अफगानिस्तान से अमेरिका की फौजें 11 सितंबर 2021 को वापस होंगी। अमेरिका के कुल 3500 और नाटो के 8500 सैनिक अपने-अपने देश में चले जाएंगे। तब क्या होगा ? अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार का मानना है कि उसके 3 लाख फौजी जवान काफी हैं। वे शांति और व्यवस्था बनाए रखने में समर्थ हैं। अभी जो भी विदेशी सैनिक वहाँ हैं, वे सिर्फ वहां हैं। तालिबान से लड़ने का असली काम तो अफगान सैनिक ही कर रहे हैं।
यदि यह सच है तो पहला सवाल यही है कि अफगानिस्तान के ज्यादातर हिस्सों पर तालिबान का कब्जा कैसे जारी है ? एक अनुमान के अनुसार बड़े अफगान शहरों के अलावा सर्वत्र तालिबान ने अपना प्रशासन कायम किया हुआ है। उनकी सरकार, टैक्स उगाही और शरीयत अदालतें वहां सक्रिय हैं। दूसरा, दोहा में तालिबान से समझौता हो जाने के बावजूद अफगान सेना उनके हमलों को रोकने में असमर्थ क्यों रही हैं ? तीसरा, यदि गनी-अब्दुल्ला सरकार काबुल में मजबूत है तो विदेशी फौजों की जो वापसी 1 मई को होनी थी, उसे अगले चार माह तक क्यों टाल दिया गया है? चौथा, यदि सब ठीक-ठाक है तो अमेरिकी विदेश मंत्री अचानक काबुल क्यों पहुंचे थे, डाॅ. अब्दुल्ला दिल्ली क्यों आए थे और अफगान पार्टियां अब तुर्की में क्यों मिलनेवाली हैं ?
इसीलिए कि सभी घबराए हुए हैं कि अमेरिकी वापसी के बाद पता नहीं क्या होगा ? क्या वैसा ही तो नहीं होगा, जैसा सोवियत-वापसी के बाद नजीबुल्लाह सरकार का हुआ था? नजीबुल्लाह की खल्की-परचमी सरकार गिर गई, मुजाहिदीन का राज कायम हो गया और नजीबुल्लाह को फांसी पर लटका दिया गया। लगभग अगले 8-9 साल तक मुजाहिदीन और तालिबान काबुल में डटे रहे लेकिन अफगानिस्तान अराजकता और इस्लामी कट्टरवाद की रस्सी पर लटका रहा। 2001 में अमेरिकी फौजों के आगमन पर हामिद करजई की लोकतांत्रिक सरकार बनी लेकिन पहले करजई और अब गनी-सरकार को तालिबान क्रमशः रुस और अमेरिका की कठपुतली सरकारें कहते रहे हैं।
तालिबान को पूरा विश्वास है कि अफगानिस्तान की फौज रातों-रात पल्टा खाएगी और वह उनका समर्थन करेगी। तालिबान मूलतः गिलजई पठानों का संगठन है। फौज में पठानों की बहुसंख्या है। इसके अलावा तालिबान सरकार को पाकिस्तान का खुला समर्थन मिलेगा। इधर रुस और चीन के साथ भी उसके संबंधों में सुधार हुआ है। उसके जानी दुश्मन अमेरिका के साथ उसकी गलबहियों को सारी दुनिया देख रही है। ज्यों ही अमेरिकी फौजों की वापसी हुई, काबुल पर तालिबान का कब्जा होने में देर नहीं लगेगी।
ऐसे में भारत का क्या होगा, मेरी सबसे बड़ी चिंता यही है ? 56 साल पहले मैंने अफगानिस्तान पर शोध-कार्य शुरु किया था। उसका चप्पा-चप्पा मैंने देखा है। उसके पठान, ताजिक, उजबेक, हजारा, हिंदू-सिख और मू-ए-सुर्ख लोगों से मेरा रोजमर्रा का संबंध रहा है। उसके बादशाह जाहिरशाह तथा अब तक के सभी राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से मेरा घनिष्ट संबंध रहा है। मैंने अफगान लोगों में भारत के प्रति उत्कट प्रेम और विलक्षण सम्मान ही पाया है।
