भारत के पड़ौसी देशों में चीन का दबदबा पहले से बढ़ा हुआ है लेकिन अब उसने ईरान पर भी डोरे डाल दिए हैं। अब वह ईरान में 400 बिलियन डाॅलर की पूंजी लगाएगा। अगले 25 साल के दौरान होनेवाले इस विनियोग से ईरान में क्या-क्या नहीं होगा ? सड़कें बनेंगी, रेलें डलेंगी, बंदरगाह खड़े होंगे, बैंकिंग और संचार को नए आयाम मिलेंगे, नए अस्पताल और स्कूल खुलेंगे। फौजी सहयोग बढ़ेगा। चीन ईरानी फौजियों को प्रशिक्षित करेगा, शस्त्रास्त्र देगा, जासूसी-सूचना का आदान-प्रदान करेगा और ‘आतंकवाद’, आदि से लड़ने में मदद करेगा। यह खबर निकली है, उस 18 पेज के दसतावेज़ से, जो न्यूयार्क टाइम्स में छपा है।
कोई आश्चर्य नहीं कि चीन को ईरान अपना सामरिक अड्डा बनाने के लिए भी कोई जगह दे दे। यदि ऐसा हुआ तो चीन खाड़ी और पश्चिम एशिया के क्षेत्रों में अपना वर्चस्व कायम करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। वह ईरान को अपना अड्डा बनाकर अमेरिका के ‘पिट्ठुओं’ इस्राइल और सउदी अरब को सबक सिखाने की कोशिश करेगा। जाहिर है कि ऐसा होने पर फिलस्तीन, सीरिया और तुर्की के मामले भी गर्म होने लगेंगे।
ईरान में बढ़ते ही चीनी प्रभाव का सीधा कुप्रभाव भारत पर होगा। हमने अफगानिस्तान में 200 किमी की जरंज-दिलाराम सड़क इसीलिए बनाई थी कि अफगान और मध्य एशियाई बाजारों तक पहुंचाने के लिए हम पाकिस्तान पर निर्भर न रहें। इस सड़क को ईरान और मध्य एशिया के राष्ट्रों से जोड़ने के लिए भारत और ईरान ने मिलकर दो समझौते किए थे। एक तो चाहबहार-जाहिदान सड़क बनाने का और दूसरा चाहबहार के बंदरगाह को तैयार करने का। 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तेहरान-यात्रा के दौरान ये समझौते हुए थे। उसके बाद नीतिन गडकरी भी खुद तेहरान जाकर इन परियोजनाओं पर उत्साहपूर्ण घोषणाएं कर चुके थे लेकिन अभी तक ये अधर में ही लटकी हुई हैं।
इसका मुख्य कारण अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का दुराग्रह ही है। ट्रंप यह मानकर चल रहे हैं, रिचर्ड निक्सन की तरह कि ईरान तो ‘दुष्टता का अवतार’ है। वह परमाणु बम जरुर बना रहा है। इसीलिए ट्रंप ने अमेरिका को 2015 के उस परमाणु समझौते से अलग कर लिया है, जो तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा और छह राष्ट्रों ने मिलकर ईरान के साथ किया था। दो वर्ष की कड़ी जद्दोजहद के बाद इस समझौते के बाद ईरान पर लगे प्रतिबंध उठा लिये गए थे और ईरान ने अपने परमाणु-संयंत्रों पर अंतरराष्ट्रीय निगरानी स्वीकार कर ली थी।
लेकिन ट्रंप ने सिर्फ ईरान पर ही प्रतिबंध नहीं लगाए, उन्होंने ईरानी सरकार के साथ सहयोग करनेवाले देशों पर भी प्रतिबंध लगा दिए। उसके कारण ईरान की अर्थ-व्यवस्था चौपट होने लगी। उसके तेल की बिक्री काफी घट गई। अंतरराष्ट्रीय बैंकों ने ईरान से लेन-देन के व्यवहार पर रोक लगा दी। हालांकि ट्रंप प्रशासन ने भारत द्वारा चलाए जा रही चाहबहार और जाहिदान-सड़क की परियोजनाओं पर प्रतिबंधों में छूट दे दी थी लेकिन वे इसलिए नहीं चलाई जा सकीं कि उनके लिए उपकरणों, यंत्रों और भागीदारों को ढूंढना मुश्किल हो रहा था। सिर्फ भारत ही नहीं, यूरोपीय देशों के सहयोग से चलनेवाली कई अन्य परियोजनाएं भी ठप्प होने लगी थीं। कोरोना ने तो विकराल रुप ले ही लिया था, ईरान के मनोबल को प्रकंपित करने में उसकी निष्प्राण होती अर्थ-व्यवस्था ने खतरे की घंटियां बजा दी थीं।
ऐसी अवस्था में ईरान-जैसे स्वाभिमानी देश को भी चीन की शरण में जाना पड़ा। 2016 में चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग ने अपनी तेहरान-यात्रा के दौरान ईरान के साथ व्यापक सामरिक और आर्थिक सहयोग का प्रस्ताव रखा था लेकिन ईरान ने पिछले चार साल से उसे हरी झंडी नहीं दी थी लेकिन अब मरता, क्या नहीं करता ? जब शीघ्र ही ईरानी संसद इस समझौते पर मुहर लगानेवाली है। यदि चीन और ईरान का यह समझौता लागू हो गया तो पाकिस्तान और ईरान की घनिष्टता बढ़ेगी। इन दोनों सुन्नी और शिया देशों में कई तरह के तनाव, खिंचाव और वेबनाव हैं। चीन उन पर मरहम लगाएगा और अपने राष्ट्रहित को आगे बढ़ाएगा। उसकी ‘रेशम महापथ’ की विशाल योजना को जबर्दस्त उठान मिलेगा। इस समय ईरान कोशिश करेगा कि पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह और चाहबहार के बीच सीधा संबंध बन जाए। ग्वादर बंदरगाह पर चीन पूरी तरह से हावी है। चीन को ईरान ‘बदरे-जस्क’ बंदरगाह भी दे सकता है, जो चाहबहार से 350 किमी दूर है। चीन चाहेगा कि ईरानी तेल तथा अन्य खदानों के उत्खनन का काम भी उसे मिले ताकि वह अपनी तेल की 70 प्रतिशत जरुरत को पूरा कर सके तथा अफगानिस्तान और मध्य एशिया के पांचों मुस्लिम राष्ट्रों की खदानों में दबे अकूत भंडारों का दोहन भी कर सके। इस स्वार्थ की पूर्ति के लिए कम्युनिज़्म में विश्वास करनेवाले चीनी नेता पाकिस्तान के ‘इस्लामी तार’ का फायदा उठाने से चूकनेवाले नहीं हैं।
हालांकि इस वक्त अफगानिस्तान में भारत के प्रति गहरी घनिष्टता का भाव है और भारत ने वहां 3 बिलियन डाॅलर से अधिक खर्च भी किया है लेकिन दशकों से चीन की नजरें अफगानिस्तान की तांबे की खदानों और लोहे के पहाड़ों पर हैं। यदि पाकिस्तान के साथ-साथ ईरान में भी चीन की दुकान जम गई तो अफगानिस्तान भी उसकी पकड़ के बाहर नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में दक्षिण एशिया, जो कि वास्तव में, प्राचीन भारत ही है, में भारत की बजाय चीन की तूती बोलने लगेगी। मध्य एशिया के पांचों राष्ट्र असीम संपदासपन्न हैं। वे कई दशकों तक सोवियत रुस के अंग बनकर रहे लेकिन यदि चीन की पकड़ उनमें बढ़ गई तो यह मानकर चलिए कि जो चीन, आज भारत से पांच गुना संपन्न है, उसे विश्व शक्ति बनते देर नहीं लगेगी। यों भी पिछले 15-20 साल में दक्षिण एशिया के साथ चीन का व्यापार 23 गुना बढ़कर 5.57 बिलियन डाॅलर से 127.36 बिलियन डाॅलर का हो गया है। भारत के पड़ौसी देशों– नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार तक वह सड़कें बना रहा है और श्रीलंका व मालदीव में भी उसने अपने कई ठिकाने बना लिये हैं। भारत-चीन तनाव फिलहाल छट रहा है लेकिन चीन-ईरान सांठ-गांठ भारत को सतर्क होने का संकेत दे रही है।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक