–रमेश शर्मा
भारतीय चिंतन में तीज त्यौहार केवल धर्मिक अनुष्ठान और परमात्मा की कृपा प्राप्त करने तक सीमित नहीं है । परमात्मा के रूप में परम् शक्ति की कृपा आंकाक्षा तो है ही साथ ही इस जीवन को सुन्दर और सक्षम बनाने का भी निमित्त तीज त्यौहार हैं । इसी सिद्धांत नवरात्र अनुष्ठान परंपरा में है । इन नौ दिनों में मनुष्य की आंतरिक ऊर्जा को सृष्टि की अनंत ऊर्जा से जोड़ने की दिशा में चिंतन है । आधुनिक विज्ञान के अनुसंधान भी इस निष्कर्ष पर पहुंच गये हैं कि व्यक्ति में दो मस्तिष्क होते हैं। एक चेतन और दूसरा अवचेतन। इसे विज्ञान की भाषा में “कॉन्शस” और “अनकाॅन्शस” कहा गया है व्यक्ति का अवचेतन मष्तिष्क सृष्टि की अनंत ऊर्जा से जुड़ा होता है । जबकि चेतन मस्तिष्क संसार से । हम चेतन मस्तिष्क से सभी काम करते हैं पर उसकी क्षमता केवल पन्द्रह प्रतिशत ही है । जबकि अवचेतन की सामर्थ्य 85% है । सुसुप्त अवस्था में तो दोनों का संपर्क जुड़ता है । पर यदि जाग्रत अवस्था में चेतन मस्तिष्क अपने अवचेतन से शक्ति लेने की क्षमता प्राप्त कर ले तो उसे वह अनंत ऊर्जा से भी संपन्न हो सकता है । प्राचीनकाल में ऋषियों की वचन शक्ति अवचेतन की इसी ऊर्जा के कारण रही है । नवरात्र में पूजा साधना विधि जन सामान्य को अवचेतन की इसी शक्ति को सम्पन्न करने का प्रयास है । इससे आरोग्य तो प्राप्त होगा ही साथ ही अलौकिक ऊर्जा से संपन्नता भी बढ़ती है । अनंत ऊर्जा से जुड़ने की प्रक्रिया पितृपक्ष से आरंभ होती है । दोनों मिलाकर यह कुल पच्चीस दिनों की साधना है ।
सनातन परंपरा में दो बार नवरात्र आते हैं। एक चैत्र माह में और दूसरा अश्विन माह में। ये दोनों माह सृष्टि के पाँचों तत्वों के संतुलन की अवधि होती है । अतिरिक्त क्षमता अर्जित करने के लिये पाँचों तत्वों का संतुलन आवश्यक है । असंतुलन की स्थिति में उस तत्व से संबंधित तो प्रगति तीव्र होती है जिसका अनुपात अधिक होता है पर संपूर्ण की गति कम रहती है । प्रकृति संतुलित हो तो प्राणी ही नहीं समूची वनस्पति में आंतरिक विकास की गति तीब्र होती है । इसका अनुमान हम फसल चक्र से लगा सकते हैं। यदि प्राणी देह की आंतरिक कोशिकाओं के विकास की अवधि में अतिरिक्त प्रयास हों तो अतिरिक्त ऊर्जा से संपन्नता हो सकती है । दोनों नवरात्र में यह शारदीय नवरात्र अधिक महत्वपूर्ण हैं। इस नवरात्र को पितृपक्ष से जोड़ा गया है । पितृपक्ष की नियमित दिनचर्या चित्त को शाँत करती है । शाँत चित्त में ही सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है । शरीर, मन और प्राण शक्ति को इस योग्य बनाती है कि व्यक्ति ज्ञान और आत्मा के स्तर पर सृष्टि की अनंत ऊर्जा से जुड़ सके । इसीलिए पितृपक्ष में यम, नियम, संयम, आहार और प्राणायाम पर जोर दिया गया है । जबकि नवरात्र में धारणा ध्यान और समाधि पर ।
देवी को आदिशक्ति माना है । इसीलिए भारत में नारी को आद्या कहा है और पुरुष को पूर्णा। शक्ति के विभिन्न रूप हैं । शरीर की शक्ति, मन की शक्ति, बुद्धि की शक्ति, चेतना की शक्ति और प्रकृति की शक्ति। यदि शरीर सबल है किंतु मन भयभीत है तो परिणाम अनुकूल न होंगे । यदि शरीर ठीक है, मन ठीक है पर बुद्धि यह काम न कर रही क कार्य को कैसे पूरा किया जाय तो भी परिणाम अनुकूल न होंगे । सब ठीक होने पर यदि प्रकृति विपरीत हो तो भी परिणाम प्रभावित होगा । इन्ही सब प्रकार की शक्ति अर्जित करने केलिये ही नवरात्र की अवधि है । यह नवरात्र बहु आयामी हैं। ये शरीर को स्वस्थ्य बनाते हैं, शक्ति सम्पन्न बनाते हैं और अंतरिक्ष की अनंत ऊर्जा से जोड़ने हैं। पर अच्छे परिणाम तभी होंगे जब हम पितृपक्ष की अवधि का पालन भी निर्धारित दिनचर्या से करें। जिस प्रकार हम कहीं दूर देश की यात्रा के लिये पहले वाहन की “ओव्हर हालिंग” करते हैं वैसे ही पहले पितृपक्ष में शरीर, मन, विवेक बुद्धि को तैयार किया जाता है ।
