Shadow

चुनौती चौतरफा

मा विवाद, सीमा पर गोलीबारी, आतंकियों की घुसपैठ, रोज आतंकी हमले पाकिस्तान की आदत में शुमार हो गया है। रक्षा विशेषज्ञ ओर कुटनीति के जानकारों के अनुसार कश्मीर में चीन पीछे से पाकिस्तान को शह दे रहा है उधर सिक्किम, बंगाल और उत्तर पूर्व में में चीन खुलकर ही सामने आ गया है।
चीन द्वारा भारत का खुला विरोध अपने आप में एक बड़ी घटना है। मोदी सरकार द्वारा खुलकर अमेरिका और नाटो देशों के खेमे में आ जाना चीन को अखर रहा है। अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी सेना वापसी के बाद से दक्षिण एशिया में बड़ी भूमिका की तलाश में है। पाकिस्तान को मिल रही अमेरिकी आर्थिक मदद भी उत्तरोत्तर कम होती जा रही है ओर वो चीन की गोदी में पूरी तरह जा बैठा है। चीन 61 देशो के साथ मिलकर सिल्क रूट बनाने जा रहा है और भारत को चारों ओर से घेर रहा है। दक्षिण चीन सागर पर कब्जे की उसकी कोशिश ओर आक्रामकता से पूरा विश्व सकते में है। चीन सोवियत संघ के विघटन के बाद उभरे शक्ति असन्तुलन अर्थात अमेरिका वर्चस्व को समाप्त कर पुन: दो ध्रुवीय विश्व के निर्माण की कोशिश कर रहा है। उसे लग रहा है कि अपने निर्यातोन्मुखी बाज़ार, प्रचुर संसाधन, विदेशी मुद्रा और आधुनिक सैन्य क्षमता से वह इस शक्ति शून्यता को भर लेगा। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत की आत्मनिर्भर ओर शसक्त होने की नीतियों से चीन को झटका लगा है। यूपीए के समय चीन ने भारत के बाज़ार पर कब्जा कर यहाँ के उद्योग धंधों ओर शिक्षा व्यवस्था को चौपट कर दिया था। मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों और विदेश नीतियों से निकट भविष्य में भारत से चीन का व्यापार उत्तरोत्तर कम होता जाएगा। अमेरिका और नाटो देश भी चीन की बढ़त रोकने के लिए भारत पर बड़ा दांव लगा चुके हैं। ऐसे में चीन की हरकतें एक दबाब की कूटनीति का हिस्सा हैं ताकि भारत दबाब में आ जाए और मोदी सरकार अस्थिर व बदनाम हो सके। भारत में जी एस टी लागू ही गया है और आर्थिक अराजकता खत्म होती जा रही है, देश विज्ञान, तकनीक, अंतरिक्ष विज्ञान, दूरसंचार और शिक्षा – अनुसंधान के क्षेत्र में बड़ी ताकत बनता जा रहा है। हमारी सेनाएं आधुनिकीकरण के नए दौर में है, ऐसे में चीन हमसे प्रत्यक्ष युद्ध तो नही ही करेगा किंतु परेशान अवश्य करता रहेगा। विश्व गुरु बनने का ख्बाब पाली मोदी सरकार की अपने आप मे यह बड़ी उपलब्धि है कि पश्चमी देश और अमेरिका उसे हाथोंहाथ ले रहे हैं और भारत चीन से आंख से आंख मिलाकर बात कर रहा है। अभी हो सकता है यह नाटो देशो के सहयोग के कारण हो मगर निकट भविष्य में हमअपने दम पर चीन से बराबरी कर सके और अमेरिका से भी आंख में आंख मिलाकर बात कर कर सके इसकी कोशिश हम प्रत्येक देशवासी को करनी होगी।

चीनी सिल्क रोड नहीं, भारतीय उत्तरापथ
साम्राज्यवादी ओबोर बनाम सहकारवादी ओसोर
द्य रवि शंकर

से-जैसे विश्व में यूरो-अमेरिकी ताकतों का वर्चस्व घटता जा रहा है, विश्व आर्थिक और राजनीतिक पटल पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए भारत और चीन में प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है। चीन तो इस स्पर्धा में भारत के स्वाधीन होने के साथ ही जुटा हुआ है, परंतु दुर्भाग्यवश भारत की सरकारें अभी तक इस ओर या तो आँखें मूंदी प्रतीत होती हैं या फिर उनमें एक सही समझ और रणनीति का अभाव स्पष्ट दिखता है। उदाहरण के लिए मध्य एशिया को लेकर अभी तक भारत सरकार की नीति और समझ दोनों ही स्पष्ट नहीं रही है, जबकि चीन ने ओबोर यानी कि वन बेल्ट वन रोड की बात कह कर रणनीतिक बढ़त ले ली है। परंतु यदि भारत इस पर सही रणनीति अपनाए तो उसका यह दाँव उलटा पड़ सकता है। चीन जिस वन रोड यानी कि सिल्क रोड की बात कह रहा है, वही उसकी रणनीति का सबसे कमजोर हिस्सा है।
सबसे पहली बात यह समझने की है कि सिल्क रोड नामक कोई रोड है ही नहीं। यह कोई एक सड़क नहीं थी, यह एक मार्ग था। इसमें कई सारी सड़कें थीं। यह कोई एक सड़क पर लगने वाला एक बाजार नहीं था या फिर किसी एक बाजार से होकर गुजरने वाली एक सड़क नहीं थी। यह एक पूरा इलाका था जिसमें छोटे-छोटे ढेर सारे बाजार थे और ढेर सारी सड़कें थीं। यह मार्ग चीन और रोम के बीच के व्यापार का मार्ग भर नहीं था, जैसा कि आज इसे दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। इसके विपरीत यह मार्ग विश्व के एक बड़े इलाके को आपस में जोड़ता था जिसमें चीन और रोम के अलावा भारत और कई देश आते थे। इसका कोई प्रारंभ बिंदु नहीं था जैसा कि आज चीन को इसका प्रारंभ बिंदु माना जाता है। इसका कोई अंतिम स्थल भी नहीं था जैसा कि आज रोम को इसका अंतिम स्थल बता दिया जाता है। इस कथित सिल्क रूट की एक और विशेषता थी और यह विशेषता थी उसका एक खास संस्कृति का अनुगामी होना। यह संस्कृति थी भारत की। वास्तव में यह पूरा इलाका भारतीय संस्कृति के आदर्शों को मानने वाला था।
इसलिए ओबोर यानी कि वन बेल्ट, वन रोड का चीनी नारा और मंच दोनों ही झूठे और आधारहीन हैं। इसका सही नारा होना चाहिए ओसोर यानी कि वन कल्चर, वन रिजियन का। यह नारा भारत को देना चाहिए। ओबोर का चीनी नारा स्वभावत: साम्राज्यवादी, शोषणकारी तथा पूंजीवादी प्रतीत होता है, जबकि ओसोर का भारतीय नारा मानवीय, शांतिकारक और सद्भाव तथा संवाद पैदा करने वाला होगा। इस बात को समझना हो तो हमें सिल्क रोड की वास्तविकता, इतिहास और भूगोल को समझना होगा। जिसे हम सिल्क रोड आज कह रहे हैं, उस पूरे इलाके की संस्कृति, राजनीति और भौगोलिक स्थिति पर ध्यान देना होगा। इस पूरे इलाके में भारत और चीन के ऐतिहासिक प्रभावों का अध्ययन करना होगा। तभी हम समझ पाएंगे कि ओबोर का नारा साम्राज्यावादी है, ओसोर का नारा मानवतावादी।
सिल्क रोड या उत्तरापथ

सिल्क रोड यह नामकरण अभी हाल में उन्नीसवीं शताब्दी में वर्ष 1877 में एक जर्मन भूगोलवेत्ता फर्डिनेंड वॉन रिक्थोफेन ने किया। उसके बाद सिल्क रोड शब्द प्रयोग करने वाला दूसरा व्यक्ति भी एक जर्मन भूगोलवेत्ता था। ऑगस्ट हरमन नामक इस भूगोलवेत्ता ने वर्ष 1915 में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था द सिल्क रोड्स फ्रॉम चाइना टू द रोमन एंपायर। जेम्स ए मिलवार्ड अपनी पुस्तक द सिल्क रोड, ए वेरी शॉर्ट इंट्रोडक्शन में लिखते हैं, इसने एक और भ्रामक समझ को बढ़ावा दिया जो कि आज भी इसके साथ जुड़ी हुई है। इसके अनुसार इस मार्ग का महत्व केवल चीन और भूमध्यसागरीय घाटी यानी कि पूरब और पश्चिम को जोडऩे में है। परंतु केवल मार्ग के केवल दो छोरों पर ध्यान देने से कई बिन्दू गायब हो जाते हैं। सबसे पहले तो इस यूरेशीय अंतरदेशीय व्यापार में सिल्क यानी कि रेशम का इतना अधिक महत्व नहीं रहा है। वास्तव में इस मार्ग पर अनेक सामानों, जिसमें पालतू घोड़ों, सूती वस्त्र, कागज और बारूद महत्वपूर्ण हैं, और विचारों का आदान-प्रदान होता रहा है जिनका कि रेशम से कहीं अधिक व्यापक प्रभाव पड़ा। मिलवार्ड आगे बताते हैं कि हमें यह नहीं समझना चाहिए सिल्क रोड में केवल पूरब-पश्चिम का व्यापार शामिल था जो कि इस महाद्वीप के मध्य के मैदानी इलाकों में फैला था। ऐसा करके हम उन क्षेत्रों की उपेक्षा कर देंगे जिनमें प्रमुखत: उत्तरी भारत और आज का पाकिस्तान आते हैं और जो न केवल इस व्यापार का मुख्य केंद्र थे, बल्कि जिसका सूती वस्त्रों तथा बौद्ध विचारों के रूप में सामानों तथा विचारों के यूरेशियन आदान-प्रदान में महत्वपूर्ण योगदान था।
प्रश्न उठता है कि क्या इससे पहले इस मार्ग का अस्तित्व नहीं था या फिर इस मार्ग का कोई नाम नहीं था? यदि हम अस्तित्व की बात करें तो इस मार्ग का अस्तित्व तो था। आखिर तभी तो रिक्थोफेन को इसका नामकरण करने की सूझी। तो क्या इस मार्ग का कोई नाम नहीं था? यूरोपीयों की बात करें तो संभव है कि उन्हें इसका नाम न पता हो, परंतु भारत की अगर हम बात करें तो भारत में इसका नाम था। यह नाम था उत्तरापथ। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत इस मार्ग का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी रहा है। चीन का तो इस पूरे व्यापार में बहुत ही छोटा सा हिस्सा हुआ करता था। मुख्य व्यापार भारत का था और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस इलाके में मुख्य राजनीतिक संरक्षण भी वर्षों तक भारत का ही रहा है। फिर रिक्थोफेन ने इसका नया नामकरण करने की आवश्यकता क्यों महसूस की होगी, वह भी ऐसा नाम जिससे इस मार्ग में चीन की प्रमुखता दिखने लगे? इसका एक कारण जो समझ में आता है कि विश्व सत्ता से च्यूत होने से आशंकित यूरोप को चीन की बजाय भारत से अधिक खतरा प्रतीत होता है और इसलिए वे चीन को उभारने और भारत को दबाने या फिर उसकी उपेक्षा करने के प्रयास कर रहे हैं। यह नामकरण भी उसी यूरोपीय रणनीति का एक हिस्सा है।
सिल्क रूट या रोड या फिर हिंदी में कहें तो रेशम मार्ग का नाम सुनने से लगता है कि इस मार्ग से प्रमुख व्यापार रेशम का होता रहा होगा। यह सही बात है कि रेशम का प्रारंभिक तथा प्रमुख उत्पादक चीन रहा है। भारत में भी रेशम चीन से ही आया है। चीन का वातावरण रेशम के उत्पादन के लिए सर्वाधिक अनुकूल है भी। आचार्य चाणक्य ने भी अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में चीन से रेशम का व्यापार करने की बात लिखी है। परंतु इस मार्ग पर होने वाले व्यापार में रेशम का हिस्सा कितना रहा होगा? इसका अनुमान हम इस बात से लगा सकते हैं कि रेशम का तत्कालीन और आज के जन-जीवन में भी कितनी भूमिका है? रेशम आज भी एक विलासिता की वस्तु ही है। सामान्यत: अमीर लोगों के प्रयोग का वस्त्र। साधारण और गरीब लोग रेशम को निहार तो सकते हैं, परंतु पहन नहीं सकते। प्राचीन काल में तो रेशम भारत के अलावा यूरोप सहित अन्य सभी इलाकों के लिए अत्यंत ही मंहगा वस्त्र था। मिश्र और रोम के छोटे से इलाके को अगर हम छोड़ दें तो मध्य एशिया, यूरोप और अफ्रीका के लोगों की हालत इतनी खराब थी कि उन्हें तो सूती वस्त्र भी प्राप्त नहीं थे। ऐसे में हम सोचें कि मात्रा और गुणवत्ता के हिसाब से रेशम व्यापार की सबसे प्रमुख वस्तु रही होगी तो हम मूर्ख ही कहे जाएंगे। इसलिए यह देखना आवश्यक है कि इस मार्ग से और किन किन वस्तुओं का व्यापार होता था।
इस मार्ग से होने वाले व्यापार की प्रमुख वस्तुएं थीं, सभी प्रकार के वस्त्र, जिसमें सूती वस्त्र बड़ी मात्रा में थे, मसाले, नील, शक्कर, चावल और घोड़े-गाय जैसे पशु आदि। यदि हम अलबिरूनी से लेकर प्लीनी द जूनियर तथा सीनियर तक के प्राचीन वर्णनों को पढ़ें, तो हमें ज्ञात होगा कि मिश्र और रोम के लिए भारत के सूती वस्त्र तथा मसाले ही बड़े आकर्षण का विषय थे। इन दोनों ही वस्तुओं की केवल मिश्र और रोम ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में बहुत मांग थी। प्लीनी से लेकर बर्नियर तक लिखते हैं कि भारतीय मसालों के कारण पूरी दुनिया का सोना और चाँदी भारत में आकर एकत्र हो जा रहे हैं। बर्नियर तो लिखता है कि भारत के पास व्यापार करने के लिए मसाले और वस्त्र हैं, परंतु ऐसा कुछ नहीं है जो वह बाहर वालों से ले। भारत के बाहर ऐसा कुछ होता ही नहीं है जिसका भारत में अभाव हो। ऐसे में भारत से व्यापार करने के लिए सोना और चाँदी ही एकमात्र विकल्प बचता है। हम इसे व्यावहारिक रूप में भी देख सकते हैं। भारत को सोने की चिडिय़ा कहा जाता रहा है, परंतु भारत में सोने का उत्पादन अधिक नहीं होता। फिर यह सोना आता कहाँ से था? यह सोना भारत में व्यापार के द्वारा दुनियाभर से आता था। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सभी यूरोपीय वर्णन दुनिया के धन के भारत में केंद्रित होने का वर्णन करते हैं, एक भी चीन में धन पहुँचने का वर्णन नहीं कर रहा है। इसके दो ही निहितार्थ हो सकते हैं। पहला यह कि विश्व व्यापार में चीन की वास्तव में कोई बड़ी भूमिका नहीं रही है। और दूसरा यह कि चीन को विश्व विशेषकर यूरोप उस समय भारत के भाग के रूप में ही देखता रहा हो। दोनों ही स्थितियों में भारत की स्थिति ही अधिक मजबूत कही जाएगी।
भारतीय व्यापारियों का एकाधिकार

एक बात यह भी कही जा सकती है कि भारत इस व्यापार में सामानों की आपूर्ति भले ही करता रहा हो, परंतु व्यापार पर तो चीन और अन्य देशों का ही कब्जा रहा होगा। परंतु यह बात भी सच नहीं है। अत्यंत प्रारंभिक काल से ही इस पूरे इलाके में भारतीय व्यापारियों के लंबे काफिलों का एकाधिकार रहा है। व्यापार के मामले में भारतीयों का न तो पहले कोई सानी रहा है और न ही आज है। उन्नीसवीं शताब्दी तक विश्व व्यापार में भारतीय व्यापारी प्रमुख भूमिका में रहे हैं। स्कॉट सी. लेवी की पुस्तक कारवाँ, पंजाबी खत्री मर्चेंट्स ऑन द सिल्क रोड, की भूमिका में गुरुचरण दास लिखते हैं, हिंदू व्यापारी मध्य एशियायी अर्थव्यवस्था के केंद्रबिंदू थे। वे रोपाई के मौसम में रोपाई के लिए किसानों को ऋण दिया करते थे, कटाई के मौसम में उनकी फसल खरीदा करते थे और उनके परिवहन की भी व्यवस्था करते थे। स्थानीय शासक उनकी इन सेवाओं का काफी सम्मान करते थे, जिनके कारण उनकी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ रहती थी और करों का संग्रह बढ़ता था। इसके बदले में शासक भारतीय व्यापारियों को अपने शिविरनुमा काफिले में शांति और सम्मान से रहने की सुविधा देते थे, जहाँ वे होली-दिवाली जैसे त्योहार मनाते थे। उनके साथ ब्राह्मण भी होते थे जो सारे कर्मकांड करवाते थे। इनकी केवल एक परंपरा से स्थानीय कठमुल्ले मुसलमानों को समस्या थी – मृतकों का अंतिम संस्कार करने की परंपरा। इसलिए बुखारा के अमीर ने श्मसान के पास सेना की एक टुकड़ी तैनात कर रखी थी, ताकि कोई उन्हें परेशान न कर पाए।
इसके आगे गुरुचरण दास लिखते हैं, बुखारा के उज्बेक खानों ने अपने प्रशासन में एक पद ही बना दिया था यसावुल ई हिंदुआन – हिंदुओं का रक्षक जिसका काम था हिंदू व्यापारियों के कल्याण की चिंता करना और बहुसंख्यक असहिष्णु मुसलमान समुदाय को दिए गए कर्ज की वसूली में उनकी सहायता करना। फारसी सफाविद साम्राज्य (1501-1722) ने भी समान रूप से हिंदू व्यापारियों और उनके काफिले की रक्षा की और मुस्लिम लोगों के बीच रहते हुए उन्हें अपने रीति-रिवाजों का पालन करने की छूट दी। समझने की बात यह है कि ऐसा केवल व्यापार के कारण नहीं होता था। मुस्लिम शासक केवल धन के लिए हिंदुओं को अपनी परंपराओं के पालन की छूट नहीं देते थे। उन पर अभी तक इस्लाम के कट्टरवादिता का प्रभाव अधिक नहीं हो पाया था और वे भारतीय उदात्त परंपरा के अनुसार ही व्यवहार कर रहे थे। जब शासकों पर भी इस्लामी कट्टरता का प्रभाव बढ़ा तो केवल ईरान के इस्फाहान में 25 हजार हिंदू व्यापारी मारे गए।
इस पूरे विवरण से कई बात साफ हो जाती है। पहली बात तो यह कि भारतीयों का इस व्यापार क्षेत्र पर लंबे समय तक कब्जा रहा है और वे भारतीय अधिकांशत: हिंदू ही थे। दूसरी बात यह कि वे अपने काफिले के साथ ब्राह्मणों को भी लेकर चलते थे और अपने त्यौहार आदि भी मनाते थे। इसका तात्पर्य हुआ कि वे केवल घुमंतु लोग नहीं थे। व्यापार के लिए वे घूमते भी थे, परंतु डेरा डाल कर भी रहते थे। इसका एक और प्रमाण श्मसानों का होना है। श्मसान होते थे ताकि लंबे समय रहने पर लोगों की मृत्यु भी होती थी और वे भारत वापस आने की बजाय वहीं उनका अंतिम संस्कार करते थे। श्मसानों की स्थाई व्यवस्था ही रही होगी, तभी वहाँ सेना की टुकड़ी रखी गई थी। यहाँ ध्यान देने की बात यह भी है कि बुखारा उज्बेकिस्तान में आता है, जो कि कभी भी चीन का हिस्सा नहीं रहा है।
चीनी सिल्क रोड नहीं, भारतीय सांस्कृतिक क्षेत्र
वास्तव में यदि हम कथित सिल्क रोड का नक्शा देखें तो इसका अधिकांश हिस्सा चीन के बाहर ही है, चीन के अंदर तो कठिनाई से इसका 10 प्रतिशत भाग ही होगा। चीन के लिए सिल्क रोड का सबसे नजदीकी हिस्सा है सिक्यांग। चीनी तूर्किस्तान के नाम से प्रसिद्ध सिक्यांग भी वर्ष 1945-50 के पहले कभी चीन में नहीं रहे। यदि हम विभिन्न शताब्दियों में चीन के नक्शे को देखें तो 220 ईसा पूर्व के हान राजवंश से लेकर चौदहवीं शताब्दी के युवान राजवंश तक ये सारे इलाके भारतीय प्रभावक्षेत्र में ही रहे हैं। युवान राजवंश वास्तव में चीनी राजवंश नहीं है, वह मंगोल राजवंश है और उस काल में चीन मंगोलों का गुलाम था। यहाँ हमें यह भी समझना चाहिए कि चीन की यह गुलामी भारत में इस्लामी शासन से नितांत भिन्न था। एक तो पूरे भारत में कभी इस्लामी शासन नहीं रहा। दूसरे, भारत में इस्लामी शासन के दौरान भी भारत का जनमानस कभी गुलाम नहीं हुआ और यहाँ के राजवंश भी हमेशा उनसे स्वाधीनता हेतु लड़ते रहे और तीसरे, शासन के अलावा व्यापार, उत्पादन, खेती, साहित्य, धर्म तथा दर्शन सभी कार्य स्वतंत्र रीति से चलते रहे। चीन की हालत ऐसी नहीं थी। उसके संपूर्ण जीवन पर मंगोलों का गंभीर प्रभाव रहा। खेती-व्यापार से लेकर धर्म-दर्शन तक पर मंगोलों की सत्ता ने गहरा प्रभाव डाला।
इसलिए चीन जिस इतिहास के बल पर कथित सिल्क रोड पर अपने प्रभावक्षेत्र की बात कर रहा है, वह वास्तव में गुलाम चीन के मंगोल राजवंश का प्रभाव रहा है। यह भी हमें जानना चाहिए कि मंगोल दिखने में भले ही चीनी जैसे हों, उनकी संस्कृति पर चीनियों की बजाय भारतीय प्रभाव काफी गहरा और दर्शनीय है। मंगोल सम्राट चंगेज खाँ से लेकर कुबलाई खाँ तक सभी भारतीय उदात्त जीवनमूल्यों को ही प्रश्रय देते आए हैं। इसलिए मध्य एशिया के इस व्यापारिक पथ, उत्तरापथ पर कभी भी भारतीयों और हिंदुओं को किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा और वे चीन से लेकर पश्चिमोत्तर में रूस, मध्य में ईरान, अरब और दक्षिण-पश्चिम में भूमध्यसागरीय यूरोपीय देशों और अफ्रीका तक निर्बाध व्यापार करते रहे। इस पूरे इलाके में भारतीय हिंदू प्रभाव के अनेक सूत्र पुरातात्विक खुदाई में भी प्राप्त होते रहे हैं। तिब्बत, मंगोलिया और सिक्यांग के इलाके की चर्चा भारतीय धरोहर के नवंबर-दिसंबर, 2016 के अंक में विस्तार से की जा चुकी है। यूरेशिया के क्षेत्र में भारत के सांस्कृतिक प्रभाव को भी आसानी से देखा जा सकता है। सातवीं-आठवीं शताब्दी में इस्लाम के प्रादुर्भाव और विस्तार से पहले तक इस पूरे इलाके में भारतीय राजाओं का ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभाव रहा है। इस्लाम के विस्तार के बाद जब यहाँ की जनता और शासकों का मतांतरण हो गया, तब भी इस पूरे इलाके में लंबे समय तक एक प्रकार का सांप्रदायिक सद्भाव बना रहा है। इसका एक बड़ा कारण रहा है भारतीय उदात्त जीवनमूल्यों का इस पूरे इलाके में प्रभाव। पहले सनातन भारतीय परंपरा और फिर उसी परंपरा को आगे बढ़ाती बौद्ध परंपरा के प्रभाव में मध्य एशिया और यूरेशिया के पूरे इलाके में शांति और सद्भाव का वह वातावरण बना रहा जिसमें व्यापार खूब फला-फूला।
वास्तव में सिल्क रोड को एक रोड के रूप में देखने से यही समस्या आती है। इसे हमें एक क्षेत्र के रूप में ही देखना होगा। जब हम इसे एक क्षेत्र के रूप में देखेंगे तो केवल व्यापार महत्वपूर्ण नहीं रह जाएगा, बल्कि विचारों और संस्कृतियों का परस्पर जुड़ाव तथा विनिमय अधिक महत्व की वस्तु होंगे और इसमें चीन का योगदान शून्य ही है। जो भी योगदान है, वह भारत का है। इसी बात को वैलेरी हानसेन अपनी पुस्तक द सिल्क रोड ए न्यू हिस्ट्री में लिखती हैं, इन कागजातों से इस इलाके की प्रमुख ताकतों, व्यापार की सामग्रियों, काफिलों के आकार और इस व्यापार के मार्ग में पडऩे वाले स्थानीय लोगों पर होने वाले प्रभाव को समझना संभव हो पाता है। ये सिल्क रोड के वृहत्तर प्रभावों को भी स्पष्ट करती हैं, विशेषकर आस्था संबंधी विश्वासों और तकनीकों जिन्हें अपने युद्ध-जर्जर इलाकों से भाग कर आए हुए विस्थापित लोग अपने साथ लेकर आए। …भारत में जन्मे बौद्ध मत जो चीन में काफी लोकप्रिय हो चुका था, का निश्चित ही सबसे अधिक प्रभाव था, परंतु बेबीलोन के मैनिकेइज्म, जरथ्रुष्टवादियों तथा सीरीया के पूर्वी ईसाई चर्च का भी थोड़ा बहुत प्रभाव था। हानसेन लिखती हैं कि इस्लाम के उदय के पहले तक इस पूरे इलाके के विभिन्न समुदायों के लोग एक-दूसरे के आस्थाओं के प्रति आश्चर्यजनक रूप से सहिष्णु थे। शासक व्यक्तिगत रूप से किसी मत को छोड़ कर कोई दूसरा मत स्वीकार करते थे और वे अपनी प्रजा को उनका अनुशरण करने के लिए प्रोत्साहित भी करते थे, परंतु वे अन्य मतावलम्बियों को भी उनकी रिवाजों का पालन करने की पूरी छूट देते थे। यह सहिष्णु परंपरा भारत की है और यहाँ से ही पूरे यूरेशिया में फैली थी।
यूरेशिया के इस इलाके में भारत के बाद दूसरा प्रमुख सांस्कृतिक प्रभाव सोगदियानों का रहा है। सोगदियान वास्तव में वर्तमान उज्बेकिस्तान के प्रसिद्ध शहर समरकंद के थे। उनका मूल और आगे ढूंढने पर ईरान तक पहुँचता है। ईरान मूलत: भारतीय संस्कृति का ही एक भाग रहा है। अधिकांशत: सोगदियान लोग जरथुस्त्र के मतानुयायी रहे हैं। जरथुस्त्र प्रकारांतर से वैदिक मत ही है। जेंदावेस्ता का मूल ऋग्वेद है, यह आज किसी से भी छिपा नहीं है। उनके बारे में वर्णन करते हुए हानसेन लिखती हैं, वे एक ईरानी भाषा सोदियान बोलते थे, और अधिकांश लोग प्राचीन ईरानी गुरु जरथुस्त्र की शिक्षाओं का पालन करती रही है जिसका कहना था कि सत्य सबसे महान गुण है। सिक्यांग में संरक्षण की अस्वाभाविक परिस्थितियों के कारण सोगादियानों और उनके मत के बारे में जानकारी उनके मूलस्थान की बजाय चीन में सुरक्षित रही।
ओसोर बने भारत की रणनीति

इस प्रकार हम पाते हैं कि यूरेशिया के पूरे इलाके में भारतीय संस्कृति ही अपने विभिन्न रूपों में छाई हुई थी। यह संस्कृति परस्पर सहकार की संस्कृति थी और इस सहकार के कारण इस पूरे इलाके में व्यापार फल-फूल सका था। यह स्थिति लगभग अ_ारहवीं शताब्दी तक रही है। अ_ारहवीं शताब्दी तक पूरे यूरेशिया में हिंदू व्यापारियों के टोले बसे हुए थे। वर्तमान के अफगानिस्तान से लेकर ईरान और रूस तक उन्हें शासकीय संरक्षण मिलता था। इस परस्पर सहकारवादी संस्कृति का लोप होते ही यूरेशिया के इलाके में अशांति था गई और उसके कारण व्यापार नष्ट हो गया। प्रारंभ में इस्लामी कट्टरपंथियों और कालांतर में कम्यूनिस्टों के उभार ने इन इलाकों के शानदार व्यापारिक इतिहास को समाप्त कर दिया।
वर्ष 1917 की रूसी क्रांति के बाद उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तजाकिस्तान, किर्गीस्तान, बेलारूस, उक्रेन आदि देश सोवियत संघ में शामिल कर लिए गए थे। परंतु इससे इन देशों की स्थिति सुधरी नहीं, उलटे उनकी स्थिति और खराब हुई। वर्ष 1991 में रूस के सोवियत संघ का विघटन हुआ और कुल 15 देश अलग-अलग हो गए। देश तो अलग-अलग हो गए, परंतु वे अपनी उस साझी विरासत से अभी तक नहीं जुड़ पाए हैं, जिसके वे उत्तराधिकारी हैं। यह वही साझी विरासत है जो आज से केवल तीन सौ वर्ष पहले उनकी पहचान हुआ करती थी। उसी पहचान को पाने की छटपटाहट में वे अलग देश तो बन गए हैं, अब आवश्यकता है कि वे अपनी उस पहचान को भी जीवित करें। इस काम में उनकी सहायता भारत कर सकता है। उसने पहले भी यह काम किया है। यह काम चीन नहीं कर सकता। वह वन बेल्ट वन रोड के नाम पर केवल शोषण कर सकता है। तिब्बत और सिक्यांग की हालत हम देख सकते हैं। दोनों ही इलाकों की उनकी अपनी पहचान को समाप्त करने का एक षड्यंत्र चल रहा है। चीन उनकी अपनी पहचान को मजबूत नहीं कर रहा, वह उसे नष्ट करने का प्रयास कर रहा है।
इसलिए आज की आवश्यकता है कि ओबोर का भारत विरोध करे, परंतु इसका उद्देश्य केवल अपनी सामरिक रक्षा न हो। वह इस पूरे इलाके को उसकी साझी पहचान जोकि सभी के हित में थी, को पुनर्जीवित करना हो। इसके लिए वन कल्चर वन रिजियन का, ओसोर का नारा देने की आवश्यकता है। कैस्पियन सागर के तटों से लेकर मंगोलिया तक के यूरेशिया के इलाके में एक बार फिर से उसी सहकारवादी, मानवतावादी और पंथनिरपेक्ष वातावरण बनाने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए। इस मंच से दुनिया में फैल रहे आतंकवाद को भी समाप्त किया जा सकता है। आईएसआईएसएल ने जो खुरासान माड्यूल प्रस्तुत किया है, वह इस इलाके की रणनीतिक महत्ता को रेखांकित करता है। ओसोर का मंच आईएसआईएसएल के खुरासान माड्यूल को असफल कर सकता है। भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तजाकिस्तान, किर्गीस्तान, बेलारूस, उक्रेन रूस, मंगोलिया आदि सभी यदि इस एक मंच पर आ सकें, तो इससे इस पूरे आतंकवाद को समाप्त करने की सबसे गंभीर पहल की जा सकेगी। इस प्रकार यह मंच न केवल भारत और यूरेशिया, बल्कि संपूर्ण मानवता के हित में होगा।

*लेखक परिचय: लेखक सभ्यता अध्ययन केंद्र नई दिल्ली में शोध निदेशक हैं।

मोदी से डरते हैं चीन और पाकिस्तान – पवन सिन्हा
पावन चिंतन धारा के प्रणेता और मौलिक भारत के संरक्षक पवन सिन्हा आध्यात्मिक गुरु होने के साथ ही दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान के प्राध्यापक भी हैं। भारत – पाक के गरमाते कूटनीतिक रिश्तों के बीच इंडो – बलोच फोरम का उन्हें अध्यक्ष बनाया गया है। अपने प्रखर राष्ट्रवादी ओर आक्रामक तेवरों की वजह से वो आजकल पाकिस्तानी अखबारों और मीडिया की सुर्खियों में हैं ओर गाहे बघाये पाक परस्त खेमे की अनेक तरह की धमकियां भी झेल रहे हैं। भारत, पाकिस्तान, चीन और अफगानिस्तान के साथ साथ बलूचिस्तान सहित कई मुद्दों पर उनसे बातचीत की डायलॉग इंडिया के संपादक अनुज अग्रवाल ने।
राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक होने के साथ साथ आप आध्यात्मिक जगत में भी सक्रिय हैं। आखिर इन दोनों एकदम विपरीत शाखाओं में आप किस तरह तालमेल स्थापित करते हैं? क्योंकि इस समय की राजनीति मूल्य विहीन हो गयी है और आध्यात्मिकता का मूल ही मूल्य हैं।
मैं बचपन से ही आध्यात्मिक रुझान वाला व्यक्ति हूँ। मैं मूलत: साधुपथ का अनुगामी हूँ। मैं तो अपना पिंडदान भी कर चुका था, परन्तु पिता के स्वर्गवासी हो जाने के कारण माता से सन्यास के लिए आज्ञा नहीं मिली जिससे मुझे न चाहते हुए भी इस सांसारिक जगत में वापस आना पड़ा। दरअसल हमारी जो परम्परा है वह स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती की परम्परा है। जिसमें देश और राष्ट्र को मूल्य आधारित दिशा हमारे सन्यासी दिखाते हैं। तो यह अवधारणा कि सन्यासी होने पर उसे संसार से कट जाना है, एकदम दूर हो जाना है, यह सब एक मिथ्या धारणा है। साधुओं का तो कर्तव्य ही है, समाज को सही और गलत का अंतर समझाना और मूल्यों की रक्षा करना। जब समाज और राष्ट्र में मूल्यों का क्षरण होने लगता है और तर्क कुतर्क पर हावी होने लगता है और विश्वास अन्धविश्वास में बदल जाता है तो ऐसे समाज का तो पतन होना निश्चित ही है। समाज का क्षरण न हो, समाज से मूल्य आधारित शिक्षा का ह्रास न हो, इसलिए साधुओं का समाज में होना आवश्यक है। आप देखिये, जब तक भारत में मूल्य आधारित शिक्षा थी, जब तक मानवीय मूल्य समाज में थे तब तक विश्व के एक छोटे से हिस्से तक सीमित आज का भारत पूरे विश्व के 35 प्रतिशत भूभाग तक फैला था और वह पूरे विश्व के 35 प्रतिशत व्यापार का भी स्वामी था। और जैसे जैसे हमारे समाज से मूल्य कम होते गए, वैसे वैसे हम अपनी जड़ों से कटते गए। हम समय के साथ घटते गए, जबकि हमें सम्हलना चाहिए था। भारत एक बहुत बड़ा बाज़ार है और यही इसकी ताकत और कमजोरी है। इसकी इसी ताकत ले चलते यह कई देशों के निशाने पर है जैसे अमेरिका और चीन के। निक्सन ने यह 1960 में ही कह दिया था “भारत एक दिन बीस राज्यों में बंटेगा!” सोवियत संघ की तरह इसके विघटन का मंसूबा है।
तो आपके अनुसार मूल्य समाज में मुख्य भूमिका का निर्वाह करते हैं?
[पवन सिन्हा: यह तो है ही! जहां मूल्य समाप्त हुए वहां का समाज बंट गया, वहां सत्ता मुख्य हो गयी। सत्ता के प्रधान होने पर वह निरंकुश हो जाती है। और जब सत्ता निरंकुश हो जाए तो उस पर अंकुश कौन लगाएगा? जाहिर है, निरंकुश सत्ता पर या तो मूल्य, या धर्म या संविधान ही अंकुश लगा सकते हैं। मूल्य को यदि भारत में इस समय बीजारोपित नहीं किया गया, तो भारत के विखंडन की स्थिति अभी पचास से साठ वर्ष में ही आ सकती है।
पिछले कुछ वर्षों से बौद्धिकता का अर्थ देश विरोधी बातें हो गया है। जब से मोदी सरकार आई है, तब से समाज का एक वर्ग खुलकर राष्ट्रविरोधी ताकतों के साथ कदम मिलाकर चल रहा है। तो आप क्या इसे विचारधारा की लड़ाई मानते हैं या निहित स्वार्थों की?
यह बहुत ही जटिल प्रश्न है, बात विचारधारा की करें तो एक बात स्पष्ट है कि पूरी दुनिया में विचारधारा को लेकर बहुत ही स्पष्टता है। कहीं कोई भ्रम नहीं है। हर देश में विचारधारा ने राष्ट्रवाद को आगे बढाने का काम किया है तो वहीं भारत में विचारधारा ने देश को तोडऩे और बांटने का काम किया।
चीन ने पूरे विश्व में साम्यवाद से, अमेरिका ने पूंजीवाद से पूरे विश्व में अपना स्थान बना लिया,वे लोग अपने देश को अपनी अपनी विचारधारा के आधार पर प्रगति के पथ पर ले गए, मगर भारत के साथ क्या हुआ! भारत में विचारधारा और धर्म का इतना घालमेल हुआ कि विचारधारा धर्म और अंतत: धर्म आडम्बर में बदल गया। और आप देखिये, कि जितना हम लोगों ने मूल्य, मूल्य की बात करते हैं, जितना हम संस्कारों की बात करते हैं, हम उसके एकदम उलट हैं। यदि भारत संस्कारी होता तो भ्रष्टाचार इस तरह से कभी संस्कृति का हिस्सा न बनता! भारत में यदि मूल्य होते तो सोमनाथ इतनी बार लूटा जाता।
तो आपके हिसाब से किस तरह से स्थिति को कैसे सुधारा जा सकता है? क्या सरकार के स्तर पर कदम उठाया जाए या फिर समाज के स्तर पर?
सरकार कुसंस्कारों को रोक सकती है, मगर सरकार संस्कार नहीं दे सकती हैं। संस्कार और मूल्य हमें समाज और शिक्षा से मिलते हैं। प्रशिक्षण से मिलते हैं। शिक्षा में मूल्य होने चाहिए। हमने आन्दोलन किए, हमने शिक्षा में मूल्यों को स्थापित करने के लिए आन्दोलन किए हैं, और मूल्य प्रशिक्षण का हिस्सा होना चाहिए। मूल्य परक शिक्षा पर हम आज भी काम कर रहे हैं। दरअसल मूल्य परक शिक्षा की जब हम बात करते हैं तो एक बहुत महत्वपूर्ण बात है शिक्षक का आचरण। हमें प्रशिक्षित आचरण वाले शिक्षक चाहिए। जिन्होनें मूल्यों को अपने आचरण में ढाला हो। अब सोचिये, जो शिक्षक नैतिक शिक्षा देता है उसका व्यक्तिगत आचरण उसका एकदम विपरीत हो, तो बच्चा कहाँ से मूल्य सीखेगा!
बच्चा कहाँ से सीखता है? या तो घर से या स्कूल से! अब घर में भी उसके सामने शराब आदि पी जा रही है, मगर बच्चों को मूल्य सिखाएं, मद्य निषेध करने के लिए कहें, तो वह कहाँ से आदर्श लेगा। ऐसे ही वह घर में अपने माता पिता को बार बार एक दूसरे से लड़ते हुए देखता है, न तो धैर्य है, और न ही संयम तो बच्चा कहाँ से सत्य और सौहार्द की बातें समझेगा? घर घर में कलह, घर घर में शराब, घर घर में झूठ, ऐसे में बच्चा मूल्य कहाँ से पाएगा, यह एक चिंता का विषय है।
चीन और पाकिस्तान के साथ बदलते हुए हालातों में भारत सरकार को किस तरह अपनी रणनीति में बदलाव करना होगा? क्योंकि चीन और पाकिस्तान अपनी रणनीति में बदलाव कर रहे हैं। ऐसे में भारत क्या करे?
सबसे अच्छी बात यह है कि नरेंद्र मोदी ने प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही युद्धों को समझना शुरू कर दिया है। पाकिस्तान के लिए परोक्ष युद्ध अधिक लाभदायक है। पाकिस्तान ने इसकी अहमियत जनरल जिया उल हक़ के समय से ही जान ली थी। जो काम बटालियन एक करोड़ में करती है, वहीं वह काम स्लीपर सेल वाली सेना केवल पचास से साठ हजार के बीच में हो सकता है। जिया उलहक ने यह काम दो स्तरों पर किया। एक तो आतंकवादी बनाए और दूसरा उन्होंने स्लीपर सेल बनाए, जिसमें वैचारिक लोग हैं। आज कम से कम पांच लाख लोग वैचारिक युद्ध लड़ रहे हैं। आईएसआई की जड़ें बहुत गहरी हैं। बुद्धिजीवियों, विद्यार्थियों, व्यापारियों के बीच उनकी पकड़ है। उन्होंने युवाओं को शिकंजे में लिया हुआ है। तो एक परोक्ष युद्ध तो हम रोज़ ही लड़ रहे हैं। आज हम दुनिया के सबसे युवा देश हैं। सबसे युवा जनसँख्या हमारे पास, मगर हमारे देश ने कभी इस जनसँख्या के लिए शिक्षा और रोजगार जैसे प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया। जबकि चीन, अपने युवाओं के लिए गंभीर, वह अपने युवाओं के रोजगार के लिए पूरे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित कर रहा है।
क्या मोदी सरकार के आने के बाद स्थिति में बदलाव हुआ है?
मोदी सरकार काम तो कर रही है, मगर उसके कामों को दिखने में समय लगेगा। ऐसा नहीं है कि एक दिन में उसके किये गए काम दिखने लगेंगे। वह सोच रही है और सही कहें तो पैन इण्डिया (भारत केन्द्रित विश्व) या एक राष्ट्र भारत की जो अवधारणा इस सरकार के आने के बाद दिखी है, वह पहले नहीं थी। तो विचार के आधार पर देश को एक करने के लिए तो इस सरकार ने कई कदम उठाए हैं। दूसरी जो सबसे महत्वपूर्ण बात समाज के स्तर पर है वह है हमारे समाज की मानसिकता, हमारा समाज हर परिवर्तन को देर से स्वीकारता है। युवाओं को सुनियोजित तरीके से बहकाया जा रहा है। 7200 करोड़ का ड्रग की खपत तो केवल पंजाब में ही हो जाती है, उसके बाद हरियाणा और फिर दिल्ली में हो रहा है। और इसके साथ ही मिलावटी भोजन से जो जहर बच्चों के शरीर में पहुँच रहा है, वह अलग। मतलब एक पूरी श्रंखला है देश के युवाओं को तोडऩे की। तो स्लीपर सेल को तोडऩा होगा।
क्या हम चीन के साथ एक परोक्ष युद्ध लड़ रहे हैं? क्या पाकिस्तान को उकसाने में चीन का हाथ है?
चीन और पाकिस्तान दोनों ही मोदी से डरते हैं। हालांकि वे डरते तो लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी से भी थे, मगर राष्ट्र सर्वोपरि मानने वाला व्यक्ति पहली बार सरकार में आया है तो, वे मोदी से बहुत डरते हैं। और वे मोदी की दिशा से भयभीत हैं, तो हर कदम उठाएंगे।
चीन की आक्रामकता से यह लगता है जैसे वह एक धुरी दुनिया को फिर से दो ध्रुवों में बांटना चाहता है, वह सोवियत संघ का स्थान लेना चाहता है।
एक सिद्धांत है, प्रोग्रेस या पेरिश! या तो बढिय़े या समाप्त हो जाइए। भारत जितना कमजोर होगा चीन उतना ही आगे बढ़ेगा। और हिन्द महासागर पर जिसका कब्ज़ा होगा, वह शक्तिशाली होगा। न जाने कितने डॉलर तो वह केवल चुंगी से ही कमा लेगा। चीन सुपर पावर का भ्रम पाले है। भारत बहुत तेजी से उसके पीछे चल रहा है, वह भारत की इस गति से भयभीत है और वह हर हाल में भारत को हराना चाहता है, जबकि पाकिस्तान के पास खोने के लिए कुछ नहीं है।
अब बात करते हैं बलूचिस्तान की! बलूचिस्तान के मामले में भारत की क्या रणनीति है और मंशा है। आप हिन्द बलूच फाउंडेशन के अध्यक्ष भी हैं। तो इस मुद्दे के बारे में भी बताइए
भारत ने जिस तरह से बलूचिस्तान के मुद्दे को समर्थन दिया है और मोदी सरकार के आने के बाद जिस तरह से बलूचिस्तान के मुद्दे पर सक्रियता बढ़ी है, उससे चीन और पाकिस्तान दोनों ही घबरा गए हैं। मगर हमें मुद्दा उठाने में देर हुई है। भारत को बलूचिस्तान के साथ पहले ही आ जाना चाहिए था। बलूचिस्तान कभी पकिस्तान का हिस्सा नहीं था। पाकिस्तान ने उस पर कब्ज़ा किया हुआ है। वहां पर मानवाधिकार का हनन आम बात है, ऐसे ऐसे अत्याचार के किस्से हैं, कि आप रो पड़ेंगे। पाक सेना न जाने कब किसी लड़की को उठा ले जाए, बलात्कार आम है, जिस पर शक हो उसे मार देना, अंग काटकर हेलीकोप्टर से नीचे फ़ेंक देना, सब कुछ ऐसा भयावह है कि आप सिहर उठेंगे। भारत को यदि अपना स्थान बनाना है, दुनिया में अपनी साख बनानी है तो ऐसे मुद्दों पर बोलना सीखना होगा। बलूचिस्तान पर भारत को खुलकर बोलना होगा!
क्या आपका संघ भाजपा द्वारा संचालित है? क्या इसके पीछे फंडिंग आरएसएस की है?
(हँसते हुए) नहीं, आप सब गलतफहमी में हैं। हाँ, यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि इसकी प्रेरणा जरूर प्रधानमंत्री के 2014 के लालकिले के भाषण से ली गयी थी, मगर इस में भाजपा का कोई हाथ नहीं, दूर दूर तक नहीं। इस मामले पर हमें सभी पार्टियों के लोगों का व्यक्तिगत स्तर पर समर्थन हासिल है। और बलूचिस्तान के मामले में हम कोई मुस्लिम विरोधी तो बात करते नहीं है, जिनपर अत्याचार हो रहा वह भी तो मुस्लिम ही हैं। पाकिस्तान में शिया, अहमदिया, और बलोच लोगों का कत्लेआम आम बात है। दरअसल पाकिस्तान राजनीतिक इस्लाम के कारण अस्तित्व में आया है, यही कारण है कि यह असफलता की कगार पर है।
हम कई स्तरों पर काम करने जा रहे हैं, अभी तो राखी पर हमें सारी बलोच बहनें राखी भेजेंगी। और वहां पर शहीदों के बच्चों की शिक्षा और जीवन के व्यवस्था करनी है। हमारे बलोच भाई मराठी भाइयों के नज़दीकी हैं। वहां की भाषा मराठी से ही मिलती जुलती है। अभी भी वहां पर माँ को आई बोलते हैं। हम सांस्कृतिक रूप से बलोच के करीब हैं। तो यह सांस्कृतिक और आर्थिक मसला है। हम उनके समर्थन में देश के हर कोने में कार्यक्रम करेंगे। उनकी पीड़ा को हर घर तक पहुंचाएंगे।
बलूचिस्तान में रह रहे लोगों का संप्रभुता और मानवाधिकारों का मूल अधिकार है, जो उन्हें मिलना ही चाहिए।
चीन का अगला कदम क्या हो सकता है? क्या वह युद्ध करेगा या अमेरिका के साथ मिलकर अभी भारत को तोड़ेगा या बाज़ार पर अपना अधिकार बनाए रखेगा?
मुझे लगता है एक छोटा युद्ध चीन से होगा। चीन दक्षिण एशिया में पैदा हुए वैक्यूम को तोडऩे के लिए, आपनी ताकत आंकने के लिए और पाकिस्तान भारत को तोडऩे के लिए एक युद्ध तो करेगा।
कश्मीर में किस तरह से बदलाव लाया जा सकता है?
कश्मीर में यदि हम चाहें तो बदलाव तुरंत आ सकता है। वहां की विधान सभा में अभी भी पाक अधिकृत कश्मीर के नाम पर 17 सीटें खाली रहती हैं। उन्हें या तो पाक अधिकृत कश्मीर से आए हुए लोगों से या हम कश्मीरी पंडितों के माध्यम से भर सकते हैं, और दूसरा कश्मीर पर हम केवल 9 प्रतिशत हिस्से पर ही ध्यान दे रहे हैं, हमें बाकी 91 प्रतिशत पर ध्यान देना होगा। हमें कश्मीरी पंडितों को पोस्टल वोटिंग के अधिकार देने होंगे और हमें जनसँख्या पर ध्यान देना होगा। डेमोग्राफिक परिवर्तन जरूरी है, नहीं तो बहावी इस्लाम एकदम से कश्मीरियत को बर्बाद कर देगा। विधान सभा की सीटें जनसँख्या के अनुसार होनी चाहिए.
अब एक आखिऱी और अलग सा प्रश्न! देखा जाए तो दक्षिण एशिया में हम सब धर्म से बंधे हुए हैं। बौद्ध धर्म यहीं से पैदा हुआ क्योंकि आरम्भ में यह केवल वैदिक धर्म की कुरीतियों और आडम्बरों के खिलाफ शुरू हुआ था, इस क्षेत्र में इस्लाम को मानने वाले भी इसी स्थान के मतांतरित हैं, और सनातन तो है ही! तो बौद्ध, इस्लाम और हिन्दू स्वाभाविक दोस्त हैं। ऐसे में क्या आपको नहीं लगता एक आध्यात्मिक आन्दोलन होना चाहिए, जिससे हम एक दूसरे के और नज़दीक आएं। देश की जनता नज़दीक आएं, जिससे मजबूर होकर सत्ता करने वालों को अपनी रणनीति बदलनी पड़े!
यह बहुत ही अच्छी बात आपने कही है। हमारे जड़ें तो एक हैं ही, हमारे विचार भी एक हैं।चीन और जापान में बौद्ध धर्म का पालन होता है, मगर उनके लिए धर्म वह नहीं है जो हमारे लिए। यदि हम बौद्ध को सही और पवित्र रूप में चीन में ले जाएं तो वहां की जनता हमारे साथ आ सकती है, मगर ऐसा करना बहुत कठिन है। क्योंकि यह आपको भी पता है कि आज नकली साधुओं ने किस तरह भगवा की छवि धूमिल कर रखी है। जबकि भारत ने हर कठिन समय में पूरी दुनिया को सहारा दिया है। उसने अपनी आध्यात्मिकता से सबको एक साथ सम्हाले रखा है। यदि स्वामी विवेकानंद जैसे समर्पित साधु इस अभियान को आगे ले जाएं तो भारत एक बार फिर से विश्व को दिशा दिखाने वाला बन सकता है, मगर यह सरकार और जनता दोनों के ही सहयोग से होगा। इतने बड़े एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आन्दोलन को चलाना अकेले इंसान की बात नहीं है! बौद्ध सम्मलेन हों, वेदान्त सम्मलेन हों, चर्चाएँ हों और उनमें नागरिकों का सक्रिय योगदान हो! मानक कड़े हों, और इन सब क़दमों के साथ जब यह आध्यात्मिक आन्दोलन होगा तो एक नया ही दक्षिण एशिया का रूप उभर कर आएगा जो पूरे विश्व के लिए कल्याणकारी होगा।
बहुत बहुत शुक्रिया आपने हमें समय दिया, हम उम्मीद करेंगे कि हम जल्द ही एक सांस्कृतिक आन्दोलन देखेंगे
आपका भी शुक्रिया

चीन की धमकी और दलाई लामा का रहस्यमयी मौन?
चीन की बंदरभभकी देखने लायक हैं। वो भारत को सीमा विवाद में फिर उलझाने की फिराक में है। उसे लगता है कि भारत अब उससे भयभीत हो जाएगा। दोनों देशों के बीच 3,500 किलोमीटर लंबी सरहद है। चीन को तकलीफ इसलिए हो रही है कि क्योंकि, भारत ने डोकलाम में चीन के सड़क बनाने की कोशिश का पुरजोर विरोध किया। दरअसल डोकलाम उस स्थान पर स्थित हैं, जहां चीन, भारत के उत्तर-पूर्व में मौजूद सिक्किम और भूटान की सीमाएं मिलती हैं। यानी ये स्थान अति संवेदनशील है, सामरिक दृष्टि से।
चीन का जब से डोकलामा के सवाल पर आक्रामक रुख शुरू हुआ तो एक उम्मीद थी कि दलाई लामा से लेकर भारत में रहने वाले बड़ी संख्या में तिब्बती उसके (चीन) के खिलाफ सामने आएँगे। लेकिन सब के सब चुप हैं। न दलाई लामा बोल रहे हैं, न ही बात-बात पर चीनी दूतावास के बाहर प्रदर्शन करने वाले तिब्बती समुदाय के लोग ही खुलकर भारत के पक्ष में खड़े हो रहे हैं। भारत ने दलाई लामा को उनके हजारों अनुयायियों के साथ भारत के विभिन्न पहाड़ी इलाकों में शरण देकर एक तरह से चीन से स्थायी पंगा लर लिया था। दलाई लामा को शांति का नोबेल सम्मान भी मिला था। उन्हें सारी दुनिया सम्मान की नजरों से देखती है। बेहतर होता कि वे इस मौके पर चीन की विस्तारवादी नीतियों को दुनिया के सामने लेकर आते और खुलकर भारत के पक्ष में खड़े होते। पर वे तो चुप हैं। मानो वे अज्ञात स्थान में चले गए हों। उनका इस मौके पर चुप रहना या तटस्थ रवैया रखना समझ से परे है। दलाई लामा का अब कहना है कि वह चीन से आज़ादी नहीं चाहते हैं। लेकिन, स्वायतता चाहते हैं। 1950 के दशक से दलाई लामा और चीन के बीच शुरू हुआ विवाद अभी भी जारी है। दलाई लामा के भारत में रहने से चीन से रिश्ते अक्सर खऱाब होते रहते हैं। हो सकता है कि किसी रणनीति के तहत दलाई लामा चुप हों।
अब भारत पूरे धैर्य और प्रेम से कूटनीतिक तौर पर सारे लंबित मामलों को हल करने में लगा है जो नेहरु के समय से चले आ रहे हैं। साथ ही, भारत सरकार किसी भी स्थिति से निबटने के लिए तैयार भी है। चीन को संकेत मिल चुके हैं कि जंग भारत की सेनाएं ही नहीं लड़ेंगी। सारा देश चीन से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार है। और वैसे भी जंग तो हौसलों से जीती है। उस मोर्चे पर भारत कतई कम नहीं है। भारत के रक्षा मंत्री अरुण जेटली भी चीन को कायदे से समझा चुके हैं कि चीन हमें 1962 का भारत न समझे। यह बात सौ फीसद सही भी है। इस बार चीन जरा सी भी गुस्ताखी की तो उसे लेने के देने पड़ जाएंगे। हड़पी जमीन हमारी
चीन ने 1962 की जंग के समय हड़पी हमारी जमीन को वापस करने के कोई संकेत नहीं दिए हैं तमाम बातचीत के बावजूद। इतना लंबा वक्त गुजरने के बाद भी चीन ने हमारे अक्सईचिन पर अपना कब्जा जमाया हुआ ही है। चीन की तरफ से कब्जाये हुए इलाके का क्षेत्रफल 37,244 वर्ग किलोमीटर है। जितना क्षेत्रफल कश्मीर घाटी का है, उतना ही बड़ा है अक्सईचिन। अब आप समझ लें कि भारत के कितने बड़े क्षेत्र पर चीन ने कब्जा कर रखा है। अब भारत को किसी भी विषय पर चीन से आगे की बात करने से पहले उससे अक्सईचिन को लौटाने की मांग करनी चाहिए। वैसे भी देश का यह संकल्प है कि हमें चीन से उस भूमि को वापस लेना है,जो उसने हड़पी हुई है। अब दो परमाणु ताकतों के बीच युध्द लगभग असंभव है, तो चीन से आंख में आंख मिलाकर बात तो की जानी चाहिए। यह समझ लेना चाहिए कि भारत और चीन के बीच युद्ध की आशंका नगण्य है।
चीनी निवेश

इस बीच, चीन का भारत में निवेश भी बढ़ता ही चला जा रहा है। ये 100 अरब डॉलर के आसपास पहुंच रहा है। भारत में चीनी कंपनियों के निवेश के ट्रेंड का देखना है तो राजधानी से सटे गुरुग्राम हो आइये। अकेले गुरुग्राम में करीब तीन हजार चीनी पेशेवर काम कर रहे हैं। गुरुग्राम में हुआवेई, अली बाबा, ओप्पो मोबाइल, मित्तु, बेडु जैसी चीनी कंपनियां आ चुकी हैं अपने सैकड़ों पेशेवरों के साथ। हुआवेई में शायद सबसे अधिक चीनी पेशेवर हैं। इनमें महिलाओं की संख्या भी मजे की है। क्या चीन सरकार अपनी कंपनियों के मोटे निवेश को भारत के साथ जंग करके पानी में बहा देगी? यह असंभव है। भारत के मिडिल क्लास का दायरा बढ़ता जा रहा है। इसे बेहतर नौकरियों की तलाश है। ये मिलेंगी चीनी और दूसरे देशों की कंपनियों के भारत में तगड़ा निवेश करने से। क्योंकि अब आप यूरोप की ठहरी हुई अर्थव्यवस्था की कंपनियों से बहुत कुछ उम्मीद नहीं कर सकते। इसलिए चीनी कंपनियों पर ही ज्यादा दारोमदार रहेगा। भारत की चाहत है कि चीनी कंपनियां हमारे यहां मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में मोटा निवेश करें। चीनी कंपनियों को भारत में सस्ती श्रम शक्ति मिल जाती है। साथ ही यहां पर इन कंपनियों को बड़ा बाजार भी तैयार मिलता है। वैसे इसमे लाभ दोनों देशों को है। वे यहां से माल बनाकर बाहर भेजती हैं। हमारा निर्यात बढ़ता है। बदले में वे यहां पर रोजगार भी देती हैं।
याद रखिए कि भारत में चीनी या किसी अन्य देश से आने वाले निवेश का लाभ होगा रोजगार में इजाफे के रूप में। इसके चलते देश के अन्दर रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। बाजार में सामान्य मजदूरों के अलावा इंजीनियरों, वास्तुकारों, चार्टर्ड एकाउँटेट से लेकर दूसरी तमाम तरह की नौकरियां पैदा होंगी। इसका लाभ यह होगा कि देश के मिडिल क्लास परिवारों और दूसरे वर्गों के नौजवानों को रोजगार के मौके ज्यादा मिलेंगे।
निवेश का लाभ

अब देश में सरकारी नौकरियां सिकुड़ रही है। अब नौकरियां प्राइवेट सेक्टर से ही आएंगी। इसलिए यह जरूरी है कि विदेशी निवेश बढ़े। निवेश बढऩे से देश में इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार होगा और रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। लेकिन चीन से निवेश लेने के बदले में हमें अपनी सुरक्षा में कतई कमजोर पडऩे की जरूरत नहीं है। चीन किसी भी सूरत में भारत से दूर नहीं जा सकता है। हालांकि, दोनों देशों के बीच सीमा विवाद लंबे समय से चल रहा है, पर हाल के वर्षों में दोनों ने सीमा विवाद को सुलझाने की कोशिशें करते हुए आपसी व्यापार को गति दी है। अब अमेरिका तथा संयुक्त अरब अमीरत के बाद चीन का सबसे बड़ा व्यापारिक सांझीदार देश भारत है। क्या चीन भारत से संबंध बिगाडेगा? भूल जाइये। हां, छिट-पुट वाद-विवाद तो जारी रहेगा। सत्तर साल से जिस मामलों को पूर्ववर्ती सरकारों ने उलझाकर रखा उसे सुलझाने में सात साल तो लगेगा ही।
एक बात मैं साफ कर देना चाहता हूं कि भारत में बस गए चीनी मूल के नागरिकों के साथ किसी भी स्थिति में भेदभाव नहीं होना चाहिए। वे भी वस्तुत: भारतीय ही हैं। हमने देखा है कि 1962 की जंग के समय कलकत्ता और देश के दूसरे भागों में बसे चीनियों के साथ बहुत दुर्व्यवहार हुआ था। सुरक्षा एजेसियों ने भी इन्हें काफी प्रताडि़त किया था। चूंकि ये चीनी मूल के हैं, मात्र इसलिए इनकी भारत के प्रति निष्ठा पर सवालिया निशान लगाना अनुचित होगा। वे तो इस देश में अफगानों,यहूदियों और पारसियों की तरह कई पुस्तों से रह रहे हैं।

मोदी : जनविश्वास पर
खरा उतरने की चुनौती
द्य संजय द्विवेदी

स दौर में राजनीति और राजनेताओं के प्रति अनास्था अपने चरम पर हो, उसमें नरेंद्र मोदी का उदय हमें आश्वस्त करता है। नोटबंदी, कैसलेश जैसी तमाम नादानियों के बाद भी नरेंद्र मोदी लोगों के दुलारे बने हुए हैं, तो यह मामला गंभीर हो जाता है। आखिर वे क्या कारण हैं जिसके चलते नरेंद्र मोदी अपनी सत्ता के तीन साल पूरे करने के बाद भी लोकप्रियता के चरम पर हैं। उनका जादू चुनाव दर चुनाव जारी है और वे हैं कि देश-विदेश को मथे जा रहे हैं। इस मंथन से कितना विष और कितना अमृत निकलेगा यह तो वक्त बताएगा, पर यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए वे उम्मीदों को जगाने वाले नेता साबित हुए हैं।
नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए चार बातें सामने आती हैं- एक तो उनकी प्रामाणिकता अंसदिग्ध है, यानी उनकी नीयत पर आम जनता का भरोसा कायम है। दूसरा उन-सा अथक परिश्रम और पूर्णकालिक राजनेता अभी राष्ट्रीय परिदृश्य पर कोई और नहीं है। तीसरा ताबड़तोड़ और बड़े फैसले लेकर उन्होंने सबको यह बता दिया है कि सरकार क्या सकती है। इसमें लालबत्ती हटाने, सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी, कैशलेस अभियान और जीएसटी को जोड़ सकते हैं। चौथी सबसे बड़ी बात उन्होंने एक सोए हुए और अवसादग्रस्त देश में उम्मीदों का ज्वार खड़ा कर दिया है। आकांक्षाओं को जगाने वाले राजनेता होने के नाते उनसे लोग जुड़ते ही जा रहे हैं। ‘अच्छे दिनÓ भले ही एक जुमले के रूप में याद किया जाए पर मोदी हैं कि देश के युवाओं के लिए अभी भी उम्मीदों का चेहरा है। यह सब इसके बाद भी कि लोग महंगाई से बेहाल हैं, बैंक अपनी दादागिरी पर आमादा हैं। हर ट्रांजिक्शन आप पर भारी पड़ रहा है। यानी आम लोग मुसीबतें सहकर, कष्ट में रहकर भी मोदी-मोदी कर रहे हैं तो इस जादू को समझना जरूरी है। अगर राजनीति ही निर्णायक है और चुनावी परिणाम ही सब कुछ कहते हैं तो मोदी पर सवाल उठाने में हमें जल्दी नहीं करनी चाहिए। नोटबंदी के बाद उत्तर प्रदेश एक अग्निपरीक्षा सरीखा था, जिसमें नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने ऐतिहासिक प्रदर्शन किया है। ऐसे में आखिर क्या है जो मोदी को खास बनाता है। अपने कष्टों को भूल कर, बलिदानों को भूलकर भी हमें मोदी ही उम्मीद का चेहरा दिख रहे हैं। आप देखें तो आर्थिक मोर्चे पर हालात बदतर हैं। चीजों के दाम आसमान पर हैं। भरोसा न हो तो किसी भी शहर में सिर्फ टमाटर के दाम पूछ लीजिए। काश्मीर के मोर्चे पर हम लगातार पिट रहे हैं। सीमा पर भी अशांति है। पाक सीमा के साथ अब चीन सीमा पर भी हालात बुरे हैं। सरकार के मानवसंसाधन मंत्रालय का हाल बुरा है। तीन साल से नई शिक्षा नीति लाते-लाते अब उन्होंने कस्तूरीरंगन जी की अध्यक्षता में एक समिति बनाई है। जाहिर है हीलाहवाली और कामों की प्राथमिकता में इस सरकार का अन्य सरकारों जैसा बुरा है। दूसरा नौकरशाही पर अतिशय निर्भरता और अपने काडर और राजनीतिक तंत्र पर अविश्वास इस सरकार की दूसरी विशेषता है। लोगों को बेईमान मानकर बनाई जा रही नीतियां आर्थिक क्षेत्र में साफ दिखती हैं। जिसका परिणाम छोटे व्यापारियों और आम आदमी पर पड़ रहा है। बैंक और छोटी जमा पर घटती ब्याज दरें इसका उदाहरण हैं। यहां तक कि सुकन्या समृद्धि और किसान बचत पत्र भी इस सरकार की आंख में चुभ रहे हैं। आम आदमी के भरोसे और विश्वास पर चढ़कर आई सरकार की नीतियां आश्चर्य चकित करती हैं। विश्व की मंदी के दौर में भी हमारे सामान्य जनों की बचत ने इस देश की अर्थव्यवस्था को बचाए रखा, आज हालात यह हैं कि हमारी बचत की आदतों को हतोत्साहित करने और एक उपभोक्तावादी समाज बनाने के रास्ते पर सरकार की आर्थिक नीतियां हैं। आखिर छोटी बचत को हतोत्साहित कर, बैकों को सामान्य सेवाओं के लिए भी उपभोक्ताओ से पैसे लेने की बढ़ती प्रवृत्ति खतरनाक ही कही जाएगी। आज हालात यह हैं कि लोगों को अपने बैंक में जमा पैसे पर भी भरोसा नहीं रहा। इस बढ़ते अविश्वास के लिए निश्चित ही सरकार ही जिम्मेदार है।
अब सवाल यह उठता है कि इतना सारा कुछ जनविरोधी तंत्र होने के बाद भी मोदी की जय-जयकार क्यों लग रही है। इसके लिए हमें इतिहास की वीथिकाओं में जाना होगा जहां लोग अपने ताकतवर नेता पर भरोसा करते हैं और उससे जुडऩा चाहते हैं। आज अगर नरेंद्र मोदी की तुलना इंदिरा गांधी से हो रही है तो कुछ गलत नहीं है। क्योंकि उनकी तुलना मनमोहन सिंह से नहीं हो सकती। किंतु मनमोहन सिंह के दस साल को गफलत और गलतियों भरे समय ने ही नरेंद्र मोदी को यह अवसर दिया है। मनमोहन सिंह ने देश को यह अहसास कराया कि देश को एक ताकतवर नेता की जरूरत है जो कड़े और त्वरित फैसले ले सके। उस समय अपने व्यापक संगठन आधार और गुजरात की सरकार के कार्यकाल के आधार पर नरेंद्र मोदी ही सर्वोच्च विकल्प थे। यह मनमोहन मार्का राजनीति से ऊब थी जिसने मोदी को एक बड़ा आकाश दिया। यह अलग बात है कि नरेंद्र मोदी अब प्रशासनिक स्तर पर जो भी कर रहे हों पर राजनीतिक फैसले बहुत सोच-समझ कर ले रहे हैं। उप्र में योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी से लेकर राष्ट्रपति चयन तक उनकी दूरदर्शिता और राजनीति केंद्रित निर्णय सबके सामने हैं।
जाहिर तौर पर मोदी इस समय की राजनीति का प्रश्न और उत्तर दोनों हैं। वे संकटकाल से उपजे नेता हैं और उन्हें समाधान कारक नेता होना चाहिए। जैसे बेरोजगारी के विकराल प्रश्न पर, सरकार की बेबसी साफ दिखती है। प्रचार, इवेंट्स और नारों से अलग इस सरकार के रिपोर्ट कार्ड का आकलन जब भी होगा, उससे वे सारे सवाल पूछे जाएंगें, जो बाकी सत्ताधीशों से पूछे गए। भावनात्मक भाषणों, राष्ट्रवादी विचारों से आगे एक लंबी जिंदगी भी है जो हमेशा अपने लिए सुखों, सुविधाओं और सुरक्षा की मांग करती है। आक्रामक गौरक्षक, काश्मीर घाटी के पत्थरबाज, नक्सली आतंकी एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। आकांक्षाएं जगाने के साथ आकांक्षाओं को संबोधित करना भी जरूरी है। नरेंद्र मोदी के लिए आने वाला समय इस अर्थ में सरल है कि विपक्ष उनके लिए कोई चुनौती पेश नहीं कर पा रहा है, पर इस अर्थ में उनकी चुनौती बहुत कठिन है कि वे उम्मीदों को जगाने वाले नेता हैं और उम्मीदें तोड़ नहीं सकते। अब नरेंद्र मोदी की जंग दरअसल खुद नरेंद्र मोदी से है। वे ही स्वयं के प्रतिद्वंद्वी हैं। 2014 के चुनाव अभियान में गूंजती उनकी आवाज “मैं देश नहीं झुकने दूंगा”, लोगों के कानों में गूंज रही है। आज के प्रधानमंत्री के लिए ये आवाजें एक चुनौती की तरह हैं, क्योंकि उसने देशवासियों से अच्छे दिन लाने के वादे पर वोट लिए थे। लोग भी आपको वोट करते रहेगें जब उन्हें भरोसा ना हो जाए कि 2014 का आपका सारा चुनाव अभियान और उसके नारे एक’जुमलेÓ की तरह थे। ‘कांग्रेसमुक्त भारतÓ के लिए देश ने आपको वोट नहीं दिए थे। कांग्रेस की सरकार से ज्यादा मानवीय, ज्यादा जनधर्मी, ज्यादा संवेदनशील शासन के लिए लोगों ने आपको चुना था, ‘साहेबÓ भी शायद इस भावना को समझ रहे होगें।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
जरा सोचें विपक्षी नेता
क्या ये सिर्फ इत्तेफाक है कि 2014 के बाद जिन दो राज्यों में बीजेपी के अलावा कोई दूसरी सरकार बनी वो महज़ साल-दो साल में ही अपनी लोकप्रियता खो बैठी। आम आदमी पार्टी एमसीडी चुनावों में तीसरे नंबर पर आती-आती बची। पंजाब में जहां सालभर पहले उसके 100 सीटें जीतने के आसार लग रहे थे वहां वो 30 सीटें भी नहीं जीत पाईं।
दूसरी तरफ बीजेपी को सबसे करारी शिकस्त देने वाला जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस का गठबंधन भी तार-तार होता दिख रहा है। ये बात कुछ लोगों को इसलिए भी तकलीफ दे सकती है क्योंकि दिल्ली और बिहार के नतीजे आगे रखकर कहा जा रहा था कि ये तो बीजेपी के पतन की शुरूआत है। इन्हीं दोनों नतीजों से एक उम्मीद जगी थी कि बीजेपी और मोदी को हराया जा सकता है। फिर नोटबंदी के बाद तो लगभग मान लिया गया था कि अब तो यूपी सहित बाकी 5 राज्यों को चुनावों में बीजेपी का सूपड़ा साफ हो जाएगा।
मगर हुआ क्या… बीजेपी ने 6 में से 4 राज्यों में सरकार बना ली। फिर एमसीडी चुनावों में आम आदमी पार्टी की शर्मनाक हार हुई और अब बिहार सरकार का महागठबंधन भी टूटने की कगार पर है। बिहार के हालात देखकर एक चीज़ तो इससे एक चीज़ तो साफ हो गई कि राजनीति में जो भी गठबंधन विचारधारा या एजेंडे के तहत न बनकर सिर्फ अपने वजूद को बचाने के लिए किए जाते हैं उनका क्या हश्र होता है?
इस गठबंधन को देखकर ये भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि केंद्रीय स्तर पर कुछ और बेमल शादियों की बात चल रही है अगर वाकई उसने किसी तरह की शक्ल ली, तो कल को उनका क्या हश्र होगा?
इससे सबसे विपक्ष के लिए और वैकल्पिक राजनीति की बात करने वालों के लिए यही सबक है कि बजाए मोदी या बीजेपी को हराने के लिए हर हाल में एकजुट होने के वैचारिक स्तर पर थोड़ी साफगोई ले आओ।
ज़मीन हकीकत का कुछ ंदाज़ा ले लो। समझ लो कि लोग क्या चाहते हैं। क्या ऐसा है जो बीजेपी दे रही है और क्या ऐसा है जो उससे नहीं दिया जा रहा है।
सिर्फ वोटबैंक की पॉलिटिक्स करने से और वजूद बचाने के लिए कैसे भी गठबंधन कर लेने से कुछ नहीं होगा। बाकी कांग्रेस ने तो कह ही दिया है कि 2019 में राहुल गांधी विपक्ष के नेता होंगे!
नीरज बधवार

डोकलाम : इन 6 वजहों घबरा रहा है चीन

1. 2013 में शी जिनपिंग ने सत्ता संभाली थी उसके बाद से वह आक्रमक तरीके से चीन को महाशक्ति बनाने के लिए जुट गए. चीन ने कई देशों से व्यापारिक संबंध बनाए. इसके साथ ही अमेरिका को सीधे चुनौती देने के प्लान पर वह शुरू से ही काम कर रहा था. लेकिन उसके पड़ोसी देश भारत की अर्थव्यवस्था ने भी रफ्तार पकड़ी जो चीन के व्यापार के सामने बड़ी चुनौती बन गया.
2- आंकलन है कि अगले कुछ सालों में भारत की अर्थव्यवस्था दो अंकों में आ जाएगी. उधर चीन की अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट का दौर शुरू हो चुका है. विशेषज्ञों का कहना है कि 2025 तक भारत की अर्थव्यवस्था चीन के बराबर खड़ी हो जाएगी.
3- वैश्विक स्तर पर दुनिया भर के निवेशक इस समय भारत के बाजार की ओर रुख कर रहे हैं. आंकड़े बताते हैं कि चीन की अर्थव्यवस्था में गिरावट के संकते हैं.
4- भारत में हाल ही में चीन को कई मंचों पर कड़ा रुख दिखाया है. फिर चाहे पाकिस्तान तक बनने वाला इकोनॉमिक कॉरीडोर हो या फिर उसकी ओबीआर ( वन बेल्ट, वन रोड) का मुद्दा रहा है.
5- भारत ने चीन की इन योजनाओं से जुडऩे के बजाए एशियाई-अफ्रीकी गलियारे पर काम शुरू करने का निर्णय कर लिया.
6- अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत धीरे-धीरे चीन के लिए बड़ी चुनौती बन रहा है. एक साथ 100 से ज्यादा उपग्रह छोडऩे की कामयाबी के बाद चीन के अखबार ने उसी समय भारत से सचेत रहने की नसीहत दे डाली थी. कुल मिलाकर कहने का मतलब यही है कि भारत सैन्य-साजो सामान में अभी भले ही चीन से पीछे हो लेकिन सच्चाई यही है कि भारत के पास भी दुनिया की तीसरी बड़ी सेना है और वह किसी भी हालात का सामना करने में सक्षम है. उसकी ताकत धीरे-धीरे बढ़ रही है. चीन के लिए यही बड़ी दिक्कत है.
मानस मिश्रा

2019 में चुनाव
मोदी बनाम बेरोजगार होगा
द्य एस पी सिंह

टबन्दी के बाद से करीब 15 लाख नौकरियाँ समाप्त हो गई है, नये रोजगार जुड़ नही रहे हैं। यह दावा हैं देश की जानीमानी सर्वे कम्पनी और थिंक टैंक सीएमआईई का, उसने 2017 के आंकड़े जारी किए हैं जिसके मुताबिक मोदी सरकार नौकरियों का सृजन नही कर पा रही । इसकी चिंता में मोदी जी ने जून 2017 में एक बैठक रखी थी, उस बैठक का क्या नतीजा हुआ यह मुझे नही मालूम हैं।
साल 2014 में मोदी की चुनावी जीत में युवाओं की भागीदारी बेहद अहम थी, हर संसदीय क्षेत्र में 5प्रतिशत मोदी समर्थक बेरोजगार युवा + भाजपा के परम्परागत वोटर+ ऐन वक्त पर कांग्रेस के भ्र्ष्टाचार के खिलाफ वोट करने वाले वोटर की मिलजुली ताक़त से भाजपा ने ऐतिहासिक जीत प्राप्त की थी।
साल 2009 से 2012 तक कांग्रेस की सरकार लगातार जॉबलेस विकास कर रही थी, उस समय इस चिंता का हल मनरेगा लग रहा था। आईएलओ (अंतरराष्ट्रीय मजदूर संस्था) के 2012 में मिले डाटा कहते हैं कि भारतीय लेबर की गुणवत्ता में तो 6.4प्रतिशत का इजाफा हुआ यानी प्रॉडक्टिविटी तो बढ़ी मगर नौकरियां सिर्फ 1प्रतिशत ही बढ़ी। उससे पहले साल 2004-05 से लेकर साल 2009-10 तक सिर्फ 0.1प्रतिशत प्रतिशत नौकरियां बढ़ी यानी 45.79 करोड़ नौकरियों से 45.84 करोड़ नौकरियाँ। इतनी कम नौकरियों के चलते बेरोजगार बढ़ गए और यही वजह थी कि सोनिया गांधी 2014 में चुनाव हार गई थी।
हमारा देश युवाओं का देश हैं हर साल लगभग 1 करोड़ स्किल्ड या अनस्किल्ड युवा लेबर मार्किट में आ रहे हैं। देश को 1 करोड़ नौकरियां चाहिए नही तो यह 1 करोड़ बेरोजगार 4 से 5 गांवोंं कस्बों से निकल निकल कर बड़े शहरों में आ जाएंगे और स्तिथि अराजक बन जाएगी।
ऐसे नौजवानों को गाँव कस्बों तक रोकने के लिए पहले कांग्रेस मनरेगा लायी फिर पिछले साल मोदी जी ने भी ग्रामीण भारत केंद्रित बजट बनाया पर देश में इतनी नौकरियां कैसे सृजित हो यह किसी को नही सूझ रहा।
मोदी जी के सलाहकार गुजरात मॉडल वाले अरविंद पाणिग्रही तो कह चुके हैं कि देश मे बेरोजगारी दर्शाने वाला कोई सही आंकड़ा नही हैं। उन्हें मेरी सलाह हैं कि नौकरी.कॉम या अन्य जॉब साइट से कम से कम रोजगार जनरेट होने का डाटा ढंग से एकत्र कर ही सकते हैं। आईएलओ का इस साल आया डाटा देश मे करीब 1 करोड़ 78 लाख बेरोजगार बता रहा हैं जबकि बेरोजगारी दर 3.4प्रतिशत बता रहा हैं। एसबीआई बैंक की रिसर्च बताती हैं कि फरवरी 2016 से लेकर अगस्त 2016 तक बेरोजगारी दर 4.8प्रतिशतसे घटकर करीब 9.5प्रतिशत रह गयी हैं। जिसमे यूपी बिहार में सबसे ज्यादा बढ़त मिली हैं यूपी ने अपनी बेरोजगारी 17.1प्रतिशत से घटाकर 2.9प्रतिशत कर ली हैं तो बिहार में भी वह 13प्रतिशत से घट कर 3.7प्रतिशत हो गयी हैं। यह तो आंकड़ो की लीला हैं एसबीआई सरकारी संस्था हैं वो चमत्कारी दावे कर सकती हैं। लेबर मंत्रालय की 27वी क्वार्टरली रिपोर्ट में श्रम आधारित नौकरियो में 43000 जॉब खत्म होने की बात मानी गयी थी जबकि 134000 नेट नौकरिया का आंकड़ा उसने दूसरी तिमाही में जारी किया था।
मोदी के शपथ ग्रहण के वक़्त इंडस्ट्री की मांग थी कि मोदी जी ब्याज दर कम करें तो हम निवेश करेंगे डेढ़ साल बाद मोदी जी ने ब्याज दर कम करवा दी तो भी इंडस्ट्री ने पैसा नही इन्वेस्ट किया। कंपनियों का ब्याज में रियायत से रिजर्व बढऩे लगा और जेटली जी के बार बार कहने पर भी किसी ने निवेश में रुचि नही दिखाई। यह बात मनमोहन सिंह ने जून 2017 में प्रेस वार्ता में उठायी साथ ही बेरोजगारी दर पर भी चिंता रखी। तब मनमोहन सिंह ने कहा था कि सरकार सिर्फ सरकारी निवेश के भरोसे ही चल रही हैं निजी क्षेत्र की भागीदारी कम हो गयी हैं। मनमोहन सिंह पहले ही कह चुके हैं कि अर्थव्यवस्था नोटबन्दी की वजह से करीब 2प्रतिशत तक सिकुड़ जाएगी।
आखरी और अहम बात

इतनी महत्वपूर्ण चिंता के बीच जून के दूसरे पखवाड़े में नौकरियन पर होने वाली मोदी की रिव्यू मीटिंग की खबर गायब हो जाती हैं। खबर जो चलती हैं वो जुनैद हत्याकांड की चलती हैं। उसके बाद टाइम्स ऑफ इंडिया जैसा अखबार ‘हिन्दू आतंकी’ कहकर अखबार में खबर लगाता हैं।
मतलब समझिये नौकरियां नही मिलेंगी तो युवाओं को बांधना मुश्किल होगा, युवा बंधेगे नही तो फंसेंगे कैसे?
सो हिन्दू मुस्लिम पोलाराईजेशन का टाइम टेस्टेड फार्मूला लगा दीजिये इससे दोनों पक्षों को फायदा होता हैं। विपक्ष के पास नेतृत्व के विकल्प के रूप में छोटे से संगठन जद यू के सफल नेता नीतीश कुमार हैं और बड़े संगठन कांग्रेस के विफल नेता राहुल गांधी हैं। राहुल गांधी मोदी को नीतिगत मामलों में टक्कर दे नही सकते और नीतीश कुमार बिना कांग्रेस के आगे बढ़ नही सकते सो नीतीश तो पहले ही चेक मेट हो गए। राहुल के लिए ध्रुवीकरण उतना ही फायदेमंद हैं जितना भाजपा के लिए सो दोनों पक्ष मुद्दों को गौण बनाकर ध्रुवीकरण को तरजीह द्दे रहें हैं इस बार
अफ़सोस की बात यह हैं कि इसमें ना केवल सोसियल मीडिया बल्कि मेनस्ट्रीम मीडिया भी इसमें साथ दे रहा हैं। ठ्ठ

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