साल 1993 केतन शाह के निर्देशन में एक फ़िल्म बनती है, राज बब्बर और फारूक शेख जैसे कद्दावर अभिनेताओं के साथ आते हैं शाहरुख खान, सितारा नहीं अभिनेता शाहरुख, फ़िल्म की यूएसपी है उसका बोल्ड सीन, न्यूडिटी और अश्लीलता के बीच की महीन रेखा को फ़िल्म बचा ले जाने में कामयाब रहती है और नेशनल अवॉर्ड तक ले जाती है। क्रिटिक प्रशंसा से थक नहीं रहे होते… फ़िल्म का नाम…
नहीं अभी नहीं बाद में बताऊंगी..अभी के लिए माज़रत…
फ़िल्म की कहानी अडॉल्ट्री यानि विवाहेत्तर संबंध पर बेस्ड है जिसे एक फ्रेंच नॉवेल ‘Madame Bovary’ के आधार पर बनाया गया है।
90 के दशक में ऐसी खूबसूरत फ़िल्म रचना जिसे आप किसी आधार पर खारिज़ ना कर सकें बहुत दिलेरी का काम था। दिलेरी इसलिए क्योंकि ये वही दौर था जब ममता कुलकर्णी को अश्लीलता के लिए आजीवन बैन कर दिया गया था।
दीपा जो केतन की पत्नी भी हैं, की यह पहली फ़िल्म थी जिसमें उन्होंने न्यूड सीन दिया है और बावजूद इसके वो अपनी अदाकारी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार ले जाती हैं… ये आश्चर्य ही है क्योंकि इसके ठीक दो साल बाद यानी 95 में ममता कुलकर्णी पर हाफ न्यूड फोटोशूट के लिए हाई कोर्ट में केस हुआ … न्यूड सीन होने के बावजूद फ़िल्म को देखकर एक पल को ये नहीं लगता कि ये सीन अनर्गल है।
अपनी बोल्ड कहानी के कारण ही नहीं ये फ़िल्म खास है अपने तकनीकी पक्ष के कारण भी। 90 के दशक में हर सीन की परफेक्ट लाइटिंग, फोकस और तकनीक का आर्टिस्टिकली पर्फेक्ट होना वाकई ताज्जुब है क्योंकि एक तो इसकी समझ और एक्सपेरिमेंट की यह भूख बॉलीवुड में तुलनात्मक तौर पर कुछ कम ही मिलती है(अपवाद हैं और इसलिए वे लीजेंड्स हैं तो नो ऑफेंस प्लीज़) और दूसरा यह कि स्टिल फोटोज़, ऐंगल, ब्लर बैकग्राउंड सब सटीक और भीतर तक उतरते हैं जो उस दौर के लिहाज से वाकई बेजोड़ हैं सच कहूँ तो अब भी…
फ़िल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती हैं अदाकारा दीपा साही जो पूरी फ़िल्म में एक कड़ी के तौर पर काम करती हैं,वो कड़ी जिससे आप एक पल को नज़र नहीं हटा पाते, संदली सी रंगत बोलती हुई सी आँखे, गर्ल नैक्स्ट डोर वाली मुस्कान और आखिर में एलीटनेस वाला दर्प और क्लास…
दीपा का किरदार है एक ऐसी औरत का जिससे सब प्यार तो करते हैं पर अपना पाने या बांध पाने का साहस नहीं कर पाते, जिसे प्रेम की आंच के अलावा और कुछ पिघला नहीं सकता, समाज के नियमों कानूनों को धता बता कर भी ये ज़हीन लड़की खुद से नफ़रत नहीं होने देती, वो गाती है लिखती है और प्रेम करती है…पर भरोसे की बिसात पर हर बार छली जाती है, उसके ख़्वाब बड़े हैं वृहद आकाश जितने बड़े, जिसे उसके प्रेमी कभी पूरा नहीं कर पाते, ग़लत सही की उहापोह में वो हमेशा दिल की सुनती है…मात खाती जाती है उसे या तो प्रेमी मिलते हैं या साथी ही दोनों को एक साथ पाने की उसकी जुस्तजू बनी रहती है…
अपना क्लास मेंटेन करने को उधार पर जीती इस लड़की पर आपको पूरी फ़िल्म के दौरान प्यार आएगा, सहानुभूति होगी, शायद गुस्सा भी आए ठीक उसी वक़्त समानांतर में ज़िन्दगी को लेकर उसकी महत्वकांक्षा आपके दिल में भी एक हूक सी पैदा कर दे लेकिन अपने सीधे सादे पति से धोखा करते इस किरदार के लिए आप अपने मन में वितृष्णा का भाव चाह कर भी नहीं ला पाएंगे।
