शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न विचारों पर मंथन और तकनीकी शिक्षा में अभिनवता पर प्रोजेक्ट्स का प्रदर्शन
डायलॉग इंडिया पत्रिका द्वारा तीसरे डायलॉग इंडिया कॉन्क्लेव का आयोजन 24 जून 2017 को आईआईटी दिल्ली के सहयोग आईआईटी दिल्ली में किया गया। इस आयोजन में एआईसीटीई भी सहयोगी थी। कार्यक्रम में उच्च शिक्षा में तकनीकी अभिनवता को बढ़ावा देने के लिए एक प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया था, जिसमे देश भर से आए कई शैक्षणिक संस्थानों ने अपनी तकनीकी अभिनवता को प्रदर्शित किया। इन संस्थानों ने तकनीकी रूप से अपने मौलिक और नए विचारों को मॉडल के रूप प्रदर्शित किया। इस प्रदर्शनी में भाग लेने वाले संसथान थे आईआईटी दिल्ली , रिवेरा मोबाइल, एरा लखनऊ मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल, लखनऊ, एससीएमएस स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलोजी, कृष्णा इंजीनियरिंग कॉलेज, आरसी पटेल इंस्टीट्युट ऑफ टेक्नोलोजी, केसीजी कॉलेज ऑफ टेक्नोलोजी, द्रोणाचार्य कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, जीएलए यूनिवर्सिटी मथुरा, मेहर चंद पोलिटेक्निक, ईस्टैंडइन। इन सभी संस्थानों की तरफ से आए प्रतिनिधियों ने अपनी तकनीकी दक्षता और अभिनवता को प्रदर्शित किया। जिनमें प्रदर्शनी में श्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले संस्थानों को पुरस्कार दिए गए। दो तृतीय पुरस्कार केसीजी कॉलेज ऑफ टेक्नोलॉजी, एससीएमसी स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग, को और एक द्वितीय पुरस्कार एरा लखनऊ मेडिकल कॉलेज को मिला। इस कार्यक्रम में आईआईटी दिल्ली के पास हुए विद्यार्थियों द्वारा भी अपने विभिन्न प्रोजेक्ट्स की प्रदर्शनी लगाई हुई थी। करीब बीस विद्यार्थियों ने अपने प्रोजेक्ट्स प्रदर्शित किए थे।
कल दिन भर चले इस आयोजन में भारत भर से आए विद्वानों एवं शिक्षाविदों ने विभिन्न विषयों पर अपने विचार व्यक्त किये। कार्यक्रम में उद्घाटन सत्र में सांसद रमेश विधूड़ी मुख्य अतिथि थे। उन्होंने शिक्षा और डिग्री के बीच की दूरी बताते हुए मूल्य आधारित शिक्षा पर जोर दिया। उन्होंने आत्मविकास परक शिक्षा पर जोर दिया। साथ ही उन्होंने मोदी सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में उठाए जा रहे विभिन्न कदमों के बारे में बताया। प्रथम सत्र में अर्चना दत्ता, पूर्व महानिदेशक दूरदर्शन, डॉ. कमल तावरी, पूर्व सचिव, सरकार भारत, प्रो. एसके अत्रे, आईआईटी दिल्ली, प्रो. वी.के. गोस्वामी, एक्स वीसी सनराइज यूनिवर्सिटी, संगम युनिवर्सिटी, वर्तमान में वीपी एशियाई अकादमी ऑफ फिल्म एंड टेलीविजऩ, श्री पवन सिन्हा, आध्यात्मिक गुरु ने भारत में उच्च शिक्षा में सुधार की आवश्यकता अर्थात द नीड ऑफ वेकअप इंडिया फॉर रिफोर्म एंड ट्रांस्फोर्मेशन इन हाईअर एजुकेशन, वेक अप इंडिया: इनोवेट, मैनुफैञ्चचर, ग्लोबलाइज, विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किए तथा शिक्षा में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया। शिक्षा के वर्तमान स्वरुप में बदलाव के साथ साथ शिक्षा पर प्राथमिक स्तर से सुधार करने पर जोर दिया गया।
इससे पूर्व डायलॉग इंडिया पत्रिका के समूह संपादक अनुज अग्रवाल ने इस कानक्लेव की आवश्यकता को बताते हुए कहा कि वे निजी क्षेत्र में शिक्षा के स्वरुप से बहुत ही व्यथित हुए थे, और शिक्षा के नाम पर होने वाले घोटाले उनके मन को मथते रहते थे, कहीं न कहीं संवाद हीनता की कमी खलती थी।
सरकारी संस्थानों और निजी संस्थानों के बीच में संवाद हीनता उन्हें परेशान करती थी और यही कारण है कि वे कानक्लेव के इस स्वरुप के साथ आए। और इस वर्ष उन्हें आईआईटी और एआईसीटीई का भी सहयोग मिला और कानक्लेव का यह स्वरुप सामने आया। जिसमें तीन विभिन्न पहलू हैं, पहला शिक्षा के क्षेत्र में ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा, दूसरा है विद्यार्थियों द्वारा नए प्रोजेक्ट और तीसरा तकनीकी और अभिनवता पर पेपर प्रेजेंटेशन।
दूसरा सत्र गुणवत्ता परक शिक्षा और इनोवेशन में निजी संस्थान प्रमोटर/स्वामियों की भूमिका पर था जिसमें कमांडर वीके जेटली, प्रख्यात पत्रकार श्री वेद प्रताप वैदिक, मेजर जनरल दिलावर सिंह, प्रोफेसर नवीन रामपाल, तथा आईआईटी रुड़की से प्रो. सोनल अत्रे एवं श्रीमती शीला तावरी वक्ता थे। इस सत्र में निजी शिक्षा संचालकों की भूमिका पर विस्तार से चर्चा हुई। और उनके सामने आने वाली चुनौतियों के समाधान पर कई महत्वपूर्ण विचार आए। श्री वैदिक जी के अनुसार शिक्षा में परिवर्तन का समय है और शिक्षा के लिए क्रान्ति का समय आ गया है। शिक्षा के क्षेत्र में आन्दोलन छेडऩे का समय आ गया है।
