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खोखले राष्ट्रवादी ट्रम्प और चीन की कठपुतली बाईडेन

बीमारों व लाशों के बढ़ते ढेर के बीच कोरोना महामारी और नरसंहार को लेकर जनता के आक्रोश के बीच राजनीतिक आरोप , चर्चा और विवाद बढ़ गए हैं। कोरोना का क़हर बिना स्त्री, पुरुष, बच्चे, युवा, वृद्ध, जाति, धर्म, अमीर, गरीब, पूँजीवादी या वामपंथी भेदभाव के समान भाव से सभी पर क़हर ढा रहा है। पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प के चीन व बाईडेन की मिलीभगत से कोरोना वायरस लैब में बनाने और दुनिया में फैलाने के आरोपों के बीच राष्ट्रपति बाईडेन ने तीन महीनो के अंदर इन आरोपों की जाँच के आदेश दे दिए हैं। सच तो यह है कि जिस प्रकार दशकों से अमेरिका चीन जुगलबंदी से वायरस पैदा करने और फैलाने के क्रूर धंधे में लगे हुए हैं उसने अमेरिका के दोनो ही राजनीतिक दल रिपब्लिकन व डेमोक्रेट की संलिप्तता है और अमेरिका सरकार की नीतियो के तहत ही चीन के कंधे पर बंदूक़ रखकर देश और दुनिया में मेडिकल माफिया को बढ़ावा दिया गया है । 

कूटनीति विशेषज्ञ व अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकर ब्रह्मा चेलानी के अनुसार 

_ चीन से निकली जानलेवा बीमारियों ने बार बार दुनिया को अपनी जद में लिया , मगर कोई भी चीन का कुछ भी नहीं बिगाड़ पा रहा ।महामारी की जड़ की पड़ताल और भी कई कारणों से महत्वपूर्ण है। दरअसल यह चीन से निकली पहली जानलेवा बीमारी नहीं, जिसने दुनिया को अपनी जद में लिया। इससे पहले भी 1957 के एशियन फ्लू, 1968 के हांगकांग फ्लू और 1977 के रशियन फ्लू जैसी इनफ्लुएंजा महामारियों की शुरुआत चीन से ही हुई थी।पांच करोड़ लोगों की जान लेने वाला 1918 का स्पेनिश फ्लू भी चीन में ही पनपा था। नए शोध के अनुसार करीब पांच करोड़ लोगों की जान लेने वाला 1918 का स्पेनिश फ्लू भी चीन में ही पनपा था और वहीं से ही दुनिया भर में फैला। कोविड भी चीन से निकली पहली कोरोना वायरस जनित आपदा नहीं है और न ही चीन पहली बार तथ्यों पर पर्दा डालने का काम कर रहा है।21वीं सदी की पहली महामारी सार्स के मामले में भी चीन तथ्यों पर डाल चुका पर्दा 2002-03 में 21वीं सदी की पहली महामारी सार्स के मामले में भी वह ऐसा कर चुका है। –

वास्तव में चीन की इसी क़ाबिलियत को समझकर अमेरिकी सरकार व फ़ार्मा कंपनियों ने कई दशक पूर्व से ही चीन के साथ गुप्त साझेदारी की। अगर ऐसा नहीं है तो सवाल यह है कि आखिर अमेरिकी एजेंसियों ने चीनी सेना से जुड़ी वुहान की लैब को धनराशि क्यों दी? क्यों चालीस साल से अमेरिका के स्वास्थ्य सलाहकार बने हुए ऐन्थॉनी फ़ाऊची और अमेरिका के प्रमुख फ़ार्मा व वेक्सीन निर्माता कंपनियों के दलाल बिल गेट्स  कोरोना काल में भी चीन के प्रमुख वायरोलोजिस्ट से गहन संपर्क में थे। इन सम्पर्कों के लगभग आठ सौ पन्नो के मेल वाशिंगटन पोस्ट अख़बार ने जारी किए हैं।  डेमोक्रेटिक जो बाईडेन और चीन की सरकार पर मिलीभगत कर लेब में कृत्रिम वायरस तैयार करने व पूरी दुनिया में फैलाने का आरोप लगाने वाले पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति चीन से दस ट्रिलियन डॉलर मुआवज़े की माँग तो कर रहे हैं किंतु उनकी भूमिका भी ख़ासी संदिग्ध रही है। चीनी कंपनियों पर सतही प्रतिबंध लगाने और डबल्यूएचओ से अमेरिका को हटाने के बड़े कदम तो उन्होंने राष्ट्रपति रहते उठाय किंतु अपने ही स्वास्थ्य सलाहकार , बिल गेट्स व अमेरिकी फ़ार्मा कंपनियों के विरुद्ध उन्होंने  कभी मुँह नहीं खोला और ये सब चीन, फ़्रांस, यूके, जर्मनी व अन्य जी -20 देशोंआदि की फ़ार्मा कंपनियों के साथ मिलकर कोरोना महाआपदा को भुनाते रहे और दुनिया में लाशों के ढेर लगते रहे ।अपने ही नागरिकों की लाशों के ढेर पर राजनीति और व्यापार करता यह नया अमेरिका है । सच्चाई यह है कि ट्रम्प अमेरिका के सबसे कमजोर व व्यापारिक कुटिल बुद्धि वाले राष्ट्रपति थे जो झूठे व खोखले राष्ट्रवाद के सहारे राष्ट्रपति बने थे। उससे भी दुःखद यह है कि अमेरिका अब क्रूर व आत्मघाती वामपंथियों के प्रतिनिधि और चीन की कठपुतली जो बाईडेन के क़ब्ज़े में है। ट्राम हों या बाईंडेन इनके कार्यकाल में  यूएन में एक भी प्रस्ताव चीन के ख़िलाफ़ नहीं पेश किया गया और तो और दुनिया के किसी भी बड़े राष्ट्र ने भी ऐसा नहीं किया । आख़िर क्यों?  क्यों दुनिया के सभी देशों की सरकारें डबल्यूएचओ के कोरोना संबंधी प्रोटोकोल को आँख मूँदकर लागू करती रहीं और अपने अपने देशों में बीमारों व लाशों के ढेर लगाती रहीं। जबकि उनमे से अधिकांश बेसिरपैर के व उल्टे सीधे थे और उनको बार बार ग़लत कहकर डबल्यूएचओ वापस लेता गया है। यधपि सब जानते थे कि कोरोना एक जैविक हथियार है कोई बीमारी नहीं इसलिए मेडिकल साइंस के पास इसका इलाज नहीं है किंतु धनलोलुप फ़ार्मा कंपनियों ने डबल्यूएचओ को बंधक बनाकर पूरी दुनिया में वहाँ की सरकारों के साथ मिलकर उनके हेल्थ व मेडिकल साइंड के नेटवर्क को इस्तेमाल किया और उसकी विश्वसनीयता ही गड्ढे में डाल दी। यह चीन व अमेरिका के साथ दुनिया के बड़े देशों की मिलीभगत नहीं तो और क्या है जिंसें विवशता का नाम दिया जा रहा है?

-अनुज अग्रवाल, संपादक

डायलॉग इंडिया 

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