नवरात्र में नौ देवियों के पूजन का विधान है । प्रत्येक देवी का नाम अलग है, रूप अलग है, पूजन विधि अलग है, और तो और पृथक वनस्पति और पृथक चक्र से संबंधित है । मानव देह में मूलाधार से कुल आठ चक्र होते हैं। आरंभिक आठ दिन इन चक्र के माध्यम से शरीर की सभी कोषिकाओं को सक्रिय और समृद्ध बनाना है । इसे हम देवियों के स्वरूप, पूजन विधि और उनके विभिन्न वनस्पतियों के औषधीय गुणों से समझ सकते हैं ।
देवी के नौ विभिन्न रूप
प्रथम दिवस शैलपुत्री स्वरूप मूलाधार से संबंधित
नवरात्र में प्रथम दिन देवी के ‘शैलपुत्री’ स्वरूप की पूजन होती है । पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम ‘शैलपुत्री’ कहते हैं। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए इनका वृषारूढ़ा नाम भी है। इनके दाएँ हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल है।
पूजन मन्त्र
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम् ॥
अन्य नाम: सती, पार्वती, हेमवती और भवानी इन्ही देवी के नाम हैं । मंत्र मेें जो शब्द स्वर प्रयुक्त हुये हैं उनके उच्चारण से मूलाधार चक्र की कोशिकाएँ जाग्रत होतीं हैं।
माता ब्रह्मचारिणी
दूसरे दिन देवी के ब्रह्मचारिणी स्वरूप की पूजन होती है । ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी अर्थात आचरण करने वाली। तब अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। यह भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने की तपस्चर्या का स्वरूप है ।
मन्त्र
दधाना करपद्माभ्यामक्षमाला कमण्डलू ।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥
मंत्र में अनुत्तमा का अर्थ “जिनसे उत्तम कोई नहीं” और अक्षमाला कमण्डलू शब्द में दो वास्तु होने के कारण कमण्डलु शब्द के द्विवचन का प्रयोग है ।
माता चंद्रघंटा
नवरात्र में तीसरे दिन माता चन्द्रघंटा की पूजन होती है । इनके मस्तक पर अर्धचन्द्र आकार की नाद आकृति होती है । इसलिये इन्हे चन्द्रघण्टा देवी कहा गया । देवी की कुल दस भुजायें होतीं हैं, रंग स्वर्ण समान दमकता हुआ है और इनका वाहन सिंह है । यह ध्यान की अवस्था है और साधक का मन ‘मणिपूर’ चक्र की कोशिकाओं को जाग्रत करता है इससे साधक को अलौकिक आभा और दिव्य सुगन्धि का आभास होता है । यह अंतरिक्ष की अलौकिक ऊर्जा से संपर्क के चिन्ह हैं। इससे मन में सकारात्मक तरंग उठती है जो उसकी आंतरिक ऊर्जा के जाग्रत होने का प्रमाण होता है ।
देवी के मस्तक पर घंटे के आकार का आधा चन्द्र है। इसीलिए इन देवी को चन्द्रघण्टा कहा गया है।
इनकी आराधना से अलौकिक अनुभूति के साथ वीरता, निर्भयता सौम्यता और विनम्रता का भाव भी जाग्रत होता है ।
मन्त्र:-
पिण्डजप्रवरारूढा चण्डकोपास्त्रकेर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता॥
माता कुष्माँडा
नवरात्र के चौथे दिन माता के कूष्माण्डा स्वरूप पूजन होती है । इस दिन साधक का मन ‘अदाहत’ चक्र में अवस्थित होता है। देवी के इसी स्वरूप से ब्रह्माण्ड को उत्पत्ति मानी जाती है । देवी के इसी स्वरूप को आदिशक्ति भी कहा जाता है। इनकी आठ भुजाएँ हैं । अष्टभुजा नाम इसी स्वरूप का है । हाथों में कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र गदा और सभी सिद्धियों को देने वाली जप माला है। इनका वाहन सिंह है ।