तीसरे सत्र में भारतीय मूल्य प्रणाली, उसकी प्रासंगिकता और उच्च शिक्षा में परिवर्तन के आवश्यकता पर चर्चा हुई और इस चर्चा में भारतीय मूल्यों को शिक्षा में पुनर्स्थापित करने की आवाश्यकता पर जोर दिया गया। इस सत्र में कमांडर वी के जेटली, प्रो. एस के अत्रे, डॉ. सुधीर सिंह, डॉ. वाल्मीकि प्रसाद, डॉ. एनके जैन, एवं प्रो. सीमा शर्मा ने उच्च शिक्षा पर भारतीय मूल्यों पर चर्चा की। और इस बात पर आम सहमति बनी कि भारतीय मूल्यों की पुनर्स्थापना हुए बिना भारत में शिक्षा में सुधार नहीं हो सकता है। अंतिम सत्र में केंद्रीय राज्य महिला बाल विकास मंत्री श्रीमती कृष्णा राज मुख्य अतिथि थी। उन्होंने भी भारतीय मूल्यों की पुनर्स्थापना पर जोर दिया। उन्होंने डायलॉग इंडिया के ग्रुप एडिटर श्री अनुज अग्रवाल को बधाई देते हुए पत्रिका द्वारा निजी संस्थानों की रैंकिंग किए जाने पर भी बधाई दी। श्रीमती कृष्णा राज ने कहा कि इस तरह के कार्यक्रम आगे भी जारी रहने चाहिए।
कार्यक्रम में सभी अतिथियों का स्वागत पत्रिका के ग्रुप एडिटर अनुज अग्रवाल एवं मैनेजिंग एडिटर डॉ. सारिका अग्रवाल द्वारा किया गया।
कानक्लेव का एक हिस्सा तकनीक और इनोवेशन में पेपर प्रेजेंटेशन का भी रहा। इनमें तकनीकी और अभिनवता पर पूरे देश भर से आए विभिन्न संस्थानों से 30 से अधिक पेपर प्रस्तुत किए गए। इस पेपर प्रेजेंटेशन में संदीप फाउंडेशन सिजौल और बिरला इंस्टीट्युट ऑफ टेक्नोलोजी मेरेसा, वाईएमसीए टेक्नीकल यूनिवर्सिटी फरीदाबाद, अन्नामलाई यूनिवर्सिटी चेन्नई सहित कई अन्य संस्थानों ने भी भाग लिया और अपने पेपर के माध्यम से नए और मौलिक विचारों को प्रस्तुत किया।
कार्यक्रम में विभिन्न देशों के राजदूत भी शामिल हुए। विजयी प्रतियोगियों को फिलिस्तीन और स्लोवेनिया के राजदूत श्री फेक एच. एच. हमजा और बोरिस जलोस्विक द्वारा पुरस्कार के चेक को वितरित किया गया।
कार्यक्रम में कत्थक नृत्यांगना अनु सिन्हा के समूह द्वारा जय शंकर प्रसाद द्वारा रचित कालजयी कृति कामायनी पर एक नृत्यनाटिका की मंत्रमुग्ध कर देने वाली प्रस्तुति दी गई। कार्यक्रम में दिन भर चले मंथन से उतपन्न विचारों को सरकार को सौंपने पर भी एक सत्र था। सत्र के अंत पत्रिका की प्रबंध निदेशक डॉ. सारिका अग्रवाल एवं पत्रिका के समूह सम्पादक अनुज अग्रवाल ने सभी अतिथियों का आभार व्यक्त किया और इस तरह के संवाद को आगे जारी रखने पर भी प्रतिबद्धता व्यक्त की।
डायलॉग इंडिया एकेडमिया कॉनक्लेव का निष्कर्ष
उच्च शिक्षा में अभिनवता और भारतीय मूल्यों की पुनर्स्थापना
से ही बनेगा भारत एक बार पुन विश्वगुरु
डायलॉग इंडिया पत्रिका द्वारा तीसरे डायलॉग इंडिया कॉन्क्लेव का आयोजन 24 जून 2017 को आईआईटी दिल्ली के सहयोग आईआईटी दिल्ली में किया गया। इस आयोजन में एआईसीटीई भी सहयोगी थी। कार्यक्रम में उच्च शिक्षा में तकनीकी अभिनवता को बढ़ावा देने के लिए एक प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया था, जिसमे देश भर से आए कई शैक्षणिक संस्थानों ने अपनी तकनीकी अभिनवता को प्रदर्शित किया। कानक्लेव का एक हिस्सा तकनीक और इनोवेशन में पेपर प्रेजेंटेशन का भी रहा। इनमें तकनीकी और अभिनवता पर पूरे देश भर से आए विभिन्न संस्थानों से 30 से अधिक पेपर प्रस्तुत किए गए। इस पेपर प्रेजेंटेशन में संदीप फाउंडेशन सिजौल और बिरला इंस्टीट्युट ऑफ टेक्नोलोजी मेरेसा, वाईएमसीए टेक्नीकल यूनिवर्सिटी फरीदाबाद, अन्नामलाई यूनिवर्सिटी चेन्नई सहित कई अन्य संस्थानों ने भी भाग लिया और अपने पेपर के माध्यम से नए और मौलिक विचारों को प्रस्तुत किया।
श्री रमेश विधूड़ी, सांसद (मुख्य अतिथि उद्घाटन सत्र)
शिक्षा का क्षेत्र निरंतर ही नवाचारों का क्षेत्र है। शिक्षा और रोजगार का प्रत्यक्ष संबंध है। शिक्षा हमेशा ही मूल्यों की संवाहक रही है। भारत में प्राचीन काल से ही मूल्य आधारित शिक्षा प्रदान की जाती रही है। अब तक जैसे ही शिक्षा की बात होती है वैसे ही शिक्षा को डिग्री से जोड़ दिया जाता है। देश के सर्वांगीण विकास के लिए मूल्य परक शिक्षा का होना अनिवार्य है। ऐसी शिक्षा जो सार्थक हो, जो व्यक्तित्व के विकास के लिए हो, ऐसी शिक्षा जो राष्ट्र निर्माण में सहायक को। भारत में प्राचीन काल में वर्णाश्रम की व्यवस्था थी जिसमें जीवन के आरंभिक 25 वर्ष शिक्षा के लिए निर्धारित किए गए थे। इस अवधि में व्यक्ति की अभिरुचि के आधार पर उसे शिक्षा प्रदान की जाती थी, फिर चाहे वह युद्ध कौशल हो या फिर नीति की शिक्षा। समय के साथ, तमाम तरह के आक्रमणों के बाद भारत की शिक्षा पद्धति में परिवर्तन आया। जहां आज तक हम नालंदा पर गर्व करते हैं, वहीं आज ठहर कर अपनी वर्तमान शिक्षा के विषय में चिंता से भर जाते हैं। बार बार हमारे सामने यही प्रश्न आता है कि क्या शिक्षा हमारे नौनिहालों को वे मूल्य प्रदान कर रही है जो देश के विकास और उन्नति के लिए आवश्यक हैं? और शिक्षा का स्वरुप क्या होना चाहिए? शिक्षा के स्वरुप पर बात करते हुए पिछली कई रिपोर्ट भी संज्ञान में रखनी चाहिए, जिनमें भारतीय शिक्षा को स्तर से कम बताया जाता है। आज भी हमारे शिक्षण संसथान सर्वश्रेष्ठ दस में आने से कोसों दूर है। भारत में शिक्षा पर निवेश है, तकनीकी क्षेत्र में हमारा हस्तक्षेप है, हमारा अन्तरिक्ष संस्थान अपने आप में पूर्ण है, हमारे इंजीनियर और डॉ. पूरे विश्व में अपनी योग्यता का लोहा मनवाते हैं, फिर भी प्रश्न तो उठता ही है कि आखिर हम शिक्षा के क्षेत्र में इतने क्यों पिछड़े हैं कि हमारे बच्चे ही बाहर जाने के लिए मचलते हैं, जबकि विदेशी छात्र भारत आने से हिचकते हैं। आखिर ऐसे क्या कारण रहे जिनसे भारतीय मेधा का इतना हनन हुआ?
स्वतंत्रता के उपरान्त हालांकि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारत ने कई कदम उठाए हैं और भारतीय प्रतिभा ने हर मौके पर खुद को साबित भी किया है। अब सवाल इस बात का आता है कि जब भारतीय प्रतिभा और मेधा इतनी अद्भुत है तो कमी कहाँ रही? क्या सरकार के प्रयासों में या जनमानस के प्रयासों में या नीति ही गलत रही।
निजी क्षेत्र और सरकारी क्षेत्रों में शिक्षा के स्तर में सुधार किए जाने चाहिए। प्रवेश परीक्षा में सुधार होना चाहिए, और प्रवेश प्रक्रिया को सुगम करना चाहिए। पिछले दो तीन वर्षों में जबसे सरकार और न्यायालय के साथ ही नियामक संस्थाओं द्वारा सख्ती का चाबुक चलाया गया है। सैकडों निजी उच्च शिक्षा के संस्थानों में प्रवेश या तो एकदम कम हो गए हैं या फिर खत्म हो गए हैं। सरकार ने कई कदम उठाए हैं जैसे आधार कार्ड की अनिवार्यता, स्टाफ और छात्रों की बायोमेट्रिक अटेंडेन्स, पेन कार्ड, सख्ती, मानकों और मापदंडों के आधार पर संस्थानो में प्रवेश के प्रावधान, सिंगल एंट्रेंस, केपिटेशन फीस लेने पर सख्ती, ऑन लाईन मॉनिटरिंग, आईटी के प्रयोग ने शिक्षा जगत में सुधार प्रक्रिया को सुगम बनाया है।
सरकार पारदर्शिता लाने के लिए निरंतर ही प्रयासरत है। यह नीट के उदाहरण से समझा जा सकता है। मेडिकल में प्रवेश प्रक्रिया को सरल किया गया है, एकीकृत किया गया है।
सरकार हर स्तर पर डिजिटलीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से पारदर्शिता लाने की कोशिश कर रही है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का सपना डिजिटल इंडिया का है और यह उनके द्वारा उठाए गए कदमों से बार बार परिलक्षित हो रहा है। यह समय तकनीकी और इनोवेशन का है। हमें अपनी कल्पना को तकनीक के साथ जोड़कर नए नए अविष्कार करने होंगे। भारत भूमि पर ज्ञान और तकनीक की वही ऊर्जा उत्पन्न करनी होगी जैसी प्राचीन काल में प्रवाहित होती थी। प्रधानमंत्री मोदी इस देश के युवाओं की ऊर्जा को तकनीक और इनोवेशन के साथ जोड़कर देश को विकास के पथ पर ले जाना चाहते हैं। वे जन भागीदारी के माध्यम से हर समस्या का हल चाहते हैं और युवाओं को तकनीक के माध्यम से जोड़कर विभिन्न समाधान चाहते हैं, और ऐसा वे कई विभागों और संस्थानों के साथ कर चुके हैं। पिछले दिनों दुनिया के सबसे बड़े हैकाथन में भाग लेते हुए उन्होंने समस्याओं को चुनौती के रूप में लेने के लिए और नई तकनीक द्वारा हल खोजने के लिए कहा था।
इसी के साथ स्टार्ट अप, डिजिटल इंडिया, प्रधानमंत्री विकास योजना आदि कई योजनाएं हैं जिनके माध्यम से सरकार आगे कदम बढ़ा रही है।
आज इस आयोजन में आकर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हो रही है क्योंकि इसी तरह के आयोजनों से हमें आगे की राह मिलती हैं। आज कई विद्वजन अपने अपने विचार रखेंगे और सरकार के लिए एक आगे के लिए एक रोडमैप बनेगा। मैं आयोजकों का आभार व्यक्त करता हूँ जो उन्होंने मुझे बुलाया और सरकार के अच्छे कार्यों को मैं आपके सामने रख सका।
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इससे पूर्व डायलॉग इंडिया के समूह सम्पादक अनुज अग्रवाल ने कानक्लेव की आवश्यकता और इसके वर्तमान स्वरुप पर प्रकाश डालते हुए कहा कि जब हम उच्च शिक्षा की बात करते हैं तो कई ऐसी बातें हमारे सम्मुख आती हैं जो कल्पना से परे हैं। हम उन तथ्यों के विषय में सोचते ही नहीं हैं। दरअसल जब उच्च शिक्षा की बात आती है तब तो अभिभावक एकदम से ही सरकारी शिक्षा की तरफ चले जाते हैं और जब तक कक्षा बारह तक बात होती है तब तक वे मोटी फीस देने वाले निजी स्कूलों में ही रहते हैं। शिक्षा में व्याप्त असमानता को लेकर उनके मन में कई सवाल थे और इन्हीं सवालों का जबाव खोजने के लिए वे इस कानक्लेव का आयोजन कर रहे हैं। उनके अनुसार जब उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में सर्वे करने का फैसला किया तो उन्होंने प्राथमिक शिक्षा की तरफ भी देखा। उन्होंने देखा कि आज सरकारी विद्यालयों में नामांकन तो बढ़ रहे हैं, परन्तु विद्यार्थी नहीं हैं। सरकारी योजनाएं और सुविधाएं तो नामांकित विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं परन्तु विद्यार्थी नहीं हैं। उत्तर प्रदेश का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि जो बच्चे कागजों पर सरकारी विद्यालयों के छात्र हैं वे शिक्षा निजी संस्थानों से ले रहे हैं, बस विभिन्न योजनाओं का लाभ लेने के लिए उनका नाम सरकारी योजनाओं में दर्ज है। यह गोरखधंधा बंद होना चाहिए, क्योंकि हर तरह के लाभ अंतत: एक झूठ की बुनियाद पर ही दिए जा रहे हैं और ये लाभ कहाँ जा रहे हैं? तो शिक्षा में तो हमारे यहाँ आधार में ही कमी है। और उसके बाद यदि हम उच्च शिक्षा की बात करें तो पाएंगे कि न केवल निजी संस्थान बल्कि सरकारी संस्थानों से भी उत्तीर्ण होकर निकलने वाले बच्चे कई बार अपनी डिग्री के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। केवल कुछ प्रश्न रट कर पास होने की लालसा में वे अपने पाठ्यक्रम में जो है याद नहीं करते हैं। शिक्षा को केवल डिग्री से जोड़ दिया और डिग्री का महत्व केवल किसी सरकारी नौकरी तक हो गया। इस वर्ष कानक्लेव का स्वरुप थोडा भिन्न है। क्योंकि इस शिक्षा में मौलिकता लाने के हमारे प्रयास में आईआईटी से प्रो. एस के अत्रे का अभूतपूर्व सहयोग मिला। उन्होंने इस वैचारिक प्रक्रिया को तकनीकी शोध और अनुसंधान से जोड़ा। क्योंकि यह तथ्य आज भी शीशे की तरह साफ है कि आज भी हम तकनीकी शोध में केवल पश्चिम की नकल कर रहे हैं। हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है मेक इन इंडिया से मेड इन इंडिया तक के सफर की। और दूसरी जो सबसे बड़ी समस्या है वह है हमारा अपने मूल्यों से कट जाना। जो व्यक्ति जितना शिक्षित होता जाता है वह कहीं न कहीं अपने मूल्यों से कट जाता है। हम सब केवल शरीर से भारतीय रह गए हैं, हमारे पास हमारी संस्कृति नहीं बची है। क्या जिन भारतीय मूल्यों की हम बात करते हैं वे आज भी प्रासंगिक हैं? क्या वे मूल्य उच्च शिक्षा में कुछ योगदान कर सकते हैं? या यदि नहीं तो क्या उन अप्रासंगिक मूल्यों को परे करने का समय आ गया है? और यदि ये प्रासंगिक हैं तो उच्च शिक्षा में किस तरह से इनका प्रयोग किया जा सकता है, इन्हीं सब पर आज विचार करने की आवश्यकता है।
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श्रीमती कृष्णा राज, केन्द्रीय राज्य महिला विकास मंत्री, भारत सरकार ने पत्रिका के समूह सम्पादक अनुज अग्रवाल को बधाई देते हुए कहा कि आज इस तरह के आयोजनों की बहुत ही आवश्यकता है। ऐसे आयोजन समय समय पर कराते रहने चाहिए, क्योंकि शिक्षा ही है जो व्यक्ति का विस्तार कर सकती है। यह शिक्षा ही है जो व्यक्ति का विकास करती है। यह शिक्षा ही है जो व्यक्ति को हर क्षेत्र में निरंतर आगे बढऩे के लिए प्रेरित करती है। मगर शिक्षा केवल डिग्री नहीं है, शिक्षा में पतन तभी से शुरू हुआ जब से हमने डिग्री के साथ इसे जोड़ दिया और जब से निजी संचालकों ने इसे पैसे से जोड़ दिया और पैसे लेकर डिग्री बेचने लगे तब से तो शिक्षा का एकदम ही बंटाधार हो गया। ऐसे में डायलॉग इंडिया द्वारा निजी विश्वविद्यालयों की रैंकिंग एक बहुत बड़ा मुद्दा है और अनुज द्वाराउठाया जा रहा यह कदम बहुत ही सराहनीय है क्योंकि उसमें से अभिभावक अपने बच्चों के लिए पसंद कर सकते हैं कि उनके बच्चे के लिए कौन सा शिक्षण संस्थान अच्छा है और कौन सा बुरा? कौन सा संस्थान उच्च स्थान पर है और किस में क्या विशेषताएं हैं। अभिभावकों के हाथ में यह एक मार्गदर्शक की तरह है। मैं अनुज से एक बार फिर कहना चाहूंगी कि इस डायलॉग को आगे भी बनाए रखें
समस्याएँ और उनके समाधान
तकनीकी सत्रों के आरम्भ से पूर्व सभी सत्रों की भूमिका पर प्रकाश डाला गया। निजी क्षेत्र में उच्च शिक्षा के सामने आने वाली चुनौतियों और उसके काले पक्ष पर बात की गयी और इनके समाधान के लिए एक रूपरेखा तैयार की गयी।
प्रथम सत्र: उच्च शिक्षा में सुधार और परिवर्तन के लिए भारत को जागरूक करने की आवश्यकता के बारे में जागरूकता सत्र: इनोवेट, मैन्युफैञ्चचरिंग, वैश्वीकरण
भारत में तकनीकी शिक्षा के लिए एक पूर्णतया परिवर्तन की आवश्यकता है। वैश्वीकरण के समय में उभरते हुए 6000 नए इंजीनियरिंग कॉलेजों की लहर और प्रधान मंत्री के मेक इन इंडिया मिशन की शुरुआत में इसे इसी दिशा में उन्मुख होना है। एआईसीटीई पाठ्यक्रम दशकों पुराने है, और अब उन्हें बदलने की आवश्यकता है। नई आईपीआर नीति के साथ, किसी विनिर्माण गतिविधि को बनाए रखने के लिए पेटेंटिंग अनिवार्य हो गई है। वैश्वीकरण के लिए छात्रवृत्ति में उद्यमिता की आवश्यकता है। इन कारणों के लिए रचनात्मकता, नवाचार, उद्यमिता और व्यावहारिक अनुसंधान भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली के आधार बनने हैं।
ब्रिटेन, अमरीका और सभी उन्नत देशों ने स्कूल स्तर से ही विज्ञान, गणित, कंप्यूटर, डिजाइन और प्रौद्योगिकी की दिशा में अपने पाठ्यक्रमों को उन्मुख किया है। उनके बच्चे स्नातक स्तर पर प्रौद्योगिकी की किसी भी शाखा का विकल्प चुन सकते हैं, स्कूल के विषयों में कटौती कर सकते हैं। अगर भारत को अपनी अर्थव्यवस्था में वृद्धि करनी है तो अब यह इन उपायों को अनदेखाा नहीं कर सकता है। आज एक और चुनौती है कि हमें समाज के उत्थान के लिए अपने ज्ञान का उपयोग करना है। छात्रों को सामाजिक चुनौतियों पर ध्यान देने और उनके लिए जवाब खोजने के लिए संवेदनशील होना चाहिए। शायद उद्योग और अकादमिक को समाज के लिए, भारतीय समाज के लिए और ग्लोबल सोसाइटी के लिए काम करने के लिए मिलकर शामिल होना चाहिए।
उद्योग- अकादमी संबंध: स्वचालन और रोजगार की संभावना
शिक्षा क्षेत्र में कॉर्पोरेट और बड़े औद्योगिक घरों की सक्रिय भागीदारी और अनुसंधान और नवाचारों के लिए उनके उत्साही समर्थन को समय पर हस्तक्षेप के रूप में देखा जा रहा है। जैसे जैसे उनका समर्थन बढ़ता है, उत्पादन अधिक उत्पादक होगा। हाल ही में निजी संस्थानों द्वारा अनुसंधान और नवाचारों के लिए सरकारी और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों से परियोजनाओं की तलाश करने को भी एक बड़ा बढ़ावा माना जा रहा है। यह उद्योग-शिक्षा अंतरफलक अंतरों को भर रहा है और अब उद्योग के लिए उनकी आवश्यकता के अनुसार छात्रों और संस्था को प्रशिक्षित और विकसित करना आसान है। उद्योग और कॉर्पोरेट क्षेत्र ऑटोमेशन मोड में हैं और नौकरी के अवसर कम हो रहे हैं। हम तकनीकी विकास और नौकरी के अवसर की उपलब्धता के बीच संतुलन कैसे बना सकते हैं?
प्रथम सत्र में अर्चना दत्ता, पूर्व महानिदेशक दूरदर्शन, डॉ. कमल तावरी, पूर्व सचिव, सरकार भारत, प्रो. एसके अत्रे, आईआईटी दिल्ली, प्रो. वी.के. गोस्वामी, एक्स वीसी सनराइज यूनिवर्सिटी, संगम युनिवर्सिटी, वर्तमान में वीपी एशियाई अकादमी ऑफ फिल्म एंड टेलीविजऩ, श्री पवन सिन्हा, आध्यात्मिक गुरु ने उच्च शिक्षा में सुधार और परिवर्तन के लिए भारत को जागरूक करने की आवश्यकता के बारे में जागरूकता सत्र: इनोवेट, मैन्युफैञ्चचरिंग, वैश्वीकरण विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किए तथा शिक्षा में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया। शिक्षा के वर्तमान स्वरुप में बदलाव के साथ साथ शिक्षा पर प्राथमिक स्तर से सुधार करने पर जोर दिया गया।
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सत्र का संचालन करते हुए आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर एसके अत्रे ने तकनीकी शिक्षा की महत्ता पर जोर देते हुए कहा कि यह कानक्लेव तकनीकी शिक्षा को नई दिशा देने के लिए है। आज हमारे देश में तकनीक के स्तर पर कई कार्य हो रहे हैं, मगर सबसे अधिक दु:ख की बात यह है कि वे जनता तक नहीं पहुँच रहे हैं। हमारी तकनीकी उपलब्धियां राजनीति के शोर में दबकर रह जाती हैं। हाल ही में इसरो की तरफ से जितने भी सफल अभियान हुए हैं, वे किसी भी देश के लिए गर्व करने के लिए पर्याप्त होंगे। मगर कितने भारतीयों को इन उपलब्धियों के विषय में पता है? कितने भारतीयों को यह पता है कि हम तकनीकी क्षेत्र में आज किस शिखर पर है? शिखर की उपलब्धियां अज्ञात हैं। तो ऐसे में ऐसे कॉन्क्लेव का आयोजन बहुत ही आवश्यक हो जाता है। अभी इसरो में एक ही राकेट से 104 सैटेलाईट लांच किए गए। तो हमारा लक्ष्य है जनता तक इन उपलब्धियों को पहुंचाना। आज तकनीकी प्रोजेक्ट्स की प्रदर्शनी न केवल आईआईटी के बच्चों ने बल्कि देश भर से आए विद्यार्थियों ने लगाई है। तो इनका उद्देश्य अभिनवता में वृद्धि करना है। हमारी शिक्षा सोद्देश्य होनी चाहिए। हमारी शिक्षा का उद्देश्य केवल अपने विद्यार्थियों को अमेरिका या यूके ही भेजना न हो बल्कि देश में ही रोजगार के विभिन्न अवसर उत्पन्न करना हो। यदि हम अपने अतीत में झांकेंगे तो हमें कई विशेषताएं मिलेंगी जिनमें मूल्यों के साथ रोजगार की भी व्यवस्था थी, एक परम्परागत व्यवस्था थी अर्थात बढ़ई अपने हुनर को अपने बेटे में स्थानांतरित करता था और नाई अपने बेटे में अपने हुनर को। कौशल आधारित हमारा समाज था। मगर समय के साथ यह कब जाति में बदल गयी और कब इसमें दोष आ गए, यह पता ही नहीं चला और कौशल आधारित अर्थव्यवस्था, कौशल आधारित समाज एकदम से रटने वाली शिक्षा का केंद्र बन गया। तो उद्योग और शिक्षा एकदम से दो अलग अलग ध्रुव बन गए। कई पाठ्यक्रम ऐसे जिनकी प्रासंगिकता नहीं है, और कई ऐसे पाठ्यक्रम हैं जो प्रासंगिक हो सकते है। मगर द्रष्टि नहीं है। तो ऐसे ही कई मुद्दे थे जिनके आधार पर इस पूरे कानक्लेव को निर्धारित किया गया।
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भारत सरकार में पूर्व सचिव रहे कमल टावरी ने शिक्षा और उद्योग के बीच की दूरी पर बात करते हुए कहा कि हमें यह समीक्षा करने की आवश्यकता है कि क्या हम अपने पूर्व ज्ञान तक पहुँचने में विफल रहे हैं। आखिर ऐसा क्या हुआ जिससे हम अपनी परम्परा और मूल्यों से विमुख होते हुए शिक्षा को एकदम ही अप्रासंगिक बना बैठे हैं। हम जो आत्मनिर्भर व्यवस्था थे, वे एकदम से हर बात पर सरकार पर निर्भर हो गए। सरकार द्वारा दी जाने वाली कर्जमाफी और सब्सिडी पर आधारित हो गए। हमारे पास नए मॉडल की कमी हो गयी है क्या? हमें असरकारी विकल्प खोजना है जो अ-सरकारी हो। असरकारी और अ-सरकारी में अंतर करना आना चाहिए। हमें अपवादी मॉडल खोजना है। सीमाओं से परे जाकर हमें अपवादी मॉडल खोजकर अपना काम करना है। हमें परिचालन की रणनीति बनानी होगी। इनोवेशन को कार्यान्वित हो सकने वाली परियोजनाओं के साथ जोडऩा होगा। हमें कृषि में, नर्सरी में नए अवसर पैदा करने वाले श्रम बल को तैयार करना होगा। क्या हम ऐसा कर सकते हैं कि निजी संस्थानों से आस पास के लोगों के लिए कुछ सकारात्मक करने के लिए कहें। स्थानीयकरण करें। हमें उन चीजों की मार्केटिंग पर ध्यान देना है जिनकी मार्केटिंग अभी तक नहीं हुई है। जीडीपी की अव्यावहारिकता पर ध्यान खींचते हुए उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि हम जीडीपी के बुलबुले पर भी ध्यान दें। जब भी हम बदलाव की बात करते हैं, तो क्या बदलेगा, कैसा बदलाव, यह अब स्पष्ट होना चाहिए।
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दूरदर्शन की पूर्व महानिदेशक अर्चना दत्ता ने कार्यक्रम की बधाई देते हुए अपने अनुभवों के माध्यम से शिक्षा में वर्तमान कमियों पर प्रकाश डाला। उनके अनुसार जो पाठ्यक्रम है वह तो बहुत कठिन है, मगर जो पढ़ाई हो रही है, उसमे आधारभूत कमियाँ हैं। बेस पर ध्यान नहीं। बच्चे रटते हैं, नोट्स पर निर्भर। जो मैं पढ़ाती हूँ, उस पर ध्यान देने के स्थान पर केवल उनका ध्यान इतना होता है कि जो जरूरी है उसे नोट करें और याद करके पास हो जाएं। मगर यह एक पक्ष है, हमारा भारत विरोधाभासों का देश है, एक रिपोर्ट थी जिसमें आईआईएफटी के शानदार प्लेसमेंट की खबरें थीं। एक तरफ लाखों का पॅकेज मिलता है। और यह भी बात सच है कि वर्ष 2030 तक हमारे पास सबसे अधिक युवा जनसंख्या होगी। तो हम संख्या में तो ज्यादा हो रहे हैं, गुणवत्ता में हम कहाँ ठहरते हैं, ये देखना होगा। जो हजारों लाखों की संख्या में इंजीनियर पास होकर निकलते हैं, उनका क्या होगा? शिक्षा व्यवस्था रोजगार परक होगी तो ही भारत आगे बढेगा।
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वीï.के. गोस्वामी, एक्स वीसी सनराइज यूनिवर्सिटी, संगम युनिवर्सिटी, वर्तमान में वीपी एशियाई अकादमी ऑफ फिल्म एंड टेलीविजऩ ने प्रणाली में हो रहे बदलावों पर एक नजर डालने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि हमें देखना होगा कि क्या क्या बदल गया है और क्या क्या बदलना होगा। कितना नुक्सान हो गया है और कितना लाभ हुआ है, सब पर एक नजर डालनी होगी। हमें ध्यान देना होगा कि किस प्रकार गुणवत्ता को सुधार सकते हैं। आखिर वे कौन से कदम हैं जिनके माध्यम से हम अपने विद्यार्थियों को बाजार के अनुकूल बना सकते हैं। उनके अनुसार जब किसी भी संस्थान में कोई व्यक्ति प्रवेश लेता है तो वह केवल प्लेसमेंट के रिकोर्ड देखकर ही प्रवेश न ले क्योंकि संस्थान का उद्देश्य विकास होना चाहिए न कि केवल प्लेसमेंट। प्रश्न होना चाहिए कि किस तरह से एक अच्छे उपक्रमी या रोजगार प्रदाता बनें, बाहरी किसी भी विश्वविद्यालय से किसी भी तरह का कोई मुकाबला नहीं है, मगर हमारे विद्यार्थियों में कई तरह की विशेषताएं हमें विकसित करनी होंगी। ज्ञान को किस तरह से क्रियान्वित किया जाए, यह महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने खुद पर भरोसा रखने पर बल देते हुए शिक्षण पद्धति में बदलाव लाने की भी बात की।
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आध्यात्मिक गुरु पवन सिन्हा ने भी आधुनिक शिक्षा की निरर्थकता पर बात की। उनके अनुसार आधुनिक शिक्षा किसी भी तरह का सकारात्मक विकास नहीं कर रही है। जहां यह बात एकदम सच है कि वर्ष 2030 तक हम सबसे युवा देश होंगे, मगर ये युवा शक्ति किस दिशा में जाएगी क्या करेगी, यह सब निर्धारित करना बहुत ही कठिन है। गुणवत्ता और संख्या के विषय में विरोधाभास को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने कहा कि जहां एक तरफ हम संख्या बल में तीसरे स्थान पर हैं तो वहीं गुणवत्ता के मामले में हम 236 वें पायदान पर! आखिर इतना विरोधाभास क्यों? इनोवेशन के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है डिग्री की बाध्यता। कई बार ऐसा होता है कि हमारे हुनरमंद विद्यार्थियों को बाहर के देशों से तो बुलावा आ जाताहै मगर इस देश में वह सामंतवादी ब्यूरोक्रेसी की बलि चढ़ जाता है। तो इस प्रवृत्ति से पार पाना होगा। शिक्षा में शिक्षक धुरी होता है। उसे हर तरह के पक्षपात, हर तरह के भेदभाव से दूर होना चाहिए। उसके पास यह स्वतंत्रता होनी चाहिए कि उसे क्या पढ़ाना है और कितना पढ़ाना है। उच्च शिक्षा में हम उर्वर मस्तिष्क को नियंत्रित कर देते हैं। और उसे सोचने से अलग कर देते हैं। शिक्षकों की कमी भी एक मुख्य समस्या है जिस पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
द्वितीय सत्र: गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और नवाचार में निजी संस्था के प्रमोटरों / मालिकों की भूमिका
प्रधान मंत्री मोदी न्यू इंडिया का विजन और उद्यमिता और नवाचार में निजी उच्च शिक्षा संस्थानों के मालिक / प्रवर्तक की भूमिका,
आज देश में लगभग 20 से 25 निजी उच्च शिक्षा संस्थान हैं, जो शोध और नवाचारों के सामने अच्छी तरह से टिक पा रहे हैं। बाकी केवल डिग्री दे रहे हैं, जो कि एक प्रतिष्ठित नौकरी भी सुनिश्चित नहीं करते हैं। सरकार जितना ज्यादा स्टार्टअप पर जोर दे रही है, तो हर संस्थान जो पांच वर्ष या उससे अधिक पुराना है, को उद्यमशीलता और नवाचारों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए समर्पित संकाय और बुनियादी ढांचे की जरूरत है। अब रोजगार स्टार्टअप पर निर्भर करेगा, क्योंकि कोई भी सरकार नौकरियां बनाने और प्रदान करने में सक्षम नहीं है। यदि निजी उच्च शिक्षा संस्थान इस पर ध्यान केंद्रित करने में विफल रहते है, तो यह उनका सबसे बड़ा नुकसान होगा। बस प्लेसमेंट रिकार्ड दिखाने में कोई फर्क नहीं पड़ेगा, संस्थानों को यह देखना होगा कि उनके कितने छात्र अब नौकरी बनाने वाले हैं। मालिक / प्रमोटर, नवाचार और उद्यमिता को कैसे बढ़ावा दे सकते हैं और इस मोर्चे पर कितना अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं।
शिक्षा में आन्दोलन करने का समय
दूसरा सत्र गुणवत्ता परक शिक्षा और इनोवेशन में निजी संस्थान प्रमोटर/स्वामियों की भूमिका पर था जिसमें कमांडर वीके जेटली, प्रख्यात पत्रकार श्री वेद प्रताप वैदिक, मेजर जनरल दिलावर सिंह, प्रोफेसर नवीन रामपाल, तथा आईआईटी रुड़की से प्रो. सोनल अत्रे एवं श्रीमती शीला तावरी वक्ता थे। इस सत्र में निजी शिक्षा संचालकों की भूमिका पर विस्तार से चर्चा हुई। और उनके सामने आने वाली चुनौतियों के समाधान पर कई महत्वपूर्ण विचार आए। श्री वैदिक जी के अनुसार शिक्षा में परिवर्तन का समय है और शिक्षा के लिए क्रान्ति का समय आ गया है। शिक्षा के क्षेत्र में आन्दोलन छेडऩे का समय आ गया है।
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सत्र की शुरुआत करते हुए प्रो. वीके जेटली ने कहा कि आज समय आ गया है जब शिक्षा के क्षेत्र में नई शुरुआत करनी होगी। और यह शुरुआत केवल सरकारी संस्थानों या सरकार के माध्यम से नहीं हो सकती है, यह शुरुआत करनी होगी निजी क्षेत्र के शिक्षा संचालकों को। यह शुरुआत करनी होगी निजी क्षेत्र के प्रमोटर को। आज उद्योग और शिक्षा के क्षेत्र में जो अंतर है उसे भरने के लिए निजी क्षेत्र को नए विचारों के साथ आगे आना ही होगा। मगर यह भी उतना भी सच है कि आज निजी क्षेत्र के शिक्षा संचालकों के सामने कई चुनौतियां हैं, उनके लिए आगे बढना उतना आसान नहीं है। तो ऐसे में निजी क्षेत्र के शिक्षा संचालकों के लिए आगे बढना कितना सहज है?
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नेहरु युवा केंद्र संगठन के महानिदेशक मेजर जनरल दिलावर सिंह ने निजी क्षेत्र के प्रमोटर की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि निजी क्षेत्र के संचालकों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है। सभी शिक्षा सरकार से हो यह संभव नहीं है। आज बहुत सारे संस्थान हैं जो ट्रस्ट चला रहे हैं मगर यह भी बात उतनी ही सच है कि उनमें से कईयों की स्थिति बहुत खराब है और कईयों की बहुत अच्छी है। कई बंद हो रहे हैं तो कई बंद होने की कगार पर हैं। गुणवत्ता बहुत महत्वपूर्ण हैं। हमने एक नारा दिया था नेशन फर्स्ट, कैरेक्टर मस्ट। तो आज मूल्य आधारित शिक्षा की आवश्यकता है। हमारे अन्दर समस्या समाधान का कौशल और हुनर होना चाहिए। हर क्षेत्र में उत्कृष्टता की आवश्यकता होती है। तो हमें उत्कृष्टता पर और चरित्र निर्माण पर बल देना होगा।
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प्रोफेसर नवीन रामपाल का कहना था कि कहीं हम निजी क्षेत्र के प्रमोटर पर कुछ ज्यादा ही प्रेशर नहीं डाल रहे हैं? क्या हम उससे बहुत अधिक की अपेक्षा नहीं कर रहे हैं? हम सभी जानते हैं कि वह कितनी परेशानी से अपना कार्य करता है, ऐसे में उस पर तमाम तरह की अपेक्षाओं का बोझ उचित नहीं है। आखिर उसका लक्ष्य पैसा कमाना भी तो है ही। हाँ यह बात और है कि कुछ लोग पैशन के लिए आते हैं और कुछ केवल धन के लिए। धन के लिए जो आते हैं, उन्हें गुणवत्ता पर भी उतना ध्यान देना होगा जितना वे लाभ पर दे रहे हैं।
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आईआईटी रुड़की से प्रो. सोनल अत्रे ने भी निजी शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता परक शिक्षा दिए जाने पर जोर दिया। उनके अनुसार आज बहुत ही कठिन समय है जब तकनीकी शिक्षा को उतना महत्व नहीं मिल पा रहा है जितना मिलना चाहिए। कहीं न कहीं हम तकनीकी शोध के स्तर पर पिछड़ रहे हैं। ऐसे में सरकारी और निजी दोनों ही क्षेत्रों के शिक्षकों एवं संस्थानों को देश के विकास के लिए आगे आना चाहिए। उनके अनुसार तकनीकी शिक्षा पर गुणवत्तापरक शोध किए जाने की आवश्कता है।
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श्रीमती शीला टावरी ने निजी शिक्षा प्रमोटर की राह में आने वाली कठिनाइयों को बताते हुए स्पष्ट किया कि अभी तक न तो लिफाफा राज खत्म हुआ है और न ही लाइसेंस राज। ऐसे में जब निजी क्षेत्र का प्रमोटर इन कागजी कार्यवाहियों में ही उलझ कर रहेगा तो किस प्रकार वह गुणवत्ता पर बल दे पाएगा। आखिर गुणवत्ता के लिए उसकी राह के रोड़े भी तो हटाए जाने जरूरी हैं। जब वह रिश्वत के रूप में धन देगा तो वह सबसे पहले अपने पैसे वापस लेना चाहेगा और वह यह केवल विद्यार्थियों से ही तो करेगा। उन्होंने कहा कि हम लर्न और अर्न तो बहुत करते हैं, अर्न और लर्न पर कब आएँगे? कमाते हुए सीखने में जो अवसर हैं वह और कही नहीं हैं। हमारे यहाँ अभी भी शिक्षा का उद्देश्य तय होना बाकी है। कई बार कुछ लोग किसी न किसी विषय में स्पेश्लाइजेशन तो कर लेते हैं, मगर विषय के बारे में ही नही पता होता है।, तो ऐसे में परेशानी। हमें ज्ञान पिपासा जगानी होगी।
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वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक जी ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार पर बोलते हुए कहा कि अभी तक यह क्षेत्र सबसे उपेक्षित है। इस पर न तो सरकार का ध्यान है और न ही समाज का। हमने अपनी गौरवान्वित परम्परा को एकदम से उपेक्षित कर दिया है। हमें ध्यान ही नहीं है कि हमारा इतिहास क्या है? पश्चिम की अज्ञानता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि प्रथम विश्व युद्ध तक पश्चिम में शल्य चिकित्सा का अतापता नहीं था। युद्ध में घायल हुए सैनिकों का इलाज करते समय दस लोगों की आवश्यकता होती थी, जिसमें कुछ लोग हाथ पैर पकड़ते थे और फिर उनका पेट आदि सिला जाता था जबकि हमारी संस्कृति में आज भी इंडोनेशिया आदि से पता चलता है मस्तिष्क खोलकर की जाने वाली शल्यक्रिया कब से की जा रही है। हमें शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति की आवश्यकता है। अब समय आ गया है कि हम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आवाज उठाएं, कदम उठाएं। हमारे यहाँ दो तरह की शिक्षा, एक तो भारत में शिक्षा हो रही है और एक शिक्षा इण्डिया में। तो शिक्षा के क्षेत्र से भारत और इंडिया के भेद को मिटाने की आवश्यकता है। स्वभाषा में अध्ययन की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि हालांकि उन्हें अंग्रेजी भाषा से बैर नहीं है मगर स्वभाषा में जो बात है वह अंग्रेजी भाषा में नहीं है। स्व भाषा आत्मविकास की सीढ़ी है। पहले लोग लंदन जाते थे, आज लोग अमेरिका जाते हैं, हमें ऐसा कदम उठाने की आवश्यकता है जिससे लोग यहाँ आएं।
तृतीय सत्र: भारतीय मूल्य प्रणाली, उच्च शिक्षा में परिवर्तन के लिए इसकी प्रासंगिकता और आवश्यकता
शिक्षा मनुष्य के सम्पूर्ण विकास के लिए उसके विभिन्न ज्ञान तंतुओ को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया है। इसके द्वारा लोगों में आत्मसात करने, ग्रहण करने, रचनात्मक कार्य करने, दूसरों की सहायता करने और राष्ट्रीय महत्व के कार्यक्रमों में पूर्ण सहयोग देने की भावना का विकास होता है। इसका उद्देश्य व्यक्ति को परिपञ्चव बनाना है । नीति शास्त्र की उक्ति है-”ज्ञानेन हीना: पशुभि: समाना:। अर्थात् ज्ञान से हीन मनुष्य पशु के तुल्य है। ज्ञान की प्राप्ति शिक्षा या विद्या से होती है। दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। ‘शिक्षÓ धातु से शिक्षा शब्द बना है, जिसका अर्थ है-विद्या ग्रहण करना। विद्या शब्द ‘विदÓ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-ज्ञान पाना। परन्तु क्या वर्तमान में हमें शिक्षा का यह स्वरूप प्राप्त हो पा रहा है? क्या वर्तमान में उच्च शिक्षा इन मूल्यों को समाहित कर शिक्षित करने में समर्थ है? वर्तमान शिक्षा में नैतिक मूल्यों का महती आवश्यकता है। ववर्तमान में भारतीय शिक्षा प्रणाली पूरी तरह से पाश्चात्य शिक्षाव्यवस्था का अन्धा अनुकरण है। जहाँ बच्चा रोज विद्यालय जाता है और कुछ अक्षर ज्ञान कर लौट आता है। उसे आकर्षित करने के लिए शिक्षा के अलावा हर बात पर जोर दिया जाता है। अक्षर ज्ञान चाहे मिले न या न, पर बच्चों के स्वास्थ्य, भोजन, वस्त्र और पाठशाला की सफाई सुचारु हो इसकी चिन्ता की जाती है। अंकों की मारामारी है और उसी के माध्यम से आजीविका प्राप्ति के उपायों की खोज भी होती है। विद्यार्थी अपने पूरे अध्ययन काल में केवल ट्यूशन और पैसे के महत्व को ही देखता है। अत: अधिक धनलाभ कैसे, किससे और आसानी से होगा यही उसके मन में होता है न कि वह संस्कारी कैसे बने? अच्छी से अच्छी नौकरी कैसे मिले, यह उसके केंद्र में होता है और इसके लिए मन मस्तिष्क के घोड़े दौड़ाये जाते हैं। इस स्थिति में बालक का बौद्धिक विकास किस दिशा में होगा यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। तो उच्च शिक्षा में आखिर भारतीय मूल्यों की क्या आवश्यकता है?
मूल्य बचेंगे तभी शिक्षा बचेगी
तीसरे सत्र में भारतीय मूल्य प्रणाली, उसकी प्रासंगिकता और उच्च शिक्षा में परिवर्तन के आवश्यकता पर चर्चा हुई और इस चर्चा में भारतीय मूल्यों को शिक्षा में पुनर्स्थापित करने की आवाश्यकता पर जोर दिया गया। इस सत्र में कमांडर वी के जेटली, प्रो. एस के अत्रे, डॉ. सुधीर सिंह, डॉ. वाल्मीकि प्रसाद, डॉ. एनके जैन, एवं प्रो. सीमा शर्मा ने उच्च शिक्षा पर भारतीय मूल्यों पर चर्चा की। और इस बात पर आम सहमति बनी कि भारतीय मूल्यों की पुनर्स्थापना हुए बिना भारत में शिक्षा में सुधार नहीं हो सकता है।
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सत्र की शुरुआत करते हुए प्रो. एसके अत्रे ने कहा कि हर देश अपनी संस्कृति से जाना जाता है। कोई भी देश अपनी संस्कृति के अनुसार ही संचालित होता है। उसके लिए अपनी संस्कृति महत्वपूर्ण होती है। क्या हमारी उच्च शिक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की सम्वाहक है? क्या हमारे देश से बाहर जाने वाले हमारे डॉक्टर और इंजीनियर हमारी संस्कृति को भी बाहर ले कर जा रहे हैं? यह महत्वपूर्ण है।
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डॉ. वाल्मीकि प्रसाद ने गाँवों की महत्ता पर बल देते हुए कहा कि गाँव ही हैं जो मूल्यों को अभी तक थाम कर चल रहे हैं। ये मूल्य ही हैं जो गाँव की व्यवस्था को चलायमान रखे हुए है। भारत का जो पुराना आत्मगौरव था वह आज भी गाँव में है। बस उसे जगाने की जरूरत है। एक राख की चिंगारी है, उसे बस हवा देने की आवश्यकता है। आज सबसे दु:ख की बात यह है कि बच्चे इंजीनियर बनना चाहते हैं। डॉक्टर बनना चाहते हैं, मगर कोई सोशल इंजीनियर नही बनना चाहता है। सोशल इंजीनियरिंग को विकसित करना होगा। हमें बच्चों में क्रेज पैदा करना होगा। हर एक गाँव का आत्मगौरव विकसित किए जाने की आवश्यकता है। सामाजिक स्तर पर आज भी गाँव एक साथ है, सामाजिक स्तर पर कभी भी समन्वय की कोई समस्या नहीं आती है फिर चाहे वह शादी हो, ब्याह हो, दिवाली हो, ईद हो या मुहर्रम या पूजा। मगर शैक्षणिक स्तर पर समस्या आती है। हमें इस समन्वय को शिक्षा में लेकर आना है। पंचायत अर्थात पथ प्रदर्शक। ग्लोब्लाइसजेशन से भौतिक विकास हुआ, मगर आपसी भाईचारा खत्म हो गया, हमें उसे वापस लाना है।
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हाफिज ने अपनी बात रखते हुए कहा कि यह बात सत्य है कि इच्छाओं की अपर लिमिट नहीं है, मगर हर चीज की एक लोअर लिमिट होनी चाहिए। आखिर एक गरीब परिवार का बच्चा जब शिक्षक बनेगा तब वह सबसे पहले अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के बारे में सोचेगा और तभी ही वह कोई और कदम उठाएगा। शिक्षक को वेतन के अलावा सम्मान मिलना चाहिए। उसे सम्मान मिलेगा तभी वह मूल्यों को विकसित कर सकेगा। आज शिक्षक को न ही तो वेतन मिलता है और न ही सम्मान, तो वह आहत स्वाभिमान के साथ किस तरह से मूल्यों का विकास नई पीढी में कर सकेगा? शिक्षक हमेशा ही वेतन की मांग को लेकर धरने पर बैठता है। तो उसमें आत्मसम्मान जगाने की आवश्यकता है।
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दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रो. एन के जैन ने मूल्यों की पुनर्स्थापना पर बल दिया और उन्होंने कहा कि बिना भारतीय मूल्यों के भारतीय शिक्षा निरर्थक है। दरअसल हमारे यहाँ धर्म की परिभाषा अलग है।, हमारे धार्मिक मूल्य ही जीवन मूल्य है, धार्मिक मूल्य अर्थात धारण किए जाने योग्य मूल्य। हर धर्म में दस मूल मूल्य हैं। फिर चाहे वह हिन्दू हो, जैन हो या फिर ईसाई। हमें चिंता आदि से बचना होगा। योग मन को जोड़ता है, योग को विकसित करना होगा। नैतिक मूल्य हमारी जीवन प्रक्रिया का हिस्सा है। वर्णव्यवस्था को जिस तरह सुनियोजित तरीके से तोड़कर समाज को तोड़ा गया, वह बहुत ही निंदनीय है। हमें शिक्षा और मूल्यों को आपस में जोडऩे के लिए कई मिथकों को तोडऩा होगा।
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प्रो. सुधीर सिंह के अनुसार गुणवत्ता और संख्या के बीच अंतर करना होगा और हमारे यहाँ राजनीति का हर क्षेत्र में अवांछित दखल है उसे कम करना होगा। योग पर होने वाली राजनीति का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि एक सार्थक प्रक्रिया को, मात्र वोट बैंक के कारण घटिया राजनीति का अड्डा बनाकर रख दिया है। शिक्षकों की भी यह कमी है कि वे वहां तक नहीं पहुँच पाए। मूल्यों के निर्माण में वे भागीदार नहीं बन पाए। शिक्षकों को इस कमी को पूरा करना ही होगा।
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वीके जेटली ने भारतीय संस्कृति और अपेक्षाओं पर बात करते हुए कहा कि हमने अधिकारों पर तो तमाम बातें कर लीं और आज हम अधिकारों पर लड़ाई भी करते हैं, मगर हमारे कर्तव्य क्या हैं, कभी भी हम इस पर बात नहीं करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि अधिकार हमेशा दायित्व के साथ आते हैं। जब हमारे विद्यार्थी बाहर जाते हैं, तो बाहर के लोग उन्हें आध्यात्मिक भूमि से आया हुआ सोचते हैं जबकि हकीकत यह है कि उन्हें अपनी ही संस्कृति के विषय में बहुत कुछ पता नहीं होता है, और वे अमेरिका या अन्य देशों में अपनी संस्कृति की छाप खोजते हैं। इस विरोधाभास को समाप्त करना होगा।
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डॉ. सीमा शर्मा ने भी कमांडर वी के जेटली की बात को आगे बढाते हुए कहा कि बाहर के देशों में हमारे देश और संस्कृति पर बहुत बातें होती हैं। मगर प्रश्न यह है कि एक नागरिक के रूप में मूल्यों का निर्वहन करने में हम क्यों विफल हो रहे हैं। भारत मूल्यों का देश है, हमें देखना होगा कि आखिर हम मूल्यों के स्तर पर क्यों विफल हुए हैं? और यदि हम विफल हुए हैं तो वह विफलता कहाँ पर है? मूल्य और पाठ्यक्रम ऐसे हों जो उन्हें जमीन से जुडऩे के लिए प्रेरित करें। जो उन्हें यह बताएं कि क्या सही है और क्या गलत है। शिक्षा तभी सार्थक है जब उसमें जीवन मूल्य हों।
तकनीकी प्रदर्शनी एवं पेपर प्रस्तुतीकरण
तकनीकी शिक्षा में अभिनवता और मौलिकता को बढ़ावा देने के लिए आईआईटी दिल्ली के विद्यार्थियों ने अपने तकनीकी प्रोजेक्ट्स का भी प्रदर्शन किया था। इसमें बीस से अधिक विद्यार्थियों ने अपने भिन्न भिन्न प्रोजेक्ट्स प्रदर्शित किए। इसके साथ ही देश भर से आए विभिन्न संस्थानों के विद्यार्थियों ने अपने अपने तकनीकी कौशल को विभिन्न प्रोजेक्ट्स के माध्यम से प्रदर्शित किया। इन संस्थानों ने तकनीकी रूप से अपने मौलिक और नए विचारों को मॉडल के रूप प्रदर्शित किया।