क्या सफल होंगे समांतर व नई विश्व व्यवस्था के संघर्ष ?
– अनुज अग्रवाल
जो बाइडेन के अनुसार पुतिन “युद्ध अपराधी” व “कसाई ” हैं। सच में ऐसा ही है। पुतिन अत्यंत ही क्रूरता से अमेरिका के वर्चस्व की हत्या कर रहे हैं। यूक्रेन पर गिरती हर मिसाइल अमेरिका , नाटो , यूरोपियन यूनियन व जी- 7 देशों के घमंड को तोड़ती जा रही है। नाटो देशों के हर नए प्रतिबंधों की घोषणा रूस की युद्ध आक्रामकता को और बढ़ा देती है। रूस यूक्रेन के शहर दर शहर सैन्य ठिकानों को नष्ट करता जा रहा है और उसका वि-सैन्यकरण कर रहा है तो उधर नाटो देशों से हथियारों की नई खेप पहुँच जाती है और फिर दूसरे चरण में रूस यूक्रेन के शहरों को तबाह कर देता है। यूक्रेन के वि-सैन्यकरण व उसको नाज़ीवाद से मुक्त करने के इस तथाकथित अभियान में यूक्रेन की एक चौथाई जनता विस्थापित हो गयी है इसके बाद भी यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलांसकी अमेरिका व नाटो देशों की कठपुतली बन विनाश व तबाही के इस खेल को समाप्त करने को इच्छुक नहीं दिखते, ऐसे में अगर युद्ध लंबा खिंचता है तो यूक्रेन पूरी तरह बर्बाद होना तय है। नाटो व अमेरिका के प्रोपेगेंडा के ने भ्रम का बाजार खड़ा कर दिया है और रुस व पुतिन को दैत्य बना दिया है, तरह तरह के हथियारों व युद्धों की आशंकाओं से समाचार चैनल भरे पड़े हैं , यद्यपि सच्चाई यह है कि रूस ने इस युद्ध में अपने हथियारों व सैन्य क्षमता का मात्र दस प्रतिशत ही उपयोग किया है , इसके साथ ही मानवीय क्षति भी बहुत कम हुई हैं और तब भी अधिकांश यूक्रेन उसके कब्जे में आ चुका है और कोई बड़ा युद्ध अभी नहीं होने जा रहा और परमाणु युद्ध तो बिल्कुल भी नहीं। ब्रुसेल्स में इकट्ठे हुए नाटो देश व पोलैंड गए बाईडेन बयानबाज़ी से ज़्यादा कुछ भी न कर सके और उनकी सीमाए दुनिया को समझ आ गयीं। अमेरिका प्रोपेगेंडा के जवाब में रूस ने भी “परमाणु हमले “ के विकल्प को खुले रखने की बात बार बार कहकर यूरोप- अमेरिका सहित पूरी दुनिया को हिला दिया है और पुतिन की इन धमकियों से यूरोपीय देशों की जनता बेहद डर भी गयी है। युद्ध के व्यापारी अमेरिका की इन बयानबाजियों से बांछें खिली हुई हैं और वह “डर” के इस बाजार को भुनाकर निरंतर मोटा मुनाफा कमा रहा है किंतु पूरी दुनिया हथियारों की होड़, सप्लाई चेन टूटने के कारण बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, भूख व भय के बीच जी रही है।रुस देर सबेर यूक्रेन में अपनी कठपुतली सरकार बैठा ही देगा यह सब जानते हैं किंतु अमेरिका इस खेल को लंबा खींचना चाहता है ताकि ज्यादा लाभ कमा सके। साथ ही वह दुनिया के पुलिसमैन बने रहने व रुस को थकाने की अंतिम कोशिश कर रहा है। यधपि बाज़ी उसके हाथ से निकलती जा रही है। ऐसे में यूक्रेन पर रूस के कब्जे के बाद भी इस क्षेत्र में संघर्ष व तनाव कम नहीं होने जा रहा और रूस के और आक्रमणकारी होने की संभावनाएं प्रबल हो गयी हैं। ।अब रुस भी दीर्घकालिक नीति पर काम कर रहा है। इसीलिए तुर्की की मध्यस्थता में वह यूक्रेन से वार्ता कर रहा है।
इस युद्ध का दूसरा व सबसे महत्वपूर्ण पहलू दुनिया के “ एक बाज़ार” व “ ग्लोबल विलेज” हो जाने के अमेरिका के दावे का छिन्न भिन्न होना। जिस प्रकार बहुराष्ट्रीय कंपनियां नाटो देशों के इशारों पर रूस से काम समेटने लगीं व अमेरिका ने रूस के विदेशी मुद्रा भंडार को जब्त कर लिया उससे स्पष्ट हो गया कि “ग्लोबल इकॉनमी” का जैसी कोई अवधारणा नहीं है और इसका एक ही अर्थ है वो है अमेरिका व नाटो द्वारा नियंत्रित विश्व अर्थव्यवस्था। अमेरिका व नाटो देश दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुए ब्रेटनवुड समझौते व “डालर के वर्चस्व” के “माइंडसेट” से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं और दुनिया के देशों को अपनी कठपुतली ही समझ रहे हैं।इराक़ युद्ध , जैस्मिन क्रांति ,अफगानिस्तान से वापसी और अब रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच जिस प्रकार अमेरिका ने इन देशों की अपने यहां रखे सिक्योरिटी फंड को जब्त किया उससे अमेरिका की साख घटी है और डालर को अंतरराष्ट्रीय लेनदेन की मुद्रा बनाए रखने के निर्णय पर दुनिया के देश मंथन करने लगे हैं। उनको लग रहा है कि उनका अमेरिका में जमा किया गया डालर या अपने पास रखा विदेशी मुद्रा भंडार कहीं मिट्टी न बन जाए। इसी कारण रूस ने यूरोप के देशों से गैस व तेल की आपूर्ति रूबल में ही करने की शर्त रख दी है।यूरोपीय देश भले ही रूबल में भुगतान से इंकार कर रहे हों किंतु गैस की आपूर्ति के लिए रूस पर उनकी निर्भरता उनको घुटने टेकने पर मजबूर कर देगी। रुस भारत सहित अन्य देशों को उनकी ही मुद्रा में व सस्ते दाम पर तेल गैस व अन्य वस्तुएं देने का प्रस्ताव दे भी चुका है।चीन युआन को डॉलर के स्थान पर खड़ा करने के लिए पर्दे के पीछे सक्रिय है। चीन के विदेश मंत्री की दक्षिण एशिया की यात्रा के यही संदर्भ भी हैं और इसलिए वह यूएन में रूस के साथ खड़ा है।चीन अब भारत के साथ अपने संबंध ठीक करने का इच्छुक है और पाकिस्तान में भारत के अनुकूल हो रहे सत्ता परिवर्तन भी बता रहे हैं कि चीन अपना व पाक का भारत के साथ सीमा तनाव खत्म करने की पहल कर रहा है ताकि दक्षिण एशिया में अमेरिकी हस्तक्षेप की संभावना समाप्त हो सके। अमेरिका के उतावलेपन से यूरोप के युद्ध का मैदान बन जाने से चीन और एशिया के अधिकांश देश ख़ुश हैं। वे इसे अगले कुछ वर्षों में यूरोप व अमेरिका के पराभव व “एशिया की सदीं” के रूप में देख रहे हैं। रुस भी भारत को अपने पाले में लेने की हरसंभव कोशिश में है तो अमेरिकन उप राष्ट्रीय सलाहकार की भारत यात्रा व टू प्लस टू वार्ता की पहल भारत पर डोरे डालने की बड़ी कसरत है। हर सप्ताह के दो-तीन दिन कोई न कोई विदेशी मेहमान भारत जरुर आ रहा है और भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल भी विदेश यात्राएं कर रहे हैं। रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव यदि नई दिल्ली आ रहे हैं तो अमेरिका ने अपने उप-सुरक्षा सलाहकार दलीपसिंह को भारत भेज दिया है। इस बीच बिम्सटेक की बैठक के लिए जयशंकर श्रीलंका पहुंचे हुए हैं। तो चीन “शंघाई सहयोग संगठन” व “ब्रिक्स” को बड़ी भूमिका में लाने के लिए सक्रिय हो गया है ताकि वह अमेरिका की जगह ले सके तो जवाब में अमेरिका “क्वाड” को मजबूत बनाने के लिए लगा है ताकि एशिया उसकी पकड़ से न निकल सके।इधर अमेरिकी गुट के देश भी भारत में निवेश के नए नए समझौते कर भारत को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे हैं। अमेरिका और रूस-चीन के बीच छिड़ गए इस “ मुद्रा युद्ध” या “शीत युद्ध” नित नए आयाम ले रहा है। दोनो ही पक्ष दुनिया के राष्ट्रों को अपने अपने पक्ष में करने के लिए हर संभव उपाय कर रहे हैं।एक प्रकार से भारत के लिए यह एक अच्छी स्थिति है। कोरोना महामारी के रूप में “ जैविक युद्ध” दुनिया के सामने आ ही चुका है, अब इसके नए आयाम लेने की संभावना है। साइबर वार, आर्थिक व राजनयिक प्रतिबंध, आर्थिक सहायता, अनुदान, निवेश, सस्ता माल देना, धमकी, हत्या, गृहयुद्ध, तख्तापलट आदि सैकड़ों उपाय अब बड़े पैमाने पर अपनाए जा रहे है व अपनाए जाएंगे जिससे दुनिया में अनिश्चितता व संघर्ष बढ़ना तय है। निश्चित ही यह दशक दुनिया पर भारी पड़ रहा है और आगे भी पड़ेगा। तरह तरह के संघर्ष और गुटबाजी सामने आएँगे। डॉलर-पाउंड-यूरो की दुनिया बिखरने से बचाने के लिए नाटो देश किसी भी हद तक जा सकते हैं।आईएमएफ़, विश्व बैंक और डब्ल्यूटीओ पर कब्जे या उसका स्वरूप बदलने की चीन- रूस की कोशिशें तीव्र होती जाएँगी अन्यथा वे इनके समानांतर नए संगठन भी खड़े कर सकते हैं। चीन , रूस व भारत के साथ ही जर्मनी ,फ्रांस तुर्की आदि यूरोपीय देशों को अगर साथ जोड़ पाता है तो कई यूरोपीय व अरब देश भी साथ आ सकते हैं क्योंकि कोई भी यूरोपीय देश यूरोप को युद्ध का मैदान नहीं बने रहना चाहेगा। किंतु अमेरिका वर्चस्व के सिकुड़ने की हर कड़ी दुनिया के देशों को बड़े झटके देकर जाएगी।वह दुनिया में कई युद्ध क्षेत्र खोल सभी देशों को उलझाने की कोशिश करेगा। रूस व चीन के गुट से जुड़े हुए देश इसीलिए आक्रामक हो चले हैं। फिलहाल तो लग रहा है कि दुनिया दो आर्थिक समूहों या गुटों में बंटने जा रही है और चीन व रूस इस खेल को डॉलर बनाम युआन- रूबल बनाना चाहते हैं तो भारत व अन्य विकासशील देश अपनी अपनी मुद्राओं में लेनदेन या डिजिटल करेंसी के उपयोग पर जोर दे रहे हैं। भारत के लिए यह बहुत ही उलझा हुआ व संवेदनशील मसला है। प्रधानमंत्री मोदी का क़द हाल के विधानसभा चुनावों के बाद देश और विदेश सब जगह बढ़ा है और वे इन समस्या व संघर्ष को समाप्त करने में प्रमुख भूमिका निभा सकते है किंतु वैश्विक अर्थव्यवस्था का स्वरूप बहुत वृहद व देशों में परस्पर निर्भरता बहुत अधिक है , ऐसे में किसी एक गुट के साथ खड़ा होना किसी भी देश के लिए बहुत मुश्किल होगा। फिलहाल गुटनिरपेक्षता भी कोई विकल्प बनकर नहीं उभर पा रही है। जीवाश्म ईंधन के अत्यधिक प्रयोग से अपेक्षाओं से अधिक तीव्र हो रहे “जलवायु परिवर्तन “ के दुष्प्रभाव भी इस लड़ाई को और घातक व विकट बना रहे हैं।इससे फसल चक्र बिगड़ रहा है और दुनिया खाद्य संकट के मुहाने पर खड़ी है। ऐसे समय जब पूरी दुनिया को एकजुट होकर अस्तित्व संकट की इस चुनौती का मिलकर सामना करना चाहिए था , बड़े राष्ट्र वर्चस्व व संसाधनों के संघर्ष व हथियारों की होड़ में लगे हुए हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि समांतर व नई विश्व व्यवस्था के वर्तमान संघर्ष के बीच मानवता व प्रकृति दोनों ही अपने अस्तित्व के अंतिम मोड़ पर खड़े दिख रहे हैं।
अनुज अग्रवाल
संपादक, डायलॉग इंडिया