उत्तर प्रदेश में अब सियासत की महाभारत का मैदान सज चुका है। सभी दलों के योद्धा निर्धारित हो चुके हैं। सब के सब अपने अपने निर्धारित चुनाव क्षेत्रों में जीत के दावे करने लगे हैं। कई महीनों की नूरा कुश्ती के बाद सपा के चाल, चरित्र और चेहरे को नया रंग रोगन करके बाज़ार में लाया जा चुका है। अखिलेश यादव अब साढ़े चार मुख्यमंत्री में आधे नहीं बल्कि पूरे सेनापति बनाके पेश किये जा चुके हैं। नेताजी के द्वारा जिस तरह से अपने बेटे को विरासत सौंपी गयी है उसमें पूरे देश को मज़ा आया। एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी यह समझ रहा है कि यह सब एक पिता द्वारा पुत्र के व्यक्तित्व को चमकाने की कवायद थी। जिस तरह फिल्म में खलनायक जितना बड़ा होता है, नायक उतना ही बड़ा बनकर उभरता है ठीक वैसे ही शिवपाल को बड़ा खलनायक बना कर पेश किया गया। पर एक बात समझ में किसी को नहीं आयी कि शिवपाल को खलनायक बनाने के नेताजी के जिस दांव को सबने समझ लिया उसको शिवपाल आखिर तक क्यों नहीं समझ पाये? सपा से बाहर आने जाने का मंथली पास बनवा चुके प्रोफेसर साहब अब भाजपा के करीबी हैं या सपा के, यह समझने के लिये तो चुनाव परिणामों का इंतज़ार करना होगा। जहां तक बात है भाजपा की, तो अब वह नोट बंदी के धुएं से उठे गुबार से उबर चुकी है। पर एक नया गुबार अब उसके सामने है। पुराने भाजपाइयों को टिकट न मिलने का गुबार। बसपा नोटबंदी के बाद से लाचार है और उनके प्रत्याशी अभी भी चुनाव प्रचार में कम गुलाबी नोटों की जुगाड़ में ज़्यादा दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस को थोड़ी बहुत आस सपा के साथ गठबंधन से दिखाई दी थी पर वह आस भी अब जाती रही। कुल मिलाकर खेल रोचक बन गया है और खेल का असली पर्दा तब उठेगा जब प्रधानमंत्री मोदी द्वारा बजट में कुछ लोक लुभावन घोषणाएं की जाएंगी। उत्तर प्रदेश से विशेष संवाददाता अमित त्यागी की एक खास रिपोर्ट।
आज से चालीस साल पहले 1977 में 18 जनवरी का दिन था जब तानाशाही की प्रतीक एक कांग्रेसी इन्दिरा गांधी ने आज के समाजवादी और तत्कालीन लोहियावादी नेताओं को जेल से रिहा किया था। ये सभी नेता जिसमें मुलायम सिंह यादव भी शामिल थे, लगभग उन्नीस माह जेलों में बिताकर वापस आए थे। अखिलेश यादव की उम्र उस समय लगभग तीन चार वर्ष की रही होगी। इसके बाद चुनाव हुये और कांग्रेस ने लोकसभा की सभी 85 सीटें गंवा दी थी। कांग्रेस के विरोध के द्वारा लोहियावादी मुलायम सिंह यादव एक बड़े नेता बनकर उभरे। इसके बाद 1989 के वर्ष में जब समाजवादी पार्टी पहली बार सत्ता में आई तब भी उसने कांग्रेस को पटखनी दे कर विजय प्राप्त की थी। उस समय किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि कभी यही समाजवादी पार्टी आगे जाकर कांग्रेस से गठबंधन भी कर सकती है।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस से समाजवादी प्रेम अभी अभी उपजा है। यह तो समय समय पर अपने फायदे के लिए होता रहा है। वैचारिक अंतद्र्वन्द्व दिखाकर अलग अलग रहने वाले राजनैतिक दल स्वार्थ के लिये एक हो ही जाते हैं। परमाणु संधि के समय मनमोहन सरकार को मुलायम सिंह ने समर्थन किया था। इस संधि के पास होने में मुलायम सिंह का समर्थन बेहद आवश्यक था। ऐसा सुना जाता है कि उस समय अमर सिंह का मुलायम पर दबाव था और परमाणु संधि के जरिये अमर सिंह के व्यापारिक हित सध गए थे। अब अंदर की बात तो अंदर वाले ही जान सकते हैं किन्तु कहीं न कहीं आज की राजनीति विचारधारा का खेल न होकर व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति का माध्यम बनकर रह गयी है। कभी सत्तासीन कांग्रेस का डर दिखाकर उसके विरोध में एक जुट होने वाले क्षेत्रीय दल आज सत्ता धारी भाजपा का डर दिखाकर उसके विरोध में एक हो रहे हैं। इस गठबंधन में न विचारधारा पहले कहीं थीं न आज कहीं है। वोट बैंक की राजनीति पहले भी थी और आज भी है। पहले एक बड़ा वर्ग कांग्रेस को वोट करता था तो आज भाजपा को। इसलिए आज भाजपा का डर दिखाकर उसके विरोधी एकजुट हो रहे हैं। भाजपा का मुख्य वोटबैंक हिन्दू हैं। इसलिए गैर हिन्दुओं को भाजपा का डर दिखाकर उनके नाम पर एक होने का बहाना ये सारे दल बनाते रहे हैं। मुस्लिमों में एक बड़ा वर्ग जो अशिक्षित है, वह इनके झांसे में आया हुआ है। शिक्षित मुस्लिम अगर भाजपा के पक्ष में नहीं हैं तो उनके विरोध में भी नहीं हैं।
जैसे अभी कुछ समय पहले स्वतंत्रता सेनानी व आज़ाद भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद के पोते और मशहूर शिक्षाविद फिरोज बख्त अहमद ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हुए कहा कि वे सही रास्ते पर जा रहे हैं। हो सकता है कि ज्यादातर मुसलमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पसंद नहीं करते लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि कई अब उन्हें पसंद करने लगे हैं। वे जो सोचते हैं उस तरीके को कई मुसलमान मानने लगे हैं। यह बयान बताने के पीछे मेरा तर्क है कि सिर्फ मुस्लिम विरोध दिखाकर मोदी विरोधी एक जुट होने का बहाना ढूंढते हैं। असली लड़ाई मुस्लिमों के वोट पाने की है। मुस्लिमों के उत्थान पर किसी का ध्यान नहीं है। कांग्रेस और सपा साथ सिर्फ इसलिए आये ताकि मुस्लिम वोटों का बंटवारा न हो जाये। मायावती ने अपने जो उम्मीदवार घोषित किए हैं उसमें भी मुस्लिम बड़ी संख्या में हैं। उनकी निगाह भी मुस्लिम वोटों पर है। उनके एक तिहाई के आस पास प्रत्याशी मुस्लिम हैं। अब उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद भी जिस तरह से अघोषित रूप से धर्म की राजनीति हो रही है उसे सिर्फ वोटर ही बंद कर सकता है। पर यह कहना जितना सरल है इसका होना उतना ही नामुमकिन। हम कितनी भी बड़ी बड़ी बातें कर लें। कितना भी चिंतन कर लें। चुनाव के दिन का माहौल जाति और धर्म के आधार पर बना दिया जाता है। लोग उसी रौ में बह जाते हैं।
