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21वीं शताब्दी के डिजिटल दौर पर वैदिक ‘चश्मा’!

21वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में आईटी क्रान्ति का डिजिटल दौर चल रहा है। पेपरलैश कारोबार को तब निर्ग्रन्थ व्यवस्था थी जो स्मृतिपटल पर चिरस्थाई रूप से सुरक्षित होती थी और सतत् अपग्रेड होती रहती थी। कैशलैश पुरानी परम्परा रही, व्यक्ति की क्रेडिट कार्ड के रूप में व्यक्तित्व नगदी के बगैर जीवन निर्वाह का आधार था। कृषि प्रधान देश में समाज का प्रत्येक वर्ग बिना नगद व्यवहार के सेवा भाव से स्वाभाविक वर्णाश्रम धर्म का निर्वाह करता था, फसल उठने पर बिना लिखापढ़ी के ही प्रत्येक क्रिया कलाप का वार्षिक लेन देन वहैसियत अपग्रेट होता था। तब साइबर क्राइम का खतरा कतई नहीं था। इसी क्रम में कुछेक विन्दुओं को अतीत से वर्तमान का तुलनात्मक विश्लेषण करने का प्रयास है, प्रकृतिवादी अतीत के उस दौर में प्राकृतिक घटक पशु-पक्षी, जल-वायु, आदि दैवीय आपदा का पूर्वानुमान लगाकर संकेत देने की सामथ्र्य रखते है। दरअसल ‘‘दुनिया को मुट्ठी में करने की करने की बजाय तब मुट्ठी की भी जरूरत नहीं थी।’’ क्योंकि मानव शरीर एक ही कंप्यूटर है- सगुणात्मक तत्व हार्डवेयर है, जिसके अंतर्गत हैं इन्द्रियां, त्वचा, रक्त, मज्जा, अस्थि आदि। निर्गुनात्मक तत्व साफ्टवेयर है, जिसके अंतर्गत हैं मन, बुद्धि, आत्मा, अहंकार आदि। शरीर में मस्तिष्क हार्डडिस्क है, और सारा दारोमदार इसी पर होता है। हार्ड डिस्क को नमी व डस्ट से बचाने को वातानुकूलित कक्ष की व्यवस्था की जाती है, ईश्वर ने मस्तिष्क की सुरक्षा के लिए सर पर बाल दिए, शास्त्रों ने और ठंडा रखने हेतु चंदन लेपन की व्यवस्था दी, फिर भी धूप और शीत से वचाव हेतु सर ढांके रखने की आवश्यकता महसूस की गयी। अधिक तापमान में सिस्टम हंग होने लगता है और उसी तरह दिमाग भी काम करना बंद कर देता है। कभी-कभी बात करते बक्त व्यक्ति भूल जाता है कि वह क्या कह रहा था? यही तो हंग होना है। जिस तरह हार्ड डिस्क अलग-अलग मैमोरी की होती है उसी तरह मस्तिष्क की भी क्षमता और गति भिन्न-भिन्न है, हार्ड डिस्क का फेल होना ही ब्रेन हेमरेज है। यदि इलाज से सुधर हो गया तो ठीक, वरना मृत्यु। सगुणात्मक तत्व हार्डवेयर की सारी गतिविधि निर्गुनात्मक तत्व साफ्टवेयर पर निर्भर है, यानि सभी 10 इन्द्रियां पूरी तरह मन के अनुसार चलतीं हैं। मन बुद्धि को प्रभावित करता है , आत्मा मुख्य रूप से कंप्यूटर की विंडो है। कर्मेन्द्रियों-ज्ञानेन्द्रियों के प्रत्येक क्रिया कलाप व अनुभूति मस्तिष्क रूपी हार्ड डिस्क की मैमोरी में सुरक्षित (सेव) रहती है यानि स्मृति पटल पर अंकित रहती है। वाइरस- जिस तरह से वाइरस कंप्यूटर को निष्क्रिय कर देता है, उसी तरह संशय, भ्रम और गलतफहमी जैसे वाइरस मानव-जीवन को बर्वाद कर देते हैं। वाइरस विभिन्न कम्प्यूटर्स में प्रयोग की गई फ्लापी, सीडी, पेन ड्राइव या इंटरनेट से आता है, और दूषित मानसिकता वाले लोगों से मिलने-जुलने, कानाफूसी होने से दिमागी वाइरस आते हैं। वाइरस नष्ट करने को एंटी वाइरस स्कैन करना होता है उसी तरह सत्संग, धर्म-शास्त्रों के अध्ययन व चिंतन रूपी स्कैनिंग से संशय, भ्रम और गलतफहमी जैसे तनाव-वाइरस नष्ट होते हैं। समझदार लोग निरंतर करते रहते है सत्संग, धर्म-शास्त्रों के अध्ययन व चिंतन रूपी एंटी वाइरस करते रहते हैं, उनका मस्तिष्क तनावमुक्त रहता है। सोशल मीडिया की दुनिया में चैट एक ऐसा शब्द है। जो बेहद आम है, लेकिन सदियों पहले वैदिक काल में चैट होती थी। लोग आपस में चैट किया करते थे। लंकाधिराज रावण ने पातालनरेश अहिरावण को जिस माध्यम से सन्देश भेजकर बुलाया था, वह तात्कालिक ‘ईमेल’ था। संदेशों का आदान-प्रदान अध्यात्म जगत द्वारा (हाई फाई यानी परिष्कृत विज्ञान क्षेत्र) मन की कनेक्टीविटी से ही होता था। टेलीपैथी के जरिए भी लोग आपस में संवाद करते थे। इसमें दूर बैठा व्यक्ति आंख बंद कर, जिससे बात करनी है उसके मन से संपर्क करता और इस तरह मन ही मन दो लोगों की चर्चा हुआ करती थी। हालांकि यह पूरी प्रक्रिया विषय विशेषज्ञ या फिर ऋषि मुनि ही करते थे। जनसामान्य प्रकृति के अवयवों से संदेशों का आदान-प्रदान करते थे। सदियों पहले कबूतर से संदेश भेजा जाता था। कई पौराणिक और ऐतिहासिक कहानियां में इस बात का जिक्र मिलता है। इसके लिए कबूतरों को पहले बेहतर प्रशिक्षण दिया जाता था। यहीं नहीं, वैदिक काल में पालतू जानवरों के जरिए भी बातचीत का सिलसिला जारी रहता था। कालिदास का मेघदूत संदेश वाहक मेघ का प्रामाणिक वांग्मय है। इसके अलावा, जानवरों पर रंगों से विशेष चिन्ह बना दिए जाते थे। और बाद में संदेश मिल जाने पर, अगला व्यक्ति ठीक कुछ इसी तरह के चिन्ह बनाकर भेजता था। यह चिन्ह ही चैट का जरिया होते थे। आज सोशल मीडिया में व्हाट्स-अप काफी लोकप्रिय है, हर वर्ग के लोग कर्तव्य कर्म छोड़कर स्मार्ट फोन में मग्न रहते है। काफी नजदीक होकर भी मुंह से वात करने की बजाय व्हाट्स-अप का मजा ही अलग है। पहले इशारों की भाषा में स्त्रियां बात किया करती थी। यहां फिर भी हाथ में मोबाइल पर थिरकती उंगलिया दिखती है, किन्तु तब की चैटिंग को बिहारी ने श्रंगार शतक में इस तरह लिखा- ‘‘कहत, नटत, रीझत, खिजत, मिलत, बहुत लजियात। भरे भैन में करत हों नयनन ही सों बात।’’ इस चैटिंग में सहज वार्ता, आकर्षण, संमोहन, समर्पण, मिलन, लज्जा सहित अभिव्यक्ति के सभी भाव मात्र नेत्रों से संभव रहे।
– आचार्य देवेश अवस्थी (शास्त्री)

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