इन्हें सूर्यकी केन्द्रीभूत शक्ति माना गया है इसीलिए प्रतीक रूप मेंइनका वास सूर्यमंडल कहा गया है । इनकी आभा सूर्य की भाँति दैदीप्यमान है। पूरे सौर मंडल में सूर्य से जो प्रकाश, ऊर्जा और ऊष्मा फैलती है वह इन्ही देवी की शक्ति से ही। एकाग्र और शाँत चित्त से किये मंत्र जाप और पूजन से यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है।
मन्त्र:
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदाऽस्तु मे॥
पाँचवा दिन : स्कंधमाता
नवरात्र का पाँचवा दिन देवी के स्कंदमाता स्वरूप का पूजन होता है । दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। शिवजी के पुत्र कुमार कार्तिकेय का एक नाम स्कंध भी है । ये भगवान गणेश के ज्येष्ठ भ्राता हैं। देवी की गोद में दायीं ओर स्कन्ध विराजे हैं। पुत्र स्कंद के गोद में होने के कारण देवी का स्कंदमाता स्वरूप है । देवी की चार भुजाएँ हैं । दायीं भुजा से वे पुत्र स्कंध को साधे हुये और बायाँ हाथ वरद् मुद्रा में हैं । अन्य दोनों ओर के दोनों हाथों में कमल पुष्प है। देवी स्कंदमाता को संसार भर के जड़ चेतन जीवों में चेतना संचार करने वाली माना जाता है । देवी कमल के आसन पर विराजमान हैं। इनका एक नाम पद्मासना भी है। इनका वाहन सिंह है।
मन्त्र:-
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदाऽस्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ।।
देवी कात्यायनी
नवरात्र में माता का छठा स्वरूप कात्यायनी है। इनका संबंध ‘आज्ञा’ चक्र होता है। इसलिये इनकी उपासना के समय साधक को अपना ध्यान आज्ञाचक्र पर केन्द्रित करना चाहिए।
इनका स्वरूप स्वर्ण के समान चमकीला और दिव्य हैं । इनकी चार भुजाएँ हैं। दायीं तरफ का पहला हाथ अभयमुद्रा में तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में है। जबकि बाँयी तरफ पहले हाथ में कृपाण है और दूसरे हाथ में कमल पुष्प है। इनका वाहन सिंह है।
मन्त्र:
चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानव-घातिनी॥
माता कालरात्रि
नवरात्र का सातवें दिन देवी के कालरात्रि स्वरूप की उपासना होती है। इन्हे ‘सहस्रार’ चक्र से संबंधित माना जाता है। इसलिए उपासना के समय साधक को अपना ध्यान अपने शरीर के सहस्त्राचार चक्र की ओर केन्द्रित रखना चाहिए। इसी चक्र का संबंध अंतरिक्ष की समस्त ऊर्जाओं से होता है । जो साधक का उनसे संपर्क के द्वार खोलता है ।
इनका रौद्र स्वरूप है। बाल बिखरे हैं, गले में विद्युत सी दैदीप्यमान है। इन देवी के तीन नेत्र हैं। यह तीनों ही नेत्र ब्रह्माण्ड के समान गोल हैं। इनकी साँसों से अग्नि निकलती रहती है। इनका वाहन गर्दभ है। इनका एक दाहिना हाथ वरमुद्रा में और दूसरा हाथ अभय मुद्रा में है।
बायीं तरफ एक हाथ में लोहे का काँटा और दूसरे हाथ में खड्ग है। इन्हे भगवान शिव की केन्द्रीभूत ऊर्जा माना गया है इसलिये इन्हे शुभ फल देने शुभंकरी माना गया है ।
मन्त्र:
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धन्मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥
देवी महागौरी
नवरात्र का आठवाँ दिन देवी महागौरी की उपासना होती है । इनका स्वरूप शाँत और प्रसन्न मुद्रा में है । इनकी उपमा शंख, चन्द्र और कुन्द के फूल से दी गई है। इनका स्वरूप, वस्त्राभूषण आदि सब श्वेत हैं । इसीलिए इन्हें श्वेताम्बरधरा भी कहा गया है। इनके अन्य नाम अन्नपूर्णा, ऐश्वर्य प्रदायिनी, चैतन्यमयी भी हैं । इनकी चार भुजाएँ हैं । वाहन वृषभ है । इनका एक दाहिना हाथ अभय मुद्रा में और दूसरा हाथ त्रिशूल धारण किया हुए है। तो बाईं ओर एक हाथ में डमरू और दूसरा वरमुद्रा है।
मन्त्र:
श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेव-प्रमोद-दा॥
देवी सिद्धरात्रि
नवरात्र में पूजा उपासना के समापन का दिन नौवां होता है । इस दिन के सिद्धिदात्री स्वरूपकी उपासना होती है । ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। यह नौ दिन की आराधना के समापन का दिन है। देवी के दायीं ओर एक हाथ में गदा, दूसरे में चक्र, तथा बायें एक हाथ में शंख और दूसरे में कमल पुष्प है । इनका आसन कमल पुष्प पर और वाहन सिंह है । इनकी उपासना में साधक को पहले अपने सभी चक्रों और अंगों पर ध्यान लगाकर चित्त को एकाग्र करना फिर देवी के स्वरूप पर ध्यान केंद्रित किया जाता है । ऐसा करने पर माना जाता है कि देवी की सभी अलौकिक ऊर्जा शरीर के सभी अंगों में संचारित हो रही है । इससे साधक को अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त होतीं हैं। देवी के इसी स्वरूप को अष्ठ सिद्धी दायक भी माना गया है । इन सिद्धियों के नाम अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व हैं।
मन्त्र:-
सिद्धगन्धर्व-यक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।
देवी साधना में आरोग्य से लेकर अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त करने का सिद्धांत
यह हमारा भ्रम और अज्ञानता है कि जो कर रहे हैं हम अपनी सामर्थ्य से कर रहे हैं। वस्तुतः हम एक पग भी प्रकृति की शक्ति के बिना नहीं उठा सकते । हमारे जीवन का एक एक पल और हमारी एक एक श्वांस भी प्रकृति की शक्ति से संचालित होती है । प्रकृति अनंत शक्ति और ऊर्जा से संपन्न है । विज्ञान की भाषा में प्रकृति की ऊर्जा का अंश ही हमको संचालित कर रहा है । वहीं आध्यात्मिक शब्दों में कहें तो हमारे भीतर आत्मा ही उस परम् दिव्य शक्ति का अंश है । दोनों के शब्दों में अंतर है पर भाव एक ही । कि प्रकृति की शक्ति या ऊर्जा ही हमारी सामर्थ्य है । यदि हम कुछ अतिरिक्त प्रयत्न करके प्रकृति से अतिरिक्त ऊर्जा ले लें तो हमारी कार्य ऊर्जा में गुणात्मक वृद्धि हो सकती है । प्रकृति से अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करने की साधना के ही दिन हैं ये नवरात्र। पर पहले शरीर, मन, बुद्धि और चेतना को इतना सक्षम बनाना होता है कि वह इस अतिरिक्त ऊर्जा को अपने भीतर समेटने में सक्षम हो सके । शरीर को संतुलित बनाने की अवधि है पितृपक्ष और स्वयं को अतिरिक्त ऊर्जा से युक्त बनाने की अवधि है नवरात्र।
कितने लोग हैं यथा अवस्था में ही जीवन जीते हैं। और कितने लोग हैं जो अपना जीवन शून्य से आरंभ करके भी आसमान की ऊँचाइयाँ छू लेते हैं। यह सब उनकी आंतरिक क्षमता के उपयोग से ही संभव होता है । शरीर की प्रत्येक कोशिका या अंग को स्वस्थ्य रखना और उसे प्रकृति की अनंत ऊर्जा से जोड़ना ही यह कुल अवधि का सारांश है । शरीर की कोशिकाओं या अंगो को केन्द्र ये आठों चक्र हैं। इनके द्वारा ही ऊर्जा अंगों या कोशिकाओं को पहुंचती है । इसे गर्भावस्था में जीवन विकास क्रम से समझा जा सकता है । गर्भस्थ शिशु माता की नाभि से ही भोजन और श्वांस लेता है । अर्थात माता के नाभि चक्र में वह सामर्थ्य है कि वह एक जीवन को विस्तार दे सकता है । लेकिन गर्भस्थ शिशु के विकास और उनके जन्म के बाद नाभि चक्र की उपयोगिता कितनी रह जाती है । भारतीय अनुसंधान कर्ताओं ने इसी विचार को आगे बढ़ाया और शरीर के सभी चक्रों को अधिक सक्रिय कर अंतरिक्ष की अनंत ऊर्जा से संपन्न होने का मार्ग खोजा । यह नौ दिन की साधना यही मार्ग खोलती है ।
इसका यह आशय कदापि नहीं कि पितृपक्ष में पितरों के समीप आने या उनके आशीर्वाद प्राप्त करने की अवधारणा या नवरात्र में देवी को प्रसन्न करने की अवधारणा कोई कम महत्वपूर्ण है । इन दोनों अवधारणाओं का अपना महत्व है । पर इसके साथ हमें इन उपासना के पीछे पितरों और देवी को प्रसन्न करके अपनी सामर्थ्य वृद्धि के दर्शन की बात भी समझना है ।
आरोग्य की दृष्टि से नवरात्र
नवरात्र साधना में दैवीय कृपा मिलने, या ध्यान समाधि से अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त करने के मार्ग के साथ औषधियों और आरोग्य प्राप्त करने का अवसर भी होते हैं नवरात्र।
दुर्गा कवच में वर्णित नवदुर्गा नौ विशिष्ट औषधियों में हैं।
प्रथम शैलपुत्री का संबंध हरड़ से माना गया है जो अनेक प्रकार के रोगों में काम आने वाली औषधि है । हरड़ को हिमायती गया है जो देवी शैलपुत्री का ही एक रूप है। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है। यह पथ्य, हरीतिका, अमृता, हेमवती, कायस्थ, चेतकी और श्रेयसी सात प्रकार की होती है।
द्वितीय ब्रह्मचारिणी । इन्हे ब्राह्मी भी कहा गया है । यह ब्राह्मी औषधि स्मरणशक्ति बढ़ाती है और रक्तविकारों को दूर करती है । वाणी को भी मधुर बनाती है। इसलिए इसे सरस्वती भी कहा जाता है।
तृतीय चन्द्रघण्टा । इन्हे चन्द्रसूर भी कहा गया है । चन्द्रसूर एक ऐसा पौधा है जो धनिए के समान है। यह औषधि मोटापा दूर करता है, सुस्ती दूर करता है । शरीर को सक्रिय रहता है और त्वचा रोगों में भी लाभप्रद है
चतुर्थ कूष्माण्डा इनका प्रतीक कुंमड़ा है । आज-कल इस दिन कुंमड़े की बलि देने का प्रचलन हो गया है । पर वस्तुतः यह एक प्रकार की औषधि है इससे एक मिष्ठान्न पेठा भी बनता है। इससे रक्त विकार दूर होता है, पेट को साफ होता है। मानसिक रोगों में तो यह अमृत के समान है।
पंचमी देवी स्कन्दमाता । इनका प्रतीक अलसी है । कहते हैं ये देवी अलसी में विद्यमान रहती हैं। अलसी वात, पित्त व कफ रोगों की नाशक औषधि है।
षष्ठम् कात्यायनी देवी हैं । इन्हें मोइया भी कहा गया है । यह औषधि कफ, पित्त व गले के रोगों का नाश करती है।
सप्तम् कालरात्रि । इन देवी का वास नागदौन में माना गया है । यह औषधि नागदौन सभी प्रकार के रोगों में लाभकारी होती और मनोविकारों को दूर करती है।
अष्ठम् महागौरी । इनका निवास तुलसी में माना गया है । तुलसी कितनी गुणकारी होती है । हम परिचित हैं। तुलसी सात प्रकार की होती है सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरूता, दवना, कुढेरक, अर्जक और षटपत्र तुलसी । शरीर मन और मस्तिष्क का ऐसा कोई रोग नहीं जिसमें तुलसी लाभकारी न हो । पिछले दिनों पूरी दुनियाँ में एक बीमारी कोरोना फैली । जिन घरों में तुलसी पत्ती की नियमित चाय बनती थी वहाँ इस बीमारी का प्रभाव नगण्य ही रहा ।
नवम् सिद्धिदात्री । इनका वास शतावरी में माना गया है । इसे नारायणी शतावरी भी कहते हैं। यह बल, बुद्धि एवं विवेक के लिए उपयोगी है।
इस प्रकार इन नौ दिनों का संबंध औषधियों से भी है । नवरात्र में नियमानुसार साधना आराधना करके और निर्देशित दिनचर्या करके हम आरोग्य प्राप्त कर सकते हैं। अंतरिक्ष की अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं और दैवी कृपा तो है ही ।