भारत और अमेरिका की घनिष्टता आजकल इसलिए नहीं बढ़ रही है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जब भी मिलते हैं, तो एक-दूसरे की झप्पी लेते हैं या दोनों को एक-दूसरे का स्वभाव बहुत पसंद है या दोनों ने अपने-अपने देशों में एक-दूसरे का भव्य स्वागत किया है। वह इसलिए बढ़ रही है कि भारत और अमेरिका, दोनों के लिए चीन एक चुनौती बन गया है।
गलवान घाटी में हमारे 20 सैनिकों के हत्या करने के बावजूद चीन के राष्ट्रपति शी चिन फिंग ने अपने परम मित्र मोदी को एक बार भी फोन तक नहीं किया। अफसोस तक जाहिर नहीं किया। मान लिया कि वह तात्कालिक दुर्घटना थी। वह कोई जान-बूझकर किया गया षड़यंत्र नहीं था लेकिन उस हत्याकांड ने सारे भारत को व्यथित कर दिया और हमारे प्रधानमंत्री मोदी को भयंकर दुविधा में फंसा दिया लेकिन चीन के नेता चुप्पी साधे रहे और हमारे नेता अपने घावों को छिपाते रहे। सारी दुनिया में सिर्फ अमेरिका का ट्रंप प्रशासन ही ऐसा था, जिसने खुलकर भारत का साथ दिया। ट्रंप और उनके विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने खुलकर चीन की निंदा की। अमेरिकी कांग्रेस (संसद) में चीन को चेतावनी देते हुए एक प्रस्ताव भी पारित हुआ। भारत के पड़ौसी देशों में से भारत के पक्ष में किसी ने अपना मुंह तक नहीं खोला।
यदि आप भारत-अमेरिका संबंधों के इतिहास पर नजर डालें तो अमेरिका का भारत के प्रति ऐसा प्रेमासक्त व्यवहार पहले कभी नहीं देखा गया। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय भी नहीं। अमेरिकी राष्ट्रपति जाॅन केनेडी ने जवाहरलाल नेहरु को सहयोग के कुछ संकेत जरुर दिए थे लेकिन ट्रंप प्रशासन तो यहां तक चला गया कि अपनी नाटो फौजों को वह यूरोप से हटाने के बाद दक्षिण चीनी समुद्र और हिमालय क्षेत्र में तैनात करने के भी संकेत दे रहा है।
भारत के प्रति अमेरिका की यह आसक्ति क्यों पैदा हुई है ? इसका कारण भारत का लोकतांत्रिक होना या मोदी के प्रति ट्रंप का दीवाना होना या भारत से अमेरिका को कोई जबर्दस्त लाभ होना आदि नहीं है। इसका मूल कारण है- अमेरिका की प्रगाढ़ इच्छा कि चीन को सबक सिखाया जाए।
जिस चीन को ओबामा-प्रशासन एशिया का नेता घोषित करने पर आमादा था और चीन-अमेरिका संबंधों को प्रगाढ़ बनाने के लिए हेनरी कीसिंजर से भी आगे जाने को तैयार था, उसी चीन को अमेरिका विश्व-बिरादरी से जात-बाहर करने पर तुला हुआ है। उसने ह्यूस्टन के चीनी वाणिज्य दूतावास को बंद कर दिया है तथा अन्य दूतावासों को भी बंद करने की धमकी दी है। उसने चीन के साथ चल रहे अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा दिए हैं। अमेरिकी बाजारों पर छाए हुए चीनी माल का बहिष्कार किया जा रहा है। जिन अमेरिकी कंपनियों ने चीन में अपनी अरबों-खरबों की पूंजी लगा रखी है, उन्हें वहां से बाहर निकलने के लिए कहा जा रहा है।
कोरोना के विश्व-व्यापी संकट ने ट्रंप के हाथों में एक नया हथियार पकड़ा दिया है। वे सारी दुनिया में कोरोना की महामारी फैलाने के लिए चीन को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उसे वुहान वायरस कह रहे हैं। चीन के साथ-साथ उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी लपेट लिया है। चीन के विरुद्ध उन्होंने यूरोपीय देशों को भी लामबंद कर लिया है। वे चीन से हर्जाना मांग रहे हैं। वे चीन को विश्व-अछूत बनाना चाहते हैं। चीन के विरुद्ध जो भी राष्ट्र आवाज उठा रहा है, ट्रंप प्रशासन उसकी पीठ ठोकता है।
ताइवान के सवाल पर अमेरिका चीन को पहले से सुई चुभोता रहा है लेकिन हांगकांग के मुद्दे पर अमेरिका ने चीन-विरोधी मोर्चा खोल दिया है। उसने और ब्रिटेन-जैसे राष्ट्रों ने चीन को खुली चुनौती दे डाली है। हांगकांग को लेकर चीन ने 50 वर्षीय समझौते का जो उल्लंघन किया है, उसके प्रतिक्रियास्वरुप अमेरिका और ब्रिटेन ने हांगकांग को दी जा रही सारी रियायतें रद्द कर दी हैं। दक्षिण चीनी सागर के विवादों को अमेरिका खुलकर हवा दे रहा है। वह चीन के तटवर्ती राष्ट्रों और उसके पड़ौसियों के दावों का जमकर समर्थन कर रहा है।
चीन के इस सामरिक, आर्थिक और कूटनीतिक घेराव में भारत की भूमिका को अमेरिका सर्वाधिक महत्व दे रहा है। इसीलिए सुदूर पूर्व के क्षेत्र को अब भारत-प्रशांत (इंडो-पेसिफिक) क्षेत्र कहना शुरु कर दिया है। हिंद महासागर में उसने अपनी सामरिक उपस्थिति को प्रचारित करना प्रांरभ कर दिया है। उसका नौसैनिक जहाज ‘निमिट्ज’ आजकल अंडमान-निकोबार के पास भारतीय जल-सेना के साथ सैन्य अभ्यास भी कर रहा है। इस क्षेत्र के मलक्का जलडमरुमध्य से चीन का लगभग 1 करोड़ बेरल तेल रोज गुजरता है।
जहां तक ट्रंप का सवाल है, जरा हम यह देखें कि कोरोना-संकट और चीन-अमेरिका तनाव के पहले भारत के प्रति ट्रंप का रवैया क्या रहा है ? ट्रंप प्रशासन ने भारत को जो रियायतें व्यापार में दी जा रही थीं, उनमें बेलगाम कटौती की। अपने तेल और हथियार बेचने में मुस्तैदी दिखाई। भारतीयों को नागरिकता और वीज़ा देने में अड़ंगे लगाए। अमेरिका में पढ़ रहे भारतीय छात्रों के वीज़ा खत्म किए ताकि वे वापस लौट जाएं और अमेरिकी मतदाताओं पर यह प्रभाव पड़े कि ट्रंप को उनके रोजगार की कितनी परवाह है। यह कदम इसलिए वापस लिया गया कि अमेरिकी शिक्षा-संस्थाओं को अरबों डाॅलर का नुकसान हो रहा था।
ट्रंप प्रशासन ने पाकिस्तान के उसी आतंकवाद के खिलाफ दबाव बनाया, जो अफगानिस्तान को तंग कर रहा था। उसको नहीं, जो भारत को तंग कर रहा है। ट्रंप ने ईरान के खिलाफ जो सनकी मोर्चा खोला तो उन्होंने भारत को हुए नुकसान पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया। इसीलिए ट्रंप के बहकावे में फंसकर भारत के द्वारा चीन के विरुद्ध कोई मोर्चाबंदी करना उचित नहीं है। चीन से भारत प्रतिस्पर्धा करे, दुश्मनी नहीं। अतिक्रमणों का मुकाबला करे, युद्ध नहीं। सहयोग जारी रखे लेकिन सावधान रहे।
इस समय भारत के प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री और व्यापार मंत्री का अपने अमेरिकी समकक्षों के साथ जैसा सीधा और सघन संवाद चल रहा है, वैसा किसी देश के साथ मैंने कभी चलते हुए नहीं देखा। इसके पीछे अमेरिका का एक ही लक्ष्य है कि यदि चीन के विरुद्ध उसे कोई विश्व-मोर्चा खोलना पड़े तो भारत उसका सिपाहसालार बन जाए। मोदी सरकार को फौरी तौर पर यह अच्छा भी लग सकता है लेकिन वह यह न भूले कि वह कहीं अमेरिका का मोहरा न बन जाए। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कोई किसी का शाश्वत मित्र या शत्रु नहीं होता। यदि कोई शाश्वत होता है तो वह राष्ट्रहित होता है। अमेरिका की इस चीन—घृणा का फायदा भारत जरुर उठाए लेकिन यह जानते हुए कि ज्यों ही अमेरिकी स्वार्थ पूरे हुए कि वह भारत को भूल जाएगा और फिर ट्रंप का कुछ पता नहीं कि वे दुबारा राष्ट्रपति बनेंगे भी या नहीं ?
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक