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भारतीय शिक्षण और संविधान की विचारधारा

भारतीय राजव्यवस्था में कार्यपालिका के सर्वोच्च अधिकारी केन्द्र में राष्ट्रपति और राज्यों में राज्यपाल होते हैं, फिर जनता की चुनी हुई सरकार के मुखिया के तौर पर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री व उनका मंत्रिपरिषद होता है। सत्ता की दो धूरी होने के कारण दोनों के बीच टकराव या मनमुटाव की स्थिति बन सकती है, स्वावभाविक है। यह मनमुटाव का कारण अगर संवैधानिक होगा तो परिणाम भी संविधान से निकलेगा लेकिन एक दूसरे को नीचा दिखाने या अपमानित करने के परिणामस्वरूप दोनों धूरी के बीच ठन जाए तो इसका समाधान कैसे निकले? छत्तीसगढ़ में पिछले डेढ़ साल में यह स्थिति बनती दिख रही है, खासकर उच्च शिक्षा विभाग से संबंधित विधानसभा में पारित किए गए विधेयक के संबंध में। संविधान की अपनी कोई विचारधारा नहीं है तो उनके अनुच्छेदों से बंधे संस्थान विचार की लड़ाई को संविधान की लड़ाई में तब्दील क्यों करना चाहते हैं?

मामला कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति का है। वैसे भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में 2005 में जब इस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तब से ही प्रदेश में  विश्वविद्यालय का नामकरण भाजपा के पितृपुरूष कुशाभाऊ ठाकरे के नाम पर करने का विरोध करते रहे हैं। पहली बात, क्या विश्वविद्यालय की पहचान क्या उसके नाम से होती है?  विश्वविद्यालय के भीतर अकादमिक गतिविधियों पर चर्चा शुरू करने के बजाय विचारधारा पर केन्द्रित चर्चा का दौर शुरू हो गया। प्रदेश में भाजपा के स्थान पर कांग्रेस पार्टी का शासन शुरू हुआ तब से ही पत्रकारिता विश्वविद्यालय राजनीति और वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों की आँख की किरकिरी बना हुआ है।

पिछले  डेढ वर्ष के दौरान पूर्व कुलपतियों ने जिन परिस्थितियों में अपना इस्तीफ़ा सौंपा क्या वह विश्वविद्यालय के लिए उचित था, दूसरी ओर लगभग एक साल तक संभागायुक्त को कुलपति का भार देकर एक अकादमिक वर्ष निकल गया, इस दौरान विश्वविद्यालय की अकादमिक दशा क्या हुई, इसकी किसी ने चिंता की? विश्वविद्यालय में कुलपति अपने मन का हो इसलिए कुलपति की नियुक्ति के लिए आवश्यक योग्यता में संशोधन कर दिया गया। इसके आधार पर आवेदन आमंत्रित किए गए, चयन समिति बनी, बैठक हुई और योग्यता के आधार पर बलदेवभाई शर्मा को कुलपति नियुक्त किया गया। क्या नियुक्ति की प्रक्रिया किसी चरण में अवैधानिक या नियम विरूद्ध है? अगर है तो शासन के पास नियुक्ति रद्द करने का अधिकार है लेकिन  विषय नियुक्ति में नियम व प्रक्रिया का नहीं है, एक विचारधारा का है।

दूसरी ओर विश्वविद्यालय का नाम बदल दिया गया, किसी भी शासन के पास किसी भी संस्थान के नाम परिवर्तन करने का अधिकार है राजनीतिक कदाचार भी तो होती है। कुशाभऊ ठाकरे भाजपा के महान संगठक और नेतृत्वकर्ता रहे, वे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और छत्तीसगढ़ में संगठन खड़ा करने का श्रेय उन्हें जाता है। अब सरकार एक नए संस्थान की स्थापना कुशाभाऊ के नाम से करे तो इसमें राजनीतिक ा बौद्धिक दुर्भावना क्यों होनी चाहिए? नाम बदलने की आवश्यकता क्या है? चंदूलाल चंद्राकर जी प्रदेश के बड़े पत्रकार हुए, उनके नाम से कोई संस्थान का नाम हो तो सरकार कोई नया संस्थान स्थापित कर सकती थी, किसी ऐसे संस्थान का नामकरण कर सकती थी जिसका नामकरण नहीं हुआ है। एक पार्टी के महापुरूष के नाम में परिवर्तन करना क्या दुर्भावना से प्रेरित नहीं है? क्या यह सत्ता और राजनीति में नए विकार को जन्म नहीं दे दिया?

राजनीति ने विचारधारा के मतभेद को संवैधानिक मतभेद में तब्दील कर दिया गया, चूंकि विश्वविद्यालय में कुलपति नियुक्ति का अधिकार राज्यपाल के पास है इसलिए यह अधिकार ही समाप्त कर दो। क्या यह एक संवैधानिक सोच है या व्यक्तिगत वैचारिक मतभेद  का संवैधानिक प्रकटीकरण है? चूंकि विधानसभा में सत्तापक्ष के पास पर्याप्त बहुमत है इसलिए विधेयक पारित हो गया, अब मामला फिर राज्यपाल की डेहरी पर अटका हुआ है। तो क्या यह मानें कि विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति राजनैतिक होती है और यह भी कि राजनीतिक विचारधारा भी नियुक्ति में अहम भूमिका निभाती है, अगर ऐसा है तो एक बात और है विचार करने योग्य।

प्रदेश में राज्य के अन्तर्गत 11 शासकीय विश्वविद्यालय हैं लेकिन कांटा केवल एक विश्वविद्यालय को लेकर लगा है, ऐसा क्यो? सभी ग्यारह विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने की थी, इसका मतलब यह कि सभी कुलपति विचारधारा आधारित राजनीतिक नियुक्ति थी। जब कांग्रेस पार्टी की सरकार आई तो 11 में से केवल तीन विश्वविद्यालयों, दुर्ग के हेमचंद्र यादव विवि, पत्रकारिता विवि और सरगुजा विवि के कुलपतियों से इस्तीफ़ा लिया गया, इतना ही नहीं एक दो विश्वविद्यालयों में कुलपतियों के तो पुनर्नियुक्ति भी मिली। सवाल उठता है कि शेष कुलपतियों को अभयदान क्यों दिया गया? इसके दो कारण हो सकते हैं, पहला कुलपतियों की नियुक्ति राजनैतिक व वैचारिक नहीं होती, यह विशुद्ध अकादमिक दृष्टिकोण से लिया गया निर्णय होता है और दूसरा कुलपतियों ने राजनीतिक प्रतिबद्धता बदल ली हो।

सच्चाई यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की वैचारिक प्रतिबद्धता होती ही है लेकिन किसी उच्च पद पर नियुक्ति कतिपय योग्यता के आधार पर किए जाते हैं। कुलपति पद की समाज में जो प्रतिष्ठा है उसके राजनीतिकरण करने से शिक्षण संस्थानों का नुकसान करने के अलावा कुछ और भला नहीं किया जा सकता। विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने वाले छात्रों की भी अपनी-अपनी राजनैतिक व वैचारिक प्रतिबद्धता होती है, क्या किसी विश्वविद्यालय में केवल एक राजनीतिक-वैचारिक दृष्टिकोण के छात्रों को प्रवेश मिलेगा, ऐसा हो सकता है? ऐसा तो दिल्ली के वामपंथियों के गढ़ माने जाने वाला जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में भी संभव नहीं है। फिर प्रदेश में विश्वविद्यालय को लेकर संवैधानिक द्वंद्व शुरू हुआ क्या वह उचित है?

सभी विश्वविद्यालयों की अपेक्षा कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय पर बुद्धिजीवी वर्ग, राजनीति और सरकार की रूचि इसलिए है क्योंकि सभी पत्रकारिता के विचार और सोच पर नियंत्रण करना चाहते हैं। यह केवल विश्वविद्यालय का मामला नहीं है, समाज में बौद्धिक और वैचारिक नियंत्रण का मामला है। भले ही संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता हो लेकिन उस पर नियंत्रण की मंशा तो सत्ता की हमेशा रही है। सरकार पत्रकारिता विश्वविद्यालय की स्थापना करती भले ही हैं लेकिन सत्ता कभी ईमानदार, निर्भीक और तटस्थ पत्रकार चाहती है क्या? दरअसल विषय के मूल में ही दोगलापन है वहां राजनीति, द्वंद्व नहीं होगा तो क्या होगा?

शशांक शर्मा, रायपुर

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