दीपा अपने इस किरदार के साथ पूरा न्याय करती हैं। अपनी कटीली भवों को तनिक सा ऊंचा नीचा करके किरदार के मन के भावों को उकेर ले जाने का माद्दा वो पूरी फ़िल्म में बखूबी साबित करती हैं। वॉयलिन की धुन की तरह कहीं भीतर उतरते हुए पूरी फ़िल्म अगर सिम्फ़नी सी लगती है तो मैं इसके श्रेय का एक बड़ा हिस्सा दीपा के नाम करना चाहूँगी। इस विषय पर बॉलीवुड में बनी फिल्मों में यह सबसे शानदार फ़िल्म कही जा सकती है हालांकि देवानंद और वहीदा रहमान की गाइड भी इसी विषय पर है पर अंत में अध्यात्म का जुड़ जाना , मेरे लिए इसे आम आदमी की फ़िल्म नहीं रहने देता…
फ़िल्म बॉलीवुड में बनी थी तो कुछ क्लीशे होने तय थे, तार्किक तौर पर वे सीन इतने उथले थे कि पूरी फ़िल्म का सिंक टूटता सा लगता है। उदाहरण के तौर पर हीरोइन की उड़ती साड़ी, पहाड़ के खूबसूरत पर रिपिटेटिव स्टील्ज़ और बेवजह को ठूँसा हुआ गाना, गाना इतना गैर ज़रूरी था कि मुझे बोल तक याद नहीं.. मैं फ़ास्ट फॉरवर्ड कर गाना ख़त्म कर देती हूं.. फिर भी इस फ़िल्म के गानों को खारिज नहीं किया जा सकता।
करें भी कैसे गुलज़ार के शानदार मौजूँ अल्फाज़ लता मंगेशकर के छोटे भाई हृदयनाथ मंगेशकर के दिलकश संगीत और खुद लता मंगेश्कर की आवाज़ के साथ आप ऐसी गुस्ताखी कर ही नहीं सकते…
एक तरफ जहाँ टाइटल ट्रैक ‘एक हसीन निगाह का साया’ आपके ज़हन में लंबे वक़्त तक पैठ बनाए रखता है तो दूसरी तरफ ‘खुद से बातें करते रहना’ गीत किसी मायावी किले से आती हिप्नोटिक आवाज़ लगता है, ‘मेरे सिरहाने जलाओ सपने’ गीत तो किसी काली शक्ति के जादू सा आपके पूरे वजूद पर असर करता है…जिसके खत्म होते होते आप इसके ऐडिक्ट हो जाते हैं, इस गाने को मैं रिपीट मोड पर सुनती हूँ और ये जादू घूंट घूंट अपने भीतर पहुंचता महसूस करती हूँ…
राजपाल यादव ओम पुरी से लेकर परेश रावल तक सब इस फ़िल्म में ठीक उसी तरह काम करते हैं जैसे किसी पज़ल को जोड़ते समय उसके छोटे फिर भी ज़रूरी हिस्से, जिनके बिना यह फ़िल्म पूरी नहीं होती और हो भी जाती तो वो नहीं होती जो यह थी…
फ़िल्म ख़त्म होती है मुख्य किरदार यानी दीपा साही की मौत से, मुख्य किरदार यानी फ़िल्म का नाम, जिसे अब तक समझा जा चुका होगा फ़िल्म थी ‘माया मेमसाब’…हाँ यह फ़िल्म माया की है हर उस माया की जो महत्वकांक्षाओं की आग में खुद को झोंक देती हैं…
ये माया भी किसी ज़हर से नहीं मरती, वो मरती है अपनी ही महत्वकांक्षाओं से।
कड़वा सच है कि प्रेम हमेशा रोमानी नहीं रहता, वास्तविकता के धरातल पे एक वक़्त के बाद उबाऊ, बोझिल बेरंग हो के ख़त्म हो जाता है,आपकी महत्वकांक्षा यहां मर जानी चाहिए ना मरे तो पीछे रह जाता है महज़ दंश, चुभने के लिए… माया प्रेम की उसी महत्वकांक्षा के दंश से श्रापित हो मौत की हो जाती है… ज़िन्दगी की औकात भी नहीं थी माया से पार पाने की..
फिर बैकग्राउंड में वही गीत बजता सुनाई पड़ता है…
“जादू है जुनून है कैसी माया है…
ये माया है…”
और मैं सोचने लगती हूँ… कितनी ही माया यूं ही चली जाती हैं..रंगबिरंगे काँच के टुकड़ों जैसा जीवन जीकर ….जिनकी ना तो रौशनी उनकी होती है ना उनकी चमक का वजूद ही.. सही ग़लत से परे दिल की सुनने की कीमत चुकाकर…वही दिल जिसे पाँव की ज़मीन से ज़्यादा ऊंचे आसमान की चाहत है…
– शालिनी