चूंकि, सिर्फ मुस्लिम वोटों के आधार पर सरकार नहीं बन सकती है इसलिए हिन्दू वोट बैंक में से जाति आधारित कार्ड खेला जाता है। यादव सपा और जाटव बसपा के साथ रहता है। भाजपा सवर्णों पर आधारित रहती है। युवाओं में लोकप्रिय मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी छवि को युवाओं में लोकप्रिय बनाने के लिये जिस तरह ‘सिप्पाल चाचा’ को खलनायक बना दिया वह एक नए समाजवाद का उदय है। अखिलेश पर जितने भी आरोप थे सब धुल गये। साढ़े चार मुख्यमंत्री की सरकार को उन्होंने चुनाव आते आते एक मुख्यमंत्री का कर लिया। स्वयं को सपा में एक सर्वमान्य नेता एवं युवाओं में लोकप्रिय कर लिया।
समाजवाद के नाम पर पहले मुलायमवाद, अब अखिलेशवाद
शायद यही चाहते थे मुलायम सिंह यादव। कैसे भी किसी तरह से भी उनके बेटे अखिलेश यादव एक सर्वमान्य चेहरा बन जाएं। अब राजनीति बदल जो रही है। अब जनता में साफ चेहरे पर वोट मिलते हैं। इसी तजऱ् पर पहले 2012 में अखिलेश यादव के साफ चेहरे को आगे किया गया। पार्टी के अंदर जोड़ तोड़ का काम शिवपाल करते रहे। इसके पहले मुलायम सिंह चेहरा बने रहते थे और काम शिवपाल करते रहते थे। अब 2017 आते आते अखिलेश पर लगे ठप्पे को हटाने के लिये नेताजी ने अपने ही भाई को बलि का बकरा बना दिया। चूंकि पूरे खेल में मुलायम सिंह अपने भाई के साथ खड़े दिखाई देते रहे इसलिए आखिर तक शिवपाल यह समझ ही नहीं पाये कि यह नेताजी के द्वारा उनको ही किनारे लगाने की प्रक्रिया है कानून व्यवस्था और महिला अपराध के मुद्दे को अखिलेश यादव के साफ चेहरे ने ढक दिया है। खनन माफिया और ज़मीन कब्जे के आरोपों को अखिलेश यादव के साफ चेहरे ने छुपा दिया है। मुस्लिम आरक्षण की असफलता के मुद्दे और न्यायालय के द्वारा नियुक्तियों पर लगातार हो रही रोक को अखिलेश यादव के साफ चेहरे ने नेस्तनाबूद कर दिया है। अब कोई भी मुद्दा चलन में नहीं है। मोदी द्वारा उठाए गये नोटबंदी प्रकरण को भी इस पारिवारिक झगड़े ने मीडिया से दूर कर दिया। यह पूरा खेल इतने शातिराना अंदाज़ में खेला गया कि इसके आगे कोई भी टोना टोटका नहीं चला। मीडिया को बिना कुछ विज्ञापन दिये बाप बेटे की जुगलबंदी ने भरपूर मनोरंजन भी किया और अपनी नाकामियों को छुपा भी लिया। ज़बरदस्त टीआरपी पायी। भरपूर मसाला दिया।
इस बात की पुष्टि इस बात से होती है कि यदि चार महीने की समाजवादी पार्टी और आज की समाजवादी पार्टी में तुलना की जाये तो इस पूरे ड्रामे के बाद भी कुछ नहीं बदला है। वही पुराने नेता हैं। वही पुराने विधायक हैं और अधिकतर उन्हीं दागियों को टिकट मिले हैं। इस ड्रामे के बाद सिर्फ वह मुद्दे गौण हो गये हैं जो चुनाव पर असर रखते थे। खलनायक बना दिये गये शिवपाल यादव भी चुनाव लड़ रहे हैं। अपर्णा यादव भी चुनाव लड़ रही हैं। पूरा यादव कुनबा अपने राजनैतिक कैरियर में लगा है। किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ है। अमर सिंह हमेशा की तरह पर्दे के पीछे सक्रिय हैं। रामगोपाल राज्यसभा से सांसद हैं। तो फिर बदलाव कहां हुआ समाजवादियों में। थोड़ी बहुत और बदलाव की रही सही कसर कांग्रेस से गठबंधन से पूरी हो गयी है। यानि की पूरी तरह सत्ता का लालच और मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति। जिस तरह से किताब का ऊपर का कवर हटाकर उस पर नया कवर चढ़ा दिया जाता है ठीक वैसा ही हुआ है। अंदर कुछ नहीं बदला है। सब कुछ वैसा का वैसा ही है। सिर्फ मायावती को ठिकाने लगाने का काम हुआ है। यदि देखा जाये तो मायावती के नोट मोदी ने लूट लिये और वोट अखिलेश यादव ने। अब वह सिर्फ अपने हाथी के साथ प्रदेश भ्रमण कर रही हैं।
सपा-कांग्रेस गठबंधन से मायावती के गढ़ में सेंध
सपा और कांग्रेस के गठबंधन से इन दोनों दलों को सीधा फायदा होता दिखाई दे रहा है। अखिलेश यादव इसके द्वारा उत्तर प्रदेश में दूसरे नंबर का दल बनने की तरफ बढ़ चुके हैं। अखिलेश के चेहरे के कारण अब कांग्रेसी कार्यकर्ता भी अखिलेश के लिये वोट करेगा। कांग्रेस जिसका युवाओं में कुछ काडर बनने की शुरुआत हुयी थी वह भी अब अखिलेश का काडर बनने जा रहा है। कुछ पुराने कांग्रेसी जो इस गठबंधन के पक्ष में नहीं थे उनका सोचना ठीक था। अब कांग्रेस के पास स्वयं को पुनर्जीवित करने का भी विकल्प नहीं बचा है। उनके कार्यकर्ता अब पूरी तरह अखिलेश आश्रित हो जाएंगे। इस गठबंधन के द्वारा भाजपा को कुछ सीटों पर नुकसान होगा तो कुछ सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार ध्रुवीकरण के चलते सीधे फायदे में आ जाएंगे। भाजपा की सीटों पर कमोबेश ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़ेगा। हां, इसका सबसे ज़्यादा नुकसान बसपा को होता दिखाई दे रहा है। उसके दलित मुस्लिम गठजोड़ को सबसे ज़्यादा ठेस पहुंची है। चूंकि कांग्रेस और बसपा दोनों के उम्मीदवार ज़्यादातर सीटों पर मुस्लिम हैं इसलिए इनका सीधा मुकाबला भाजपा के प्रत्याशी से होगा। अलग अलग क्षेत्रों के हिसाब से मुस्लिम वोटर कांग्रेस, सपा या बसपा में जाएगा। जिस विधानसभा में भाजपा को हराता हुआ इन दलों का प्रत्याशी दिखाई देगा। वोटर का रुझान उधर होगा। उत्तर प्रदेश में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा मजबूत है वहां मुस्लिम बसपा की तरफ और हिन्दू भाजपा की तरफ जा सकता है। अवध और रूहेलखण्ड क्षेत्र में सपा की ओर जा सकता है। बुंदेलखंड में बसपा एवं पूर्वांचल में सपा और बसपा दोनों में मुस्लिम वोट बैंक जाता दिख रहा है। इस तरह से पूरे उत्तर प्रदेश में लड़ाई भाजपा बनाम अन्य दल बन गयी है।
एक और अहम समीकरण इस गठबंधन से उभर कर आ रहा है। कांग्रेस का स्थानीय मुस्लिम वोटबैंक तो सपा को मिल जायेगा किन्तु सपा का परंपरागत यादव वोटर कांग्रेस की तरफ जायेगा ऐसा नहीं है। वह या तो यादव को वोट देता है या साइकल को। पंजे की उसे आदत नहीं है। 