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कूटनीतिकि षड्यंत्रो के विचित्र खेल

भारत में ब दुनिया में खाद्दय पदार्थों के नाम पर जो भी उगाया जा रहा है वह रासायनिक खादों व कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण धीमा ज़हर ही है। भारत में कृषि सुधार एवं किसान आंदोलन के बहाने सरकार की घेराबंदी में कहीं भी ज़ेविक व मिश्रित कृषि को पुनः शुरू करने की माँग ही नहीं की जा रही ही बल्कि सरकारी मदद व सब्सिडी में अधिक से अधिक हिस्सेदारी की माँग की जा रही है। वास्तव में कृषि सुधारो की जो अच्छी पहल मोदी सरकार ने की है उसके बारे में भ्रम फैलाकर देश में अस्थिरता पैदा करने व सरकार गिराने की कोशिशें की जा रही हैं। पिछले कुछ महीनो में दुनिया बड़े उतार चढ़ावो से गुज़र रही है व शक्ति संतुलन बिगड़ गया है । इस आंदोलन के पीछे यही बदलते कूटनीतिक समीकरण हैं। अब दुनिया ग्लोबल विलेज व एक बाज़ार बन चुकी है । इस बाज़ार पर वर्चस्व के लिए चीन व अमेरिका के बीच पिछले कुछ वर्षों से व्यापार युद्ध चल रहा था व इसकी चरम परिणति कोरोना वायरस के माध्यम से ज़ेविक युद्ध के रूप में दुनिया को झेलनी पड़ रही है। दुनिया में नब्बे के दशक से शुरू हुई ग्लोबलाइज़ेशन की प्रक्रिया में अमेरिका एकमात्र ग्लोबल पावर के रूप में उभरा। इस उभार में अधिकतम हिस्सेदारी पाने के खेल में अमेरिका की रिपब्लिकन व डेमोक्रेटिक पार्टी व उनसे जुड़ी नाटो देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में बड़ी होड़ छिड़ गयी और दुनिया दो महाशक्तियों के ख़ेमों से निकल अमेरिका की दो पार्टियों के ख़ेमों में विभाजित होती गयी। पिछले तीन दशकों में दुनिया के सभी देशों के राजनीतिक दल, तानाशाह व सरकारें अमेरिका के इन दो प्रमुख राजनीतिक दलों में से किसी एक के ख़ेमे से जुड़ते गए। यह एक विचित्र तरह का विभाजन है जिसकी खुले तौर पर चर्चा न के बराबर होती है किंतु आंतरिक रूप से सभी देशों की सरकारें ,राजनीतिक दल व कारपोरेट घराने अपने अपने ख़ेमे के हितों के अनुरूप ही अपनी नीतियाँ, विचारधारा बनाते है व निर्णय लेते हैं यहाँ तक अंडरवर्ल्ड व आतंकी गुटों में भी इसी के अनुरूप ख़ेमेबंदी है। इन तीन दशकों में चीन व रुस ने अमेरिका व बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था से सामंजस्य बैठकर अपने आप को बहुत मज़बूत कर लिया व पुनः महाशक्ति के रूप में स्थापित हो गए । अब वे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिकी व उसकी सरपरस्त नाटो के वर्चस्व को चुनोती देने लगे हैं और संयुक्त राष्ट्र सहित सभी वेश्विक संस्थाओ में दमदार तरीक़े से छा गए हैं।ऐसे में पुनः विश्व के देशों में गुटबाज़ी व खेमेबंदी शुरू हो गयी है। अमेरिकी ख़ेमे से निकलकर कुछ देश अब चीन के साथ है तो कुछ रुस के साथ भी जुड़ गए हैं। जो देश अमेरिका के साथ हैं उनमें भी रिपब्लिकन व डेमोक्रेट गुटों में खेमेबंदी है। अमेरिका में जिस भी राजनीतिक दल की सरकार आती है , उससे जुड़ी हुई दुनिया भर की सरकारों, कारपोरेट कंपनियों, राजनीतिक दलों, मीडिया समूहों, एनजीओ, आतंकी संगठनों की पौ बारह हो जाती है व ये सब अपने अपने हितों के अनुरूप दुनिया के आर्थिक श्रोत, बाज़ार, प्राकृतिक व मानव संसाधनों का दोहन शुरू कर देते हैं। यह क्रम पिछले तीन दशकों से लगातार चल रहा है। हाल ही में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनावों में सत्ता परिवर्तन हुआ है व रिपब्लिकों ट्रम्प को डेमोक्रेट जो बाइडन ने हरा दिया है व बाइडन 20 जनवरी 2021 को अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण करने वाले हैं। अमेरिका की विश्व की सबसे बड़ी ताक़त होने की स्थिति को चीन ने बड़ी चोट पहुँचाई है। उसने ज़ेविक युद्ध के माध्यम से पूरी दुनिया में लॉकडाउन लगवाकर अमेरिकी ख़ेमे के देशों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है। ये देश इन दिनो वायरस के हमले से त्रस्त है व स्वास्थ्य विपदा व भयंकर आर्थिक मंदी से गुज़र रहे हैं और चीन के इस अत्यंत ख़तरनाक हमले का ढंग से जवाब भी नहीं दे पा रहे हैं। चीन , रुस की परोक्ष सहायता से आर्थिक, सामरिक व कूटनीतिक सभी हथकंडों का इस्तेमाल करता हुआ दुनिया के देशी को अपने पक्ष में करता जा रहा है व हाल ही में उसने एशियन देशों व यूरोपियन यूनियन से भी बड़ी आर्थिक समझोते किए हैं। रुस भी लगातार टाल ठोंक रहा है व अमेरिकी वर्चस्व को चुनोती दे रहा है। तुर्की के नेतृत्व में इस्लामिक देशों का एक गुट उसके साथ आ खड़ा हुआ है व भारत को भी वह आयात बढ़ाकर ठंडा रखने की कोशिश कर रहा है। इससे अमेरिकी वर्चस्व वाले इस्लामिक जगत में दो फाड़ हो गयी है व यह साउदी अरब व तुर्की ख़ेमों में बंट गया है।
नाटो देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों( फ़ॉर्चयून 500 कंपनियों ) में अब चीन की भी बड़ी हिस्सेदारी है व ये कंपनियाँ भी चीन के हितों के अनुरूप अपनी नीतियाँ ब रणनीति बना रही हैं। यह नाटो देशों के लिए बड़ी चुनोती है। भारत के बहुत से राजनीतिक दलों , एनजीओ, दबाव समूहों, मीडिया व व्यवस्था से जुड़े लोगों से चीन के अच्छे संबंध है व भारत की मोदी सरकार को दबाव में लेने के लिए वह इनका बड़ी चतुराई से इस्तेमाल कर रहा है। भारत में चल रहा किसान आंदोलन व सीमाओं पर चीन के साथ चीन के पिट्ठू पाकिस्तान से तनाव इसी रणनीति का हिस्सा है। अपने कूटनीतिक हितों की पूर्ति के लिए चीन भारत की सरकार को अपने पक्ष में करना चाहता है इसलिए आंदोलन, अराजकता व ग्रहयुद्ध के माध्यम से तख्तापलट या मोदी सरकार को दबाव के माध्यम से अपनी शर्तें मानने पर मजबूर करने की कोशिश कर रहा है। भारत की मोदी सरकार के अमेरिका से अच्छे संबंध चीन को रास नहीं आ रहे इस कारण इस संक्रमण काल में जबकि ट्रम्प ओपचारिक राष्ट्रपति है व बाइडन ने सत्ता नहीं सम्भालीं है, भारत में आंदोलन की तीव्रता लगातार बढ़ाई जा रही है। ऐसे में जबकि विश्व व्यवस्था बड़े बदलाव के दौर से गुज़र रही है व नए शक्ति समीकरण बन रहे हैं. चीन के साथ साथ रुस, फ़्रांस व इंग्लेड यहाँ तक कि भारत भी अपनी धमक व शक्ति दुनिया में की कोशिश में है और अपने अपने पक्ष में दुनिया के बाक़ी राष्ट्रों को करने के लिए उथल पुथल मचाए हुए हैं।दुनिया के सभी देशों में कोरोना महामारी के कारण आयी मंदी, बेरोज़गारी, भुखमरी, अराजकता व लगातार हो रही मोतों से जनता में नाराज़गी व ग़ुस्सा है और विपक्षी दल अपने अपने समर्थक देशों की परोक्ष सहायता से आंदोलन कर किसी भी तरह सत्तारूढ़ सरकार को गिराकर सत्ता हथियाना चाहते हैं। लोकप्रिय व लगातार विभिन्न चुनाव जीत रही मोदी सरकार इस संक्रमण काल को बहुत धेर्य से गुज़ार रही व ख़ारिज विपक्ष के समर्थन वाले आंदोलनकारियो जिनमे अनेक राष्ट्र्विरोधी तत्व भी शामिल है ,की बदतमीज़ी को बर्दाश्त कर रही है। विश्लेषकों का मानना है कि बाइडन सरकार की दक्षिण एशिया नीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं होगा व उसके मोदी सरकार से संबंध ट्रम्प सरकार जितने ही मक़बूत रहेंगे। चीन से लड़ने के लिए अमेरिका को अपने साथी भारत की बहुत आवश्यकता है , इसलिए वह भारत में आंतरिक शांति चाहेगा । ऐसे में बाइडन के सत्ता ग्रहण करते ही भारत के विपक्षी दलों को अपना आंदोलन व विरोध थामना पड़ेगा।ऐसे में देश को इस आंदोलन का दंश जनवरी के अंत तक झेलना पड़ सकता है। अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति इस समय जो निर्णय ले रहे हैं वे रिपब्लिकन ख़ेमे की नीतियो के अनुरूप है व डेमोक्रेट की राह में काँटे बोने जैसे है । दोनो ही दल अपने समर्थक देशी में अपने अपने दलों से जुड़े राजनीतिक दलों की सरकार बनाने की कोशिश भी कर रहे हैं। अमेरिका में चल रही इस लड़ाई के कारण भारत सहित दुनिया में गहरी असमंजसता पैदा हो गयी है। आने वाले समय में अमेरिका बाइडन की नीतियो से चलने वाला है और दुनिया के कूटनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल जाएँगे। बाईडन की मध्य एशिया की नीति ट्रम्प की नीति की उलट होनी तय है जिससे तेल के दाम रसातल में जाने निश्चित हैं यह नीति बड़ा भूचाल लाने वाली है। तब अमेरिका, चीन व रुस की रस्साकशी एक नया रूप लेगी। निश्चित रूप से उसमें कोई शांति व सहयोग की सम्भावनाएँ नहीं बनने वाली ,हाँ संघर्ष के मुद्दे व युद्ध के मैदान ज़रूर तय हो जाएँगे। ऐसे में तीसरा विश्वयुद्ध जो अभी परदे के पीछे खेला जा रहा है आमने – सामने खेला जाने लगेगा।भारत व मोदी सरकार इस खेल में कितना देश को बचा पाते है व कितने कूटनीतिक हित साध पाते हैं या भविष्य के गर्भ में हैं। हाँ मोदी सरकार के ट्रेक रिकार्ड को देखते हुए देश की जनता उन पर दाँव ज़रूर लगा सकती है।
अनुज अग्रवाल,संपादक

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