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मदरसों का विरोध क्यों?

-बलबीर पुंज

गत दिनों वाम-उदारवादी और स्वघोषित सेकुलरवादी, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा पर भड़क उठे। इसका कारण उनका वह हालिया वक्तव्य है, जिसमें उन्होंने दावा किया है कि असम में लगभग 600 मदरसे बंद किए जा चुके है और राज्य सरकार अब सभी मदरसों को बंद करना चाहती है। यूं तो भारतीय संविधान द्वारा अल्पसंख्यकों को अपने अनुरूप शिक्षण संस्था चलाने का अधिकार प्राप्त है। फिर मुख्यमंत्री सरमा ने ऐसा बयान क्यों दिया? आखिर उनके विचारों का निहितार्थ क्या है? क्या विश्व में पहली बार मदरसों के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है?

वैश्विक समुदाय आज जिस मजहबी कट्टरता से ग्रस्त है— उसे प्रेरित करने वाली मानसिकता को पोषित करने में अधिकांश मदरसों की भी महती भूमिका है। जिस तालिबान की जकड़ में अफगानिस्तान है, जहां उसने अन्य मध्यकालीन प्रतिबंधों के साथ लड़कियों पर प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने पर रोक लगा दी है— उस तालिबान का जन्म पाकिस्तान स्थित मदरसों के भीतर ही हुआ था। वर्ष 2021 में फ्रांस ने अपने देश में मजहबी कट्टरवाद-आतंकवाद को कुचलने हेतु जिस सख्त कानून को बहुमत से पारित किया था, उसमें अन्य प्रावधानों के साथ मस्जिदों के भीतर चल रहे मदरसों को प्रतिबंधित करना भी है। वामपंथी चीन अपने इस्लाम विरोधी अभियान के अनुरूप पहले ही मदरसा शिक्षा पद्धति सहित मुसलमानों को मस्जिद जाने, कुरान पढ़ने, दाढ़ी बढ़ाने और इस्लामी नाम रखने पर पाबंदी लगा चुका है।

मदरसा शिक्षा प्रणाली मूलत: इस्लामी मजहबी इल्म और उससे संबंधित रिवायतों पर आधारित है। यहां पढ़ने वाले अधिकांश नौनिहाल और शिक्षक मुस्लिम होते है। संक्षेप में कहे, तो इसका ‘इको-सिस्टम’ इस्लामी पहचान से ओतप्रोत रहता है। चूंकि यहां अधिकतर छात्र-शिक्षक इस्लाम को मानने वाले होते है, इसलिए अन्य मतावलंबी विद्यार्थियों-अध्यापकों के साथ उनका मेलजोल भी ना के बराबर होता है। यदि मदरसे में पढ़ रहे छात्रों का गैर-इस्लामी बच्चों से संपर्क नहीं होगा और वे सदैव अपने समुदाय के बीच रहेंगे, तो उनका दृष्टिकोण, विचार, वेशभूषा, भाषा, आकांक्षाएं, अभिलाषा और अपनी मूल सांस्कृतिक पहचान के बारे में उनकी समझ शेष समाज से भिन्न होंगी और उनके सपने भी अलग होंगे।

एक आदर्श समाज में सभी बच्चों को न केवल शिक्षा के समान अवसर मिले, अपितु शिक्षा के माध्यम से ही उनका विकास भी समान जीवनमूल्यों से प्रेरित होना चाहिए— जिसका आधार बहुलतावाद, पंथनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक हो। क्या अधिकांश मदरसों में ऐसी तालीम मिलना संभव है? इस पृष्ठभूमि में जनवरी 2021 में असम सरकार ने राज्य में 731 सरकारी वित्तपोषित मदरसों को नियमित विद्यालयों में परिवर्तित करने हेतु कानून पारित किया था। पुलिसिया आंकड़े के अनुसार, इस समय असम में निजी मदरसों की संख्या लगभग 3,000 है।

वास्तव में, यह अवधारणा ही त्रुटिपूर्ण है कि मदरसों का आधुनिकीकरण करने या फिर वहां बच्चों को गणित, अंग्रेजी, विज्ञान और कंप्यूटर सिखाने से बच्चों को किसी भी प्रकार की मजहबी कट्टरवाद से दूर किया जा सकता है। सच तो यह है कि आधुनिक विषय केवल एक माध्यम है— इनका उपयोग कैसे किया जाता है, यह उपयोगकर्ता की मानसिकता पर निर्भर है। यदि वाकई आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने से जिहादी मानसिकता का खात्मा संभव होता, तो आईआईटी बॉम्बे से रसायन अभियांत्रिकी में शिक्षा प्राप्त अहमद मुर्तजा अब्बासी, अप्रैल 2022 को उत्तरप्रदेश स्थित प्रसिद्ध गोरखनाथ मंदिर में तैनात सुरक्षाकर्मियों पर मजहबी नारे के साथ हमला क्यों करता? मई 2020 में कश्मीर स्थित गणित स्नातक हिज्बुल आतंकी रियाज नायकू सुरक्षाबलों के हाथों मुठभेड़ में क्यों मारा गया? क्या 2018 में मारा गया हिज्बुल आतंकवादी मोहम्मद रफी भट जम्म-कश्मीर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर नहीं था? इस प्रकार के नामों (ओसामा बिन लादेन सहित) की लंबी सूची है। कटु सत्य तो यह है कि मदरसों के पाठ्यक्रम में विज्ञान, अंग्रेजी और गणित आदि विषय शामिल करने या उसमें कंप्यूटर शिक्षा जोड़ने से मध्यकालीन जिहादी मानसिकता और अधिक आधुनिक यंत्र-तंत्र के साथ न केवल सशक्त होगी, अपितु इसके अधिक विकराल होने की संभावना भी बनी रहेगी।

क्या कारण है कि मुस्लिमों का विश्व के अधिकांश गैर-इस्लामी समाज में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के साथ रहना लगभग असंभव है? इसका उत्तर इस्लामी अनुयायियों के एक बड़े हिस्से का ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित होना है। इस मानवता विरोधी चिंतन का उन्मूलन तभी संभव है, जब मुस्लिम समाज के भीतर से लोग इसके खिलाफ खड़े हो, जो यह कह सके कि मजहबी ग्रंथों में शामिल होने के बाद भी यह मान्यताएं अस्वीकार्य है, क्योंकि वह कालबाह्य हो चुकी है और इनका आधुनिक विश्व में कोई स्थान नहीं। कल्पना कीजिए एक तरफ समाज सती-प्रथा, दहेज-प्रथा और अस्पृश्यता जैसे अभिशापों से लड़ रहा हो, उसी कालखंड में शिक्षण संस्थाएं बच्चों को प्राचीन ग्रंथों को उद्धृत करके यह बताने का प्रयास करें कि यह सब मान्यताएं शास्त्रानुकूल है— क्या तब इन सामाजिक बुराइयों को मिटाना संभव है?

व्यक्ति का बहुलतावादी चिंतन और आचरण, आदर्श समाज का आधार होता है, जिसमें परिवार और बाल्यकाल में मिले संस्कारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। यदि हम अपने समाज को समरस और समावेशी बनाना चाहते है, जहां विविधता स्वीकार्य हो, सभी आस्था, परंपरा और मान्यताओं का सम्मान हो और सभी अनुयायियों को जीवन जीने की स्वतंत्रता हो— तो हमें उन शाश्वत जीवनमूल्यों को अंगीकार करना होगा, जिसकी ‘डिफॉल्ट सेटिंग’ मूल भारतीय संस्कृति है।

बहुरूपता से भरे भारत में नागरिकों की पहचान बहुआयामी हो सकती है। परंतु कुछ मामलों में उन सभी की पहचान सांझी होनी चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि सभी बच्चे, चाहे वे किसी भी मजहब से क्यों न हो— वह समरूप विद्यालयों से शिक्षा प्राप्त करें, जिससे उनके भीतर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘एकम् सत् विप्रा: बहुधा वदंति’ जैसे सांझे मूल्य अंकुरित हो सके। किसी भी मजहब या वैचारिक अधिष्ठान को यह अधिकार नहीं है कि वह लोकतांत्रिक, बहुलतावाद और सेकुलरवाद जैसे मूल्यों का अपनी मजहब या विचारधारा से प्रेरित होकर क्षरण करें। इस संदर्भ में असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के विचारों को समझने की आवश्यकता है।

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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