षा में गोली चला सकती है।
मुंबई पुलिस के बहुचर्चित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक और प्रदीप शर्मा से जब किसी पत्रकार ने पूछा कि मुंबई में अपराधियों की सफ़ाई के लिए आप दोनो को ही श्रेय दिया जाता है तो, उनका कहना था कि, “हम तो अपराधियों को पकड़ने के लिए ही जाते हैं, लेकिन वो जब हम पर वार करते हैं तो हमें भी पलटवार करना पड़ता है।” अपराधियों को भी पता है कि यदि वो पुलिस के हत्थे चढ़े तो कई सालों तक जेल के बाहर नहीं आएँगे। इसलिए इन सब से बच कर भागने के प्रयास में वे पुलिस की गोली का शिकार हो जाते हैं। उनके अनुसार 97-98 में जब मुंबई में गैंगस्टरों का आतंक चरम पर था तब सरकार कड़े क़ानून
ले कर आई। अपराधी इन्हीं कड़े क़ानूनों से बचने की पुरज़ोर कोशिश में मारा जाता है। इसी के बाद से मुंबई के अंडरवर्ल्ड में एनकाउंटर का भय बढ़ने लगा। कारण चाहे कुछ और भी रहे हों पर मुंबई में गैंगस्टरों का आतंक थमने लगा। पुलिस एनकाउंटर को बॉलीवुड की कई फ़िल्मों में भी दिखाया गया हैं। जहां ज़्यादातर एनकाउंटर को ऐसे दर्शाया जाता है कि भले ही वो एनकाउंटर फ़र्ज़ी हो, लेकिन जाँच में असली ही पाया जाए। लेकिन यदि किसी भी एनकाउंटर की योजना ग़लत नीयत से की जाती है तो वो आज नहीं तो कल पकड़ा ही जाता है।
इस बात के कई प्रमाण भी हैं जहां फ़र्ज़ी एनकाउंटर करने पर पुलिस वालों को सज़ा भी हुई है। इसका मतलब यह नहीं होता कि सभी एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं। जनता में पुलिस पर विश्वास की कमी होने के कारण ऐसी धारणा बन जाती है की ज़्यादातर एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं।
एक पूर्व आईपीएस अधिकारी ने दिल्ली में 2008 के बाटला हाउस एनकाउंटर का हवाला देते हुए बताया कि, पुलिस को ज़्यादातर मामलों में इस बात का पता होता है कि वो जहां गिरफ़्तारी करने जा रही हैं वहाँ कितना ख़तरा हो सकता है। ऐसे एनकाउंटर को एक सुनियोजित एनकाउंटर कहा जाता है। ऐसे एनकाउंटर में पुलिस की टीम पूरी तैयारी के साथ जाती है।
बाटला हाउस में सब जानकारी के बावजूद दिल्ली पुलिस के एक बहादुर अफ़सर मोहन चंद शर्मा शहीद हुए थे। पुलिस एनकाउंटर में काफ़ी ख़तरा होता है। पुलिसकर्मी भी घायल होते हैं, परंतु ऐसा मान लेना कि सभी एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं सही नहीं। दोषियों को सज़ा देना अदालत का काम होता है न कि पुलिस का। लेकिन पुलिसकर्मी यदि आत्मरक्षा में गोली चलाता है तो उसे हमेशा ग़लत नहीं समझना चाहिए। एनकाउंटर करने के लिए जिन अनुभवी पुलिसकर्मियों को चुना जाता है, उन्हें एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहा जाता है। एनकाउंटर जोखिम भरा होता है और ऐसा जोखिम हर कोई नहीं ले सकता। उसके लिए हथियारों को सही ढंग से चलाना और सामने वाले से बेहतर निशाना लगाना आना चाहिए। परंतु ऐसे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रायः विवादों में भी घिरे रहते हैं। जिस तरह हर सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह कुछ एनकाउंटर स्पेशलिस्ट के घमंड और कभी-कभी उसके भ्रष्टाचार के चलते हर पुलिस एनकाउंटर को शक की निगाह से ही देखा जाता है। ख़ासकर जब राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के पाले हुए गुंडों का एंकाउंटर होता है तब तो जनता के मन में ऐसे ही सवाल उठते हैं कि ऐसे सभी एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं। परंतु सच्चाई तो जाँच
के बाद ही सामने आती है।

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