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पुस्तकालयों, पत्र-पत्रिकाओं के प्रति उदासीनता क्यों ?

आज का युग सूचना प्रौद्योगिकी व संचार का युग है। सूचना प्रौद्योगिकी व संचार के युग के साथ ही आज हम सोशल नेटवर्किंग साइट्स, इंटरनेट, फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर, इंस्टाग्राम में ही अधिक रम-बस गए हैं। हमें कोई भी सूचना, जानकारी प्राप्त करनी होती है तो हम इंटरनेट पर उसे सर्च करने लगते हैं और इंटरनेट के माध्यम से तमाम जानकारियां, सूचनाएं पल झपकते ही प्राप्त कर लेते हैं। पुस्तकों को तो जैसे इस युग में हम नजरअंदाज ही कर चुके हैं। आज विरले ही कोई व्यक्ति किसी पुस्तकालय में पढ़ने जाता होगा, अथवा पुस्तकालय(लाइब्रेरी) का विजिट करता होगा। एक जमाना था, जब आपको बहुत से स्थानों पर सार्वजनिक पुस्तकालय देखने को मिल जाते थे। आज कहीं बड़ी मुश्किल से ही सार्वजनिक पुस्तकालय देखने को मिल सकते हैं। पुस्तकालयों का जीवन में अपना महत्व है और

अगर सच में भारत को प्रगति व उन्नति के पथ पर अग्रसर करना है तो देश में सार्वजनिक शौचालय और पुस्तकालय दोनों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में स्थापित करने, उन्हें बनाने के बारे में हमें सोचना होगा, इसके लिए काम करना होगा। लेकिन आज यह विडंबना ही है कि लाइब्रेरी व पत्र- पत्रिकाओं के प्रति उदासीनता घर करती जा रही है। सच तो यह है कि लाइब्रेरी(पुस्तकालय) पत्र-पत्रिकाओं के प्रति आज रूचि का ही जैसे अभाव सा हो गया है।आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी, संचार तकनीक के आने के बाद से लोगों की जीवनशैली में आमूल चूल परिवर्तन आए हैं। आज हमारी युवा पीढ़ी का अधिकतम समय सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बीतता है, वे लाइब्रेरी, पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ते नजर नहीं आते अथवा इनका अध्ययन करते कम ही नजर आते हैं। एक समय में बच्चे लाइब्रेरी जाया करते थे, पुस्तक, पत्र-पत्रिकाएं निर्गमित करवाकर वे इन्हें पढ़ते थे,आज सूचना तकनीक के साथ वह समय लदता चला जा रहा है। आज काग़ज़ का इस्तेमाल कम है, स्क्रीन टाइम का इस्तेमाल ज्यादा है। पुरानी लाइब्रेरी को देखिए आपको वहां बहुत पुरानी पत्र-पत्रिकाएं, किताबें आज भी सहेजी हुई मिल जाएंगीं लेकिन बहुत कम लोग ही आज पुस्तकालयों को खोजते नजर आते हैं। वह भी एक दौर था जब हर छोटी-बड़ी जगह एकाध लाइब्रेरी हुआ करती थी। शांति से बैठकर अध्ययन करते थे, यहाँ तक कि खाना-चाय-पानी तक भी लाइब्रेरी में ही हो जाता था। स्कूलों में भी लाइब्रेरी के प्रति एक अलग सा ही हमारा दृष्टिकोण था, और लाइब्रेरी में जाने पर एक अलग ही आनंद व सुख की अनुभूति होती थी, स्कूलों के बुक बैंक आज भी बहुत से लोगों को याद होंगे। युवा पीढ़ी इनके बारे में शायद नहीं जानती हों, ऐसा संभव हो सकता है, क्यों कि आज की युवा पीढ़ी सीधे बाजार से ही पुस्तकों को लेतीं हैं, खरीदती हैं। अब वे दिन हवा हो चले हैं जब हमें कस्बों, शहरों के बस-स्टैंड और  रेलवे स्टेशन के बुक स्टॉल पर हमें पत्रिकाएं बहुत ही आसानी से मिल जाया करती थीं। आज सबकुछ हमारे एंड्रॉयड में, लैपटॉप में या यूं कहें कि लैपटॉप में बंद होकर ही रह गया है। यह विडंबना ही है कि आज सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाले अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं को सरकारी विज्ञापन तक देना बंद कर दिया जाता है, जिससे उनके सामने आर्थिक संकट खड़ा हो जाता है और उनका प्रकाशन तक बंद हो जाता है। आज बहुत से स्कूलों में पुस्तकालयों की व्यवस्था नहीं है। पुस्तकालयों के लिए फंड तक की उपलब्धता नहीं हो पाती है। यदि कहीं पर पुस्तकालय अवस्थित भी हैं तो उनकी पुस्तकें अलमारियों में ही कैद होकर रह जाती हैं। लाइब्रेरी के लिए अलग से कोई व्यवस्थाएं नहीं होतीं हैं। लाइब्रेरियन या पुस्तकालयध्यक्ष, बुक बैंक तो बहुत दूर की बात है। लाइब्रेरी स्थापित करने के लिए संसाधन यथा कमरे, फर्नीचर, बिजली, पानी,फंड तक नहीं होते हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के इस दौर में आज विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकालयों का बंद होना बेहद चिंताजनक है। आधुनिक विकास व तकनीक के बढ़ते उपयोग के कारण आज प्रिंट मीडिया सबसे ज्यादा प्रभावित हो गया है। इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया, इंटरनेट, टेलीविजन और एंड्रॉयड मोबाइल(फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर, इंस्टाग्राम, यू-ट्यूब) की पहुंच घर-घर होने से लोगों का बहुत सारा समय इनमें ही अधिकतर बीतता है। बहुत ही अफसोसजनक है कि आज सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर आधी अधूरी सूचनाएं समाज में लगातार भय और भ्रम फैलाने का काम भी कहीं न कहीं कर रही हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बहुत सी सूचनाएं व जानकारियां गलत होतीं हैं। आज इंटरनेट और ऑनलाइन रीडिंग का दौर है और इस दौर में जब समाचारपत्रों का ही भविष्य संकट में है तो पत्रिकाओं और पुस्तकालयों की कल्पना आखिरकार कहाँ की जा सकती है ? हमें पुस्तकालयों, पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों की ओर लौटना होगा।

सुनील कुमार महला,

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