105 विधानसभा सीटों पर साइकल का चुनाव चिन्ह नहीं होगा। वहां का यादव वोटर या तो किसी अन्य दल के यादव के साथ जायेगा या किसी हिन्दू प्रत्याशी के साथ। ऐसी स्थिति में इस गठबंधन का फायदा कांग्रेस को नहीं होगा। यह फायदा या तो भाजपा को होगा या अन्य किसी क्षेत्रीय दल को। जिन लगभग 300 सीटों पर सपा लड़ेगी वह प्रत्याशी मजबूत स्थिति में होंगे। या तो वह जीतेंगे या दूसरे नंबर पर रहेंगे। कुछ भी हो 2019 के लिए सपा मजबूत हो गयी है। यदि 2019 में केंद्र में अल्पमत की सरकार बनी तो ऐसे में मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब तो पाल ही सकते हैं। पर 2019 में तो अभी काफी समय है। अभी तो 2017 देखना है और उन कार्यकर्ताओं से भी निपटना है जिनके टिकट कट गए हैं। सपा और भाजपा से तो एक एक सीट पर दर्जन भर दावेदार थे। भाजपा ने तो सभी संभावित प्रत्याशियों से भीड़ जुटाकर परिवर्तन रैली को ऐतिहासिक ही बना लिया था। पर अब भीड़ ले जाने वाले भूतपूर्व भावी प्रत्याशी नाराज़ हैं। ऐसा सभी खेमें में है।
‘टिकटकट्टू’ बना दिये गये फट्टू
एक ओर माननीय न्यायालय आजकल सांडों की लड़ाई वाले खेल जलीकट्टू के पीछे पड़ा है वहीं दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में टिकटकट्टू का मज़ेदार खेल चल रहा है। जिन जिनके टिकट कट चुके हैं ऐसे टिकटकट्टू अब निराश होकर अपने अपने खेमों में लाचार निराश बैठे हैं। इनमें से अधिकतर तो अपने अपने खेमों के प्रत्याशी को ही पलीता लगाने की तैयारी कर चुके हैं। इस खेल का सबसे ज़्यादा प्रभाव भाजपा एवं सपा में दिखाई दे रहा है। भाजपा में अन्य दलों से आए प्रत्याशियों को टिकट वितरण में प्राथमिकता दी गयी है। इसका सबसे बड़ा प्रभाव भाजपा के पुराने और समर्पित नेताओं के टिकट कटने के रूप में देखा गया है। बसपा में भगदड़ मचने के बाद यह सारे शरणार्थी भाजपा के खेमें में आए थे। इनमें से चूंकि ज़्यादातर बड़े नाम थे या पिछड़ी जातियों से आते थे तो सवर्णों का वोट बैंक माने जाने वाली भाजपा ने दलित और पिछड़े वोटों के लालच में इन लोगों को ही टिकट दे दिया। जातियों के आधार चुनावी विश्लेषण करने वाले विश्लेषकों की नजऱ में तो भाजपा मजबूत हो गयी किन्तु कैडर और पुराने समर्पित कार्यकर्ताओं का विरोध भाजपा को बड़ा नुकसान कर सकता है। भाजपा दो दशक से सत्ता से बाहर है। ये सारे कार्यकर्ता दशकों से भाजपा के सत्ता में आने का ख्वाब देखकर समर्पित भाव से लगे हुये थे। इस बार जैसे ही भाजपा के सत्ता में आने की लहर बननी शुरू हुयी यह पुराने कार्यकर्ता जोश में भर गए थे और पूरी तरह अपने अपने क्षेत्रों में लग गए। इन सबको अपने लिए एक सुनहरा भविष्य नजऱ आने लगा। पर, अचानक भाजपा में अन्य दल छोड़ कर आए नेताओं की संख्या बढऩे लगी। उनको टिकट भी दे दिये गये। अब भाजपा के इन कार्यकर्ताओं के साथ मुश्किल यह है कि जिन प्रत्याशियों के खिलाफ वह बरसों से चुनाव लड़ते आए हैं। जिनका विरोध करके वह राजनीति करते रहे हैं वही अब उनके दल से प्रत्याशी हैं। अब यह कार्यकर्ता किस मुंह से जनता के बीच जाये। जनता के बीच में इनको ताने सुनने को मिलते हैं। और अपना टिकट कटने से बरसों की मेहनत भाड़ में गयी सो अलग।
राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं का अपने दल से समर्पण की एक वजह सत्ता आने पर मिलने वाