उत्तराखंड इस समय बदलाव के लिए तैयार दिख रहा है। अपने गठन के बाद से उत्तराखंड में राजनैतिक उथल पुथल चलती रही है। यहां कांग्रेस और भाजपा मवार सरकार का गठन करते रहे हैं। उत्तराखंड के गठन के प्रारम्भिक दौर में जब उत्तर प्रदेश में मायावती मजबूत थीं तब बसपा भी अपना यहां प्रभाव रखती थी। इसके बाद धीरे धीरे बसपा यहां कमजोर होती चली गयी। कांग्रेस के बड़े नेता एक एक कर अब भाजपा में शामिल हो गये हैं। वर्तमान सरकार के कई मंत्री एवं इसी कार्यकाल के भूतपूर्व मुख्यमंत्री भी अब भाजपाई हैं। कांग्रेस अब बिना नेताओं के सिर्फ पारंपरिक जनाधार के भरोसे उत्तराखंड में उतर रही है। उसके पास न तो काडर बनाने के लिये समय बचा है और न ही अपनी बात कहने के लिये कद्दावरों की फौज। ऐसे में उत्तराखंड की लड़ाई अब युवा कांग्रेसियों के जुनून एवं भाजपा के बढ़ते जनाधार के बीच आकर ठहर गयी है। उत्तराखंड पर विशेष संवाददाता अमित त्यागी का एक लेख।
उत्तराखंड में नरेंद्र मोदी का चेहरा पसंद किया जाता है। वहां युवा भाजपा के स्थानीय नेताओं से नहीं मोदी से प्रभावित हैं। वर्तमान में ऐसी स्थिति बन चुकी है जहां यह चुनाव भाजपा और कांग्रेस के बीच हार और जीत से ऊपर उठकर इस बात पर आकर टिक गया है कि क्या 2014 का चमत्कारिक क्लीन स्वीप मोदी अब भी कर पाएंगे? अब मायने सिर्फ भाजपा की जीत के नहीं होंगे, उत्तराखंड में एक बड़े बहुमत की सरकार ही मोदी का कद बरकरार रख पायेगी।
इन चुनावों को लोकसभा चुनाव 2014 की अगली कड़ी के रूप में ही देखा जा रहा है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने एक प्रचंड बहुमत के रूप में 54.5 प्रतिशत वोट प्राप्त किए थे। इसके बाद प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेता एक एक कर टूटकर भाजपा में विलय करते रहे। कांग्रेसी मुख्यमंत्री बदलते रहे। कांग्रेस के एक बड़े नेता विजय बहुगुणा भाजपा में शामिल हो गये। उतराखंड में स्वयं कांग्रेसियों ने ही अपनी सरकार का तख्ता पलट कर दिया। एक नाटकीय घटनाक्रम में यह मामला देहरादून उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय तक पहुंचा। इसमें भाजपा पर भी षड्यंत्र करके सरकार गिराने के आरोप लगे। इस तरह की संभावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता है क्योंकि 70 विधानसभा सीट में से 32 कांग्रेस और 31 भाजपा के विधायक हैं। जब दोनों दल गणित के इतने करीब होते हैं तब सत्ता का घमासान होना लाज़मी होता है। उत्तराखंड जिस तरह से प्राकृतिक सम्पदा से भरा हुआ है उसके आधार पर हर दल सत्ता में आना चाहता है और सत्ता की मलाई खाना चाहता है। चूंकि जनता अपने स्थानीय नेताओं की ईमानदारी से वाकिफ होती है इसलिए बड़े नेताओं के चेहरे को आगे करके सत्ता की ज़ंग लड़ी जाती है। इस ज़ंग में कांग्रेस के राहुल गांधी बौने नजऱ आ रहे हैं और भाजपा के नरेंद्र मोदी विराट स्वरूप में हैं।
इसी को आधार मानकर भाजपा के प्रचार वाहन आदि में मोदी की धूम है। केंद्र की योजनाओं का जि़क्र है। नोटबंदी, उज्जवला, जनधन जैसी योजनाओं का जि़क्र करके भाजपा केंद्र का विकास मॉडल यहां अपनाए हुये हैं। भाजपा के द्वारा उत्तराखंड में रही अपनी सरकारों के द्वारा किए गये विकास का जि़क्र ज़्यादा नहीं किया जा रहा है। कांग्रेस के कार्यकाल में किए गये घोटाले भी ज़्यादा उजागर नहीं किये जा रहे हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे विजय बहुगुणा अब भाजपा के खेमे में हैं। ज़्यादा कांग्रेस को कोसने से कुछ आंच अपने ऊपर भी आ सकती हैं। विजय बहुगुणा के कार्यकाल में सिडकुल भूमि घोटाला, टिहरी विस्थापितों को भू आवंटन, और केदारनाथ आपदा प्रबंधन जैसे बड़े घोटालों के नाम सुर्खियां बने थे। कांग्रेस कार्यकाल में हुये इन घोटालों पर भाजपा की चुप्पी की एक वजह भी है। भाजपा के शासन काल में सरकार पर महाकुंभ, सिटुर्जिया, ढेंचा बीज़, पनबिजली प्रोजेक्ट, एनएचएम जैसे घोटालों के आरोप लगे थे। अब ऐसे में सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या भाजपा की, दूध की धुली तो कोई नहीं है। दोनों इस विषय पर किसी एक को नहीं घेर सकते। इसलिए इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर दोनों चुप है। चूंकि, अब कांग्रेस के कई प्रमुख नेता अब भाजपाई हैं इसलिए भाजपा के द्वारा मोदी के चेहरे पर ही चुनाव में जाना समझदारी है।
भाजपा अब अगर कांग्रेस को घेर सकती है तो सिर्फ उस ढाई साल के कार्यकाल के लिए जो हरीश रावत का कार्यकाल रहा है। बस यही उत्तराखंड के राजनैतिक खेल का अहम भाग है। भाजपा ने 2012 में खंडूरी सरकार की उपलब्धियों और केंद्र की कांग्रेस सरकार द्वारा लोकपाल, सिटिजऩ चार्टर, ट्रान्सफर एक्ट जैसे विषयों पर भी ध्यान केन्द्रित किया था किन्तु आज के परिवेश इन ज़रूरी मुद्दों पर दोनों दल खामोश हैं।
बसपा का खिसक रहा जनाधार, बचाने में जुटी मायावती
उत्तराखंड में बसपा एक ऐसी पार्टी है जिसका रोल वहां अहम हो जाता है। बसपा निर्विवादित रूप से तीसरे नंबर पर आती है। अल्पमत की सरकार बनने पर इसका रोल बेहद अहम बन जाता है। उतराखंड के गठन के पहले से और लगभग ढाई दशक से उत्तराखंड में बसपा का जनाधार है किन्तु जब उत्तराखंड का गठन हो गया तो वह एक विकल्प के रूप में सामने आ गयी। एक बार फिर से उत्तराखंड में बसपा अपनी खोयी साख पाने की तैयारी में है। बसपा की सीटें कम ज़्यादा होती रही हैं किन्तु उसका वोट प्रतिशत कमोवेश एक जैसा रहा है। उत्तर प्रदेश की तरह उसका वोटर सिर्फ उसका ही वोट बैंक है। वह किसी और की तरफ नहीं जाता है। ऐसे में अगर उत्तराखंड में मतदान का प्रतिशत कम रहता है तो इसका सीधा फायदा बसपा को पहुंचेगा और वह निर्णायक भूमिका में भी आ सकती है।
इस आंकड़े को थोड़ा समझते हैं। 2002 में हुये पहले विधानसभा चुनावों में बसपा ने 68 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे और सात सीटें जीती थीं। 2007 के विधानसभा चुनावों में बसपा ने 69 सीट पर अपने उम्मीदवार उतारे और आठ सीटें जीती। बसपा को लगभग 11.76 प्रतिशत वोट मिले। इस चुनाव में बसपा ने न सिर्फ अपनी सभी पुरानी सीटें जीतीं बल्कि हरिद्वार क्षेत्र में एक सीट का इजाफा भी किया था। हरिद्वार में ग्यारह विधानसभा सीटों में से छह बसपा ने जीतीं थीं। 2007 में भाजपा ने सरकार बनायी। उक्रांद और निर्दलीय ने सरकार बनाने में भाजपा का सहयोग किया। वर्ष 2012 में बसपा ने सभी 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और इस बार उसे पिछली बार से 0.43 प्रतिशत ज़्यादा वोट मिले। उसका वोट प्रतिशत 12.19 प्रतिशत रहा। भाग्य की विडम्बना रही कि वोट बैंक बढऩे के बावजूद बसपा की सीटें कम हो गईं और उसके सिर्फ तीन उम्मीदवार ही जीते। सीटों के हिसाब से शुरुआती दो विधानसभा चुनावों में बसपा का प्रदर्शन अच्छा रहा किन्तु पिछले चुनाव में बसपा कमजोर हो गयी। इसके बाद लोकसभा चुनावों में भी बसपा लाचार ही रही। अब चूंकि बसपा का वोट बैंक कमजोर नहीं हुआ है इसलिए बसपा इस बार जोरदार तरीके से अपनी पैठ बनाने की तैयारी में है।
उत्तराखंड में अल्पमत की सरकारें बनने की स्थिति में ऐसे दलों की स्थिति महत्वपूर्ण बन जाती है। वर्तमान रावत सरकार में भी बसपा ने समर्थन दिया और मंत्रिमंडल में भी स्थान पा लिया। पर घोटाले से जूझते उत्तराखंड में घोटालों की संपत्ति का सही बंटवारा न होने पर सरकारें ही गिरा दी जाती हैं। विधायक आपस में ही लडऩे लगते हैं। बसपा के भी तीन में से दो विधायकों ने अपनी पार्टी से बगावत कर दी और बसपा ने उनको पार्टी से ही निकाल दिया। अब बसपा नए चेहरों के साथ सभी 70 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार रही है। बसपा उत्तराखंड की राजनीति में तीसरे दल के रूप में एक विकल्प देते हुये अपनी सीटों में बढ़ोत्तरी तो करने जा रही है। ज़्यादातर स्थानों पर वह कांग्रसे के लिए चुनौती खड़ी करेगी। पर्वतीय क्षेत्रों के आदिवासी और दलित बाहुल्य क्षेत्रों में वह अभी भी प्रभावी दिख रही है।
दिग्गज कांग्रेसियों का आना कर रहा भाजपा को मजबूत
उत्तराखंड में जिस तरह से कांग्रेस में खलबली मची हुयी है। जिस तरह से कांग्रेस के बड़े नेताओं का मोहभंग अपनी पार्टी से हुआ है वह कांग्रेस का कमजोर होते जनाधार का प्रतीक है। कांग्रेस की सहयोगी प्रगतिशील लोकतांत्रिक मोर्चा (पीडीएफ़) के साथ भी कांग्रेस की उठापटक जगजाहिर है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष तक अपने टिकट के लिये लड़ झगड़ रहे हैं। वह टिहरी से टिकट मांग रहे हैं और कांग्रेस उन्हें देहरादून की सहसपुर सीट से टिकट दे रही है। अब जिस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ही असंतुष्ट हों उसके बाकी कार्यकर्ताओं का मनोबल क्या होगा यह समझ आ सकता है। कांग्रेस के पास ले देकर हरीश रावत ही एक चेहरा है जिसके ऊपर वह कुछ भरोसा कर सकती है। पर जहां तक हरीश रावत का प्रश्न है वह सिर्फ पहाड़ी इलाकों में कुछ पकड़ रखते हैं। मैदानी इलाकों में जनता उनसे बेहद नाखुश है। उनके करीबी ही उनसे मुंह मोड़े हुये हैं। दिल्ली में राजनैतिक रूप से सक्रिय होने के कारण हरीश रावत प्रदेश के सरोकारों से कम और केन्द्रीय कमेटी की खुशामदीद में ज़्यादा लगे रहते हैं। वह सिर्फ किसी न किसी तरह दिल्ली के नेताओं का ध्यान रखते हैं। उनके इस रवैये ने भी प्रदेश में कांग्रेस को कमजोर किया है। हां, गांधी परिवार से उनकी नजदीकी लगातार बनी हुयी है।
एक एक करके कांग्रेसियों का पलायन होता जा रहा है। स्वयं का वर्चस्व बनाने के लिये हरीश रावत ने पूरी कांग्रेस ही साफ कर दी है। प्रदेश अध्यक्ष के रूप में 2009 और 2012 के चुनावों में कांग्रेस को जीत दिलाने वाले चालीस साल पुराने कांग्रेसी यशपाल आर्य भी भाजपा में शामिल हो गए। चुनाव के एक माह पहले इस तरह का झटका कांग्रेस को बेहद कमजोर कर गया है। इनके पास नौ विधायकों का साथ है। आर्य छह बार कांग्रेस से विधायक रहे हैं। इसके पहले केदार सिंह रावत जैसा बड़ा नाम पहले ही भाजपा के खेमें में आ चुका है। विजय बहुगुणा तो पिछले साल भर से भाजपा के साथ हैं। यशपाल आर्य का प्रभाव नैनीताल और आस पास के क्षेत्रों में अच्छा माना जाता है। अब इस तरह से वर्तमान में इन्दिरा हृदयेश को छोड़कर कोई भी बड़ा नाम कांग्रेस में बचा नहीं है। सिर्फ अब एक यही नाम है जो हरीश रावत को कुछ चुनौती दे सकता है।
अब हरीश रावत ने खुद को एकला चलो की राह पर चला कर अपने लिये तो रास्ता साफ कर लिया पर कांग्रेस को चौपट कर दिया। अब कांग्रेस में तो वह एक बड़े नेता है पर कांग्रेस सत्ता से बाहर रहने वाली है। अब वह फिर पिछली 18 मार्च वाली स्थिति से भी बदतर स्थिति में आ चुके हैं जब न्यायालय ने सरकार पर सवाल उठाए थे। कांग्रेस की यही कमजोरी भाजपा की स्थिति को मजबूत कर रही है। इसके साथ ही एक बड़ा मुद्दा इस बार भाजपा के पास है। चूंकि, उत्तराखंड सैनिकों की भूमि है इसलिए यहां एक बड़ा वर्ग सैनिक परिवारों का है। भाजपा के द्वारा वैन रैंक-वन पेंशन एक बड़ा चुनावी मुद्दा होने जा रहा है।
युवाओं का रुझान होगा अहम, जोश में है उत्तराखंड का मतदाता
कहा जाता है जिस ओर जवानी चलती है उस ओर ज़माना चलता है। उत्तराखंड में इस बार युवा मतदाताओं की संख्या 57 प्रतिशत है। यह एक बड़ा वोट बैंक है। यह बदलाव चाहता है। इसे रोजगार चाहिए। देश हित की नीतियां चाहिए। सक्षम सरकारें चाहिए। यह भ्रष्टाचार से आजिज़ आ चुका है। राजनैतिक उथल पुथल से विचलित है। प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण होने के बावजूद देश के अन्य हिस्सों से तुलना करने पर अपने राज्य का पिछड़ापन देखकर खुद को असहज महसूस करता है। युवाओं का यह जोश और अपेक्षा इस बार उत्तराखंड में मतदान का प्रतिशत बढ़ा सकती है। चूंकि पहाड़ के क्षेत्रों में कांग्रेस के बड़े दिग्गजों के पार्टी छोडऩे से जो शून्य पैदा हुआ है उसको युवा भर सकते हैं। कई युवा कांग्रेसी इस तरह अपने लिये एक राजनैतिक कैरियर देखने लगे हैं। कांग्रेस में आया यह शून्य उनके लिये 2019 आते आते एक अच्छा संकेत भी दे सकता है। जहां तक युवा वोटर के रुझान का प्रश्न है वह केन्द्रीय नेतृत्व के चेहरे पर आश्रित है। इस मामले में भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व पर काफी भारी दिख रहा है। राहुल गांधी ऐसा कोई भी जोश नहीं भर पा रहे हैं जिसके द्वारा कांग्रेसी युवा उन्हें रोल मॉडल मान सके। टीम पीके ने अब कुछ समय उत्तराखंड में देना शुरू किया है पर अब काफी देर हो चुकी है। उत्तर प्रदेश की तरह उनकी नीतियों को यहां के कांग्रेसी भी पचा नहीं पा रहे हैं। पीके जिस जोड़ तोड़ के माहिर माने जाते हैं वह गणित उत्तराखंड में नहीं चल पा रहा है। यहां ऐसी कोई पार्टी नहीं है जिसके पास इतना वोट बैंक हो जिसके द्वारा कोई बड़ा चुनावी स्विंग प्राप्त कर पाएं। कांग्रेस के पास सिर्फ एक साथी पीडीएफ़ है और वह भी ज़्यादा विश्वसनीय नहीं है। चुनाव प्रचार में सोनिया, राहुल और हरीश रावत का दिखाना पीके का आइडिया था पर युवा उनसे जुड़ नहीं पा रहा है।
इसके उलट अगर भाजपा की ओर देखें तो स्थानीय नेताओं का नहीं लेकिन नरेंद्र मोदी का जादू यहां भी युवाओं के सिर पर दिखता है। अगर उत्तराखंड की चुनाव परिस्थितियों को कम शब्दों में कहना हो तो विकल्प की तलाश कर रही उत्तराखंडी जनता के पास अब भाजपा के अलावा किसी और को चुनने का विकल्प ही नहीं दिख रहा है। अब ऐसे में भाजपा कितना बड़ा स्वीप यहां कर पाती है यह उसके कार्यकर्ताओं की मेहनत और रणनीति कौशल पर निर्भर करता है। जितने बड़े दिग्गज इस समय भाजपा के पास है। जिस तरह का युवा जोश उसे समर्थन दे रहा है। जिस तरह महिलाओं का व्यापक समर्थन उसके साथ है ऐसे में सिर्फ भाजपा को अपने पुराने कद्दावरों के भीतरघात को ही नियंत्रित करना है। पुराने भाजपाइयों के टिकट कटने की स्थिति में वह टिकट आयातित कांग्रेसियों को मिल गए हैं। यदि भाजपा ने ऐसी सीटों पर अपने पुराने नेताओं को मना लिया तो इस बार एक प्रचंड बहुमत देवभूमि में भाजपा के लिये तैयार बैठा है।
पुत्र मोह में नारायण दत्त तिवारी भी हुये भाजपा के
उत्तराखंड की राजनीति में वह समय ऐतेहासिक था जब एक वयोवृद्ध कांग्रेसी दिग्गज ने भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात की। बहुत समय तक अपने पुत्र को ही पुत्र न मानने वाले तिवारी चार बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और उतराखंड की पहली सरकार के मुख्यमंत्री थे। काफी समय से वह शांत चल रहे थे और कांग्रेस में नेपथ्य में चले गए थे। अब जब उनके अंदर पुत्र मोह जागा तब उन्होंने अपने पुत्र के लिये कांग्रेस नहीं बल्कि भाजपा को एक बेहतर विकल्प समझा। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि उत्तराखंड कांग्रेस में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। हालांकि, भाजपा की तरफ से अभी रोहित शेखर को अभी उस लालकुआं विधानसभा से टिकट नहीं मिला है जिससे वह चाहते थे किन्तु फिर भी नारायण दत्त तिवारी एक बड़ा राजनैतिक नाम है। स्वयं भाजपाई भी मानते हैं कि वह मंच पर जिसे आशीर्वाद दे देंगे, वह विजेता होगा। भाजपा के लोग चाहते हैं कि भाजपा कहीं न कहीं से रोहित को टिकट दे ताकि नारायण दत्त तिवारी का इस्तेमाल किया जा सके।
2012 विधानसभा से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
दल सीटें वोट प्रतिशत
कांग्रेस 32 33.79
भाजपा 31 33.13
बसपा 03 12.19
यूकेडी 01 1.93
2017 विधानसभा चुनाव में कुछ प्रमुख मुद्दे
नोटबंदी का प्रभाव
अस्थिर वर्तमान सरकार
विकास, पहाड़ी इलाकों में अवैध खनन
आपदा से प्रभावित जनजीवन
एतेहासिक संपदाओं को संवारना
खनिज संपदाओं के धनी होने के बावजूद बढ़ती बेरोजगारी
उत्तराखंड में अभी मजबूत नहीं हुआ है लोकतन्त्र
उत्तराखंड का गठन 2002 में हुआ था किन्तु तब से आज तक के मतदान प्रतिशत के आंकड़े को देखने के बाद एक बेहद चौकाने वाली बात सामने आती है कि पिछले तीन चुनावों में लगभग 40 प्रतिशत मतदाता तो वोट डालने अपने घरों से निकले ही नहीं हैं। सन 2002 में 52.27 लाख मतदाता थे। इन वोटों का कुल 14.60 प्रतिशत प्राप्त करने वाली कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी थी। इसके बाद 2007 के विधानसभा चुनावों में मतदाताओं की संख्या बढ़कर 59.85 लाख हो गयी। इस बार भाजपा ने जोड़ तोड़ की सरकार बनायी। भाजपा को मिलने वाले मतों का प्रतिशत सिर्फ 20.11 प्रतिशत था। इसके बाद 2012 में मतदाताओं की संख्या बढ़कर 63.77 लाख हो गयी। इस बार सरकार बनाने वाली कांग्रेस को 22.51 प्रतिशत मत प्राप्त हुये। यह भी एक गठबंधन सरकार रही जिसमें पूरे पांच साल उठापटक का दौर चलता रहा। विजय बहुगुणा एवं हरीश रावत के कार्यकालों में हिचकोले खाते खाते जैसे तैसे इस सरकार ने पांच साल पूरे किए हैं। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले राष्ट्रपति शासन, इसके बाद हरीश रावत की सरकार बहाली का बड़ा सियासी ड्रामा इस कार्यकाल की पहचान रही है।
अब 2017 के विधानसभा चुनावों के लिए उत्तराखंड में कुल 60.82 लाख मतदाता है। यहां यह देखना रोचक होगा कि इस बार मतदान का प्रतिशत क्या रहता है। चमोली, उत्तरकाशी, टिहरी, रूद्रप्रयाग, पौड़ी, नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चंपावत और बागेश्वर जिलों के कम से कम 35 विधानसभा क्षेत्रों में 15 जनवरी से 20 फरवरी के बीच भारी हिमपात होता है और इस कारण इन क्षेत्रों में 500 पोलिंग बूथों के मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करने के लिये नहीं आ पाते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी वजह से मतदान का प्रतिशत गिर जाता है। अब उत्तराखंड में ऐसे स्थानों पर मार्च में चुनाव कराये जाने की आवाज़ें उठ रही हैं। यदि ऐसा हो पाता है तो उत्तराखंड में इस बार मत प्रतिशत में बदलाव देखने को मिलेगा।
मत प्रतिशत में कमी की एक वजह वोटर लिस्ट में धांधलियां भी रही हैं। अब तक ऐसा चलन रहा है कि एक नागरिक ने कई स्थानों पर अपने वोट बनवा रखे हैं। चूंकि वोट के दिन वह स्याही के निशान के कारण एक ही स्थान पर वोट दे पाता है ऐसे में पहाड़ी क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत कम हो जाता है। लोकतन्त्र की मजबूती के लिये इन दोनों गंभीर विषयों पर सुधार आवश्यक है। एक बड़ा सरकारी अमला जो उत्तराखंड में चुनाव प्रबंधन को देखेगा उसके लिये इससे निपटना एक चुनौती से कम नहीं होगा।