कैसे काशी विश्वनाथ मंदिर हो गया ज्ञानवापी मस्जिद
आर.के. सिन्हा
काशी में ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में मस्जिद के वजूखाने में शिवलिंग मिलने के दावे हो रहे है। इसकी सच्चाई का भी पता चल ही जाएगा पर इस तथ्य से कौन इंकार कर सकता है कि काशी में मुस्लिम शासकों ने सैकड़ों मंदिरों को तोड़ा। ज्ञानवापी मस्जिद तो काशी विश्वनाथ मंदिर के स्थान पर निर्मित है, जिसका निर्माण औरंगजेब ने कराया था। औरंगजेब ने 9 अप्रैल, 1669 को इस मंदिर सहित बनारस के तमाम मंदिर तोड़ने का आदेश जारी किया था। इस आदेश की कॉपी एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में सुरक्षित है। मस्जिद का मूल नाम है ‘अंजुमन इंतहाजामिया जामा मस्जिद’।
मोहम्मद गोरी के सिपहसालार कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर औरंगजेब तक काशी के मंदिरों को ध्वस्त करने से बाज नहीं आए। अविमुक्तेश्वर को काशी में शिव द्वारा स्थापित आदिलिंग माना गया है। उनमें एक का स्थान ज्ञानवापी मस्जिद के पीछे तीन मुस्लिम कब्रों की बीच बताया जाता है, जिनके दर्शन वर्ष में सिर्फ एक बार-शिवरात्रि पर किए जा सकते हैं। शिव के त्रिशूल-जिसपर काशी बसी बताई जाती है-के सबसे ऊंचे बीच वाले फल का यह हिस्सा चौक है, जिसपर यह मंदिर मौजूद था। इस जगह पहुंचकर नीचे झांकिए-यह जगह दो मंजिल से कम गहरी नहीं है। यही है 1194 ईसवी में तोड़े जाने से पहले का विश्वेश्वर मंदिर। रजिया मस्जिद जिसे तोड़कर संभवतः उसी की सामग्री से बना।
काशी के इतिहासकार विमल मिश्र ने अपनी गहन शोध के बाद लिखी किताब ‘नमामि काशी (काशी विश्वकोश)’ में दावा किया है कि
1194 ईसवी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने विश्वेश्वर सहित काशी के तमाम मंदिर ध्वस्त कर दिए थे। संभवतः दिल्ली की सुल्तान रजिया ने इस स्थान पर जो मस्जिद बनवाई, आज रजिया की मस्जिद के नाम से जानी जाती है। आपको दिल्ली-6 में तुर्कमान गेट से कुछ ही दूर पर मिलेगी रज़िया सुल्तान की कब्र। उसने 1236- 1240 के बीच दिल्ली पर राज किया था। वो दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश के प्रमुख शासक इल्तुमिश की पुत्री थी। इस बीच, 14वीं सदी में शर्की सुल्तानों की फौजों ने भी पहली बार विश्वनाथ मंदिर तुड़वा दिया था।
विश्वनाथ मंदिर 2 सितंबर, 1669 को काशी के बाकी मंदिरों के साथ औरंगजेब के हाथों एक बार फिर ध्वस्त हुआ। क्रुद्ध काशीवासी 10 दिनों तक मुगल सेना से लोहा लेते रहे थे। औरंगजेब के सेनापति तोप ले आए और मंदिर को ढहा दिया। औरंगजेब ने इस जगह ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई, जिसके पश्चिम की दीवारों में आज भी प्राचीन मंदिर के विगत वैभव के चिह्न देखे जा सकते हैं।
इस बीच, 18वीं सदी के दौरान काशी को अपने नियंत्रण में लेने के इच्छुक मराठा शासक महादजी सिंधिया, रीवा व मेवाड़ के राजाओं और पेशवाओं के दीवान फणनवीस, आदि ने बहुतेरी कोशिशें कीं कि ज्ञानवापी मस्जिद की जगह वाजिब मुआवजा मुसलमानों को देकर वे वहां विश्वनाथ मंदिर दोबारा बनवा दें, पर खुद काशी के पंचद्रविड़ ब्राह्मण भी 1742 ईसवी में मराठा सरदार मल्हारराव के ज्ञानवापी मस्जिद तोड़ कर उस जगह विश्वेश्वर मंदिर बनवाने के प्रस्ताव के पक्ष में खड़े नहीं हुए। विमल मिश्र ने यह भी दावा किया है अपनी किताब नमामि काशी (काशी विश्वकोश) में। इसके साथ ही, आए दिन के अत्याचारों से भयभीत काशी की जनता ने भी मंदिर के निर्माण में खुलकर साथ देने से इनकार कर दिया। इस तरह मंदिर का निर्माण जब 120 वर्ष तक आगे नहीं बढ़ पाया, तब यह बीड़ा उठाया इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर ने।
पर मंदिर निर्माण के लिए भूमि खरीद लेने और अवध के नवाब से मंदिर निर्माण की अनुमति प्राप्त कर लेने के बावजूद इस कार्य में व्यवधान आते रहे।
बहरहाल, काशी विश्वनाथ धाम के दौरान पुराने मकानों के ध्वस्तीकरण अभियान में तोड़े गए कई मकानों के भीतर मंदिर छिपे मिले। जहां इस बात को मानने के ठोस प्रमाण हैं कि मुस्लिम आक्रांताओं की नजरों से बचाने के लिए धर्मप्राण नागरिकों ने इन मंदिरों को अपनी चहारदीवारी में घेरा होगा।
यहां इस तथ्य का उल्लेख करना समीचिन होगा कि 1022 ईसवी में महमूद गजनवी के भांजे सैयद सालार मसूद गाजी और उनके सिपहसालार मलिक अफजल अल्वी के नेतृत्व में पहला मुस्लिम काफिला बनारस आया था। यहां मुस्लिम बसाहट का सिलसिला बस, यहीं से शुरु माना जाता है। गाजी के इस काफिले में बहुत से ऐसे सिपाही थे, जो तत्कालीन हिंदू शासकों से पराजित होकर परिवारों के साथ यहीं बस गए। इनमें कुछ काशीराज के यहां काम करने लगे। कई मुस्लिम अधिकारियों ने आगे चलकर बनारस के शासकों, सूबेदारों, फौजदारों या दूसरे प्रमुख पदों की जिम्मेदारी संभाली। बनारस के खास इलाके आज तक उनकी याद दिलाते हैं। गाजी का काफिला पहले जिस मोहल्ले में पहुंचा, उसे ‘सालारपुरा’ और अल्वी के नाम पर ‘अलईपुरा’ या ‘अल्वीपुरा’ के नाम से जाना जाता है। अलईपुर के भीतर के तमाम मोहल्ले खुद भी किसी न किसी मुस्लिम शासक के नाम पर ही बने हैं। बनारस में इस्लाम सभ्यता की शुरुआत से जुड़ा तीसरा मोहल्ला है मदनपुरा।
पिछले कुछ समय पहले कुतुब मीनार भी खबरों में था। मशहूर पुरातत्वविद केके मुहम्मद कहते हैं कि कुतुब मीनार कैंपस में बनी कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद 27 मंदिरों को तोड़कर बनी थी। यह सच है। इसे दिल्ली की पहली मस्जिद माना जाता है। बेशक, कुतुब मीनार परिसर में हिन्दू मंदिरों के चिह्न मिलते हैं और इन्हें छुपाने की या ढकने की कोई कोशिश भी नहीं की गई है। परिसर में ही क़ुव्वतुल इस्लाम मस्जिद के बीचो-बीच चंद्रगुप्त का लौह स्तंभ खड़ा है जिस पर प्रसिद्ध महरौली प्रशस्ति गुप्त कालीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है। मस्जिद के खंभों पर अनेक देवी देवता यक्ष यक्षिणियाँ उत्कीर्ण हैं।
एक बात तो सबको समझ ही लेना चाहिए कि सेक्युलर बिग्रेड कितने ही पिलपिले दावे करे कि औरंगजेब बहुत दयालु था पर सच्चाई यह है कि उसने और कई अन्य मुस्लिम शासकों ने काशी और देश के विभिन्न भागों में मंदिरों को क्रूरतापूर्वक निशाना बनाया।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)