भारत ने अफगानिस्तान के नव-निर्माण में जो निस्वार्थ योगदान किया है, वह किसी अन्य राष्ट्र ने नहीं किया है। भारत ने अफगान संसद भवन बनाया, अस्पताल, स्कूल, सड़कें, बांध, संचार-प्रणालियां, सैन्य-प्रशिक्षण आदि कई कार्य सफलतापूर्वक संपन्न किए। उसने जरंज-दिलाराम सड़क बनाई, जिसकी वजह से जमीन से घिरे अफगानिस्तान की पाकिस्तान पर निर्भरता खत्म हुई। अब फारस की खाड़ी के जरिए सारी दुनिया से उसका लेन-देन हो सकता है। भारत ने अफगान नव-निर्माण में लगभग तीन बिलियन डाॅलर खर्च किए हैं।
लेकिन अफसोस है कि अफगान-संकट के समाधान में भारत की भूमिका लगभग नगण्य है जबकि अफगानिस्तान में पनपाया गया आतंकवाद भारत को सदा त्रस्त करता रहता है। भारत की लगभग सभी सरकारें मुजाहिदीन और तालिबान से दूरी बनाकर रखती रही हैं। लेकिन इन नेताओं से मेरी मुलाकातें काबुल, कंधार, पेशावर, तेहरान, लंदन और न्यूयार्क में बराबर होती रही हैं। 1999 में हमारे अपहृत जहाज को कंधार से छुड़ाने में तालिबान नेताओं से मैंने सीधा संपर्क किया था और उसमें हमें सफलता भी मिली। तालिबान नेता पाकिस्तान के समर्थक हैं लेकिन वे भारत के विरोधी नहीं हैं। पाकिस्तान का समर्थन उनकी मजबूरी है। वे भारत से भी अच्छे संबंध बनाना चाहते हैं। इसका ताजा प्रमाण यही है कि उन्होंने धारा 370 के सवाल पर कश्मीर के मामले में तटस्थता दिखाई है।
तालिबान अफगानिस्तान में इस्लामी राज्य कायम करना चाहते हैं लेकिन उन्हें अपने आर्यवंशीय होने पर भी गर्व है। वे पाकिस्तान के आभारी हैं लेकिन पख्तूनिस्तान की आजादी और पंजाबी वर्चस्व पर उनका गुस्सा हमेशा उन्हें भड़काए रखता है। अपना राज कायम करने के बाद वे पाकिस्तान के लिए सबसे बड़े सिरदर्द भी बन सकते हैं। जिन पठानों ने तीन बार अंग्रेजों और एक-एक बार रुसियों और अमेरिकियों को पटकनी मार दी, वे भला पंजाबी फौज के गुलाम बनकर कैसे रह सकते हैं? अब तो रुस, चीन और अमेरिका भी तालिबान से संवाद कर रहे हैं। पता नहीं क्यों, भारत डरा हुआ है ? भारत को चाहिए कि तालिबान के सभी प्रतिद्वंदी गिरोहों से वह संवाद बनाकर रखे। इसका अर्थ यह नहीं कि वह काबुल की गनी-अब्दुल्ला सरकार को रामभरोसे छोड़ दे। भारत चाहे तो वह पाकिस्तान का सहयोग भी ले सकता है, इस संकट को हल करने में ! लेकिन असली सवाल यही है कि क्या हमारे नेता और विदेश मंत्रालय के अफसर अफगानिस्तान की अंदरुनी सच्चाइयों से परिचित भी हैं या नहीं ? और क्या संपूर्ण दक्षिण एशिया के नेतृत्व की क्षमता भी उनमें है या नहीं ?
*(लेखक, अफगान मामलों के विख्यात विशेषज्ञ हैं)*
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक