क्षत्रिय-वृत्ति के प्रति, जो तत्परता युद्ध में एक सेनापति दिखाता है, वही तत्परता निर्णय लेते समय एक राजा में दिखलाई पड़े; तो समझिए राजधर्म का सम्यक निर्वहन हो रहा है।
वेदव्यास संन्यासी थे। वह जानते थे कि कृष्ण एक क्षत्रिय योद्धा हैं और युद्ध में हिंसा होती ही है। तिस पर भी वो यह कहना नहीं चूकते कि ” वासुदेव तुम धर्म के विषय में सब जानते हो। ” ऐसा इसलिए, क्योंकि कलुष निरसन के लिए क्षात्र-वृत्ति की आवश्यकता और प्रयोजनीयता ऋषिवर समझते थे।
जब कपिलवस्तु को कोशल सेना ने घेर लिया था, तब तथागत की आज्ञा पाकर कई भिक्षुओं ने, जो शाक्य थे, मातृभूमि रक्षार्थ युद्ध में भाग लिया था। किसी के प्रश्न का उत्तर देते हुए महात्मा बुद्ध ने कहा था “अनुचित का प्रतिकार न करना भी एक प्रकार की हिंसा होती है। जब बात मातृभूमि की आए, तब दायित्व और बढ़ जाता है। “
भारत में कई संत संन्यासी हथियार उठाते रहे हैं। क्योंकि उन्होंने क्षत्रिय वृत्ति को दायित्व समझा, एक महत्तर दायित्व।
योगी जी संन्यासी हैं। जन्मना क्षत्रिय, कर्मणा क्षत्रिय। सर्वथा सटीक लक्ष्य। कोई विचलन नहीं। कोई लिप्सा नहीं। ऐसा चरित्र शठों की चरण-वंदना करने वाले आत्महंता लोगों को सरलता से नहीं पच सकता।
क्षात्र धर्म ” क्षतात् काल त्रायते ” का उद्घोष है। यह केवल तलवार पकड़ कर युद्धभूमि में कूद पड़ने तक सीमित नहीं है, एक भयमुक्त समाज का निर्माण इसका प्रधान ध्येय होता है। युद्ध और हिंसा उसी “शांति स्थापना यज्ञ” में दी गई आहुतियां हैं।
क्या कारण है कि योगी जी के निर्णयों पर भारत भर प्रसन्नता से भर जाता है ? क्योंकि, न्याय के लिए की गई हिंसा कभी अपराध नहीं हो सकती, ऐसा हमारे अवचेतन में स्पष्ट है।
न्याय त्वरित न हो, तो वह अन्याय ही है। फिर संविधान का ढीलाढाला रवैया, कौन नहीं जानता ? ऐसे में एक दुर्दांत अपराधी के शरीर में, जब उत्तरप्रदेश पुलिस ने गोलियां उतारीं; सेठ साहूकार से लेकर सामान्य रेहड़ी चलाने वाले के हृदय में एक विश्वास पैदा हुआ। यही विश्वास योगी जी की असल पूंजी है।
न्यायालय, मानवाधिकार आयोग एवम् अन्यान्य संस्थाएं महत्वपूर्ण हैं, इसमें कोई दो मत नहीं। लेकिन कुछ गुंडे बस यूं ही मिट्टी में मिला दिए जाने चाहिए। न जेल का खर्चा, न कोर्ट के चक्कर और न ही दूसरे प्रकार के उत्पात पैदा होने की आशंका।
” करोड़ों निर्दोष लोगों पर लाख उपकार सिद्ध होता है ऐसे एक गुंडे का एनकाउंटर। “
बाबा तुलसी ने कहा – भय बिनु होई न प्रीति। शासन को ऐसे उदाहरण स्थापित करने चाहिए। ताकि गुंडों को लगे कि उनकी खैर नहीं और अन्य शासकों को भी लगे कि शासन का एक काम ऐसे कचरा लोगों की सफाई भी है।
रोने वाले हर बार रोते हैं। फिर वो प्रश्न नहीं कर सकते कि मार्ग चलती लड़की के आंचल पर हाथ डालने वाला पूर्ववर्ती शासन कैसा था ? एक मंत्री की भैंसें खोजता रहता पुलिस विभाग। यूपी को एक दो परिवारों ने अपनी बपौती समझ रखा था। ये ही गुंडे अलग-अलग पार्टियों को चंदा देते, वोट ले आते; इसलिए इनका रोना अकारण नहीं है।
फिर वामी मूर्खों को तो उस प्रत्येक जगह छाती पीटनी होती है, जहां-जहां मुसलमान मरें। चाहे लूटे, चाहे हत्याएं करे, मुसलमान कृपा का पात्र है। कथित फासीवाद के विरुद्ध यह गैंग नग्न होकर चौराहे पर लेटे, तब भी मुझे आश्चर्य नहीं होगा।
सभी कलमें, जो नेहरू और गांधी के पक्ष में चलीं; निरपेक्ष सच लिखने वाली हो जाती हैं। क्योंकि; नेहरू नाम सत है, गांधी सुमिरे गत है। वह चाटुकारिता नहीं होती, वह सत्ता के पक्ष में लेखक अथवा कवि का बयान नहीं होता। वही असल समाजवाद है, वही लोकतंत्र है।
ये लोकतंत्र की मौत पर हर दूसरे दिन रोने वाले भूल जाते हैं कि योगी जी हो, चाहे मोदी जी … प्रचंड जनादेश के साथ सिंहासन पर बैठे हैं।
” कुत्तों को घी, दुष्टों को मान और भांडों को भगवा नहीं पचता। “
एक ओर राम जी का मंदिर बन रहा, दूजी ओर योगी जी भयमुक्त समाज का निर्माण कर रहे – मेरे सपनों का भारत यही है।
अस्तु।
प्रवीण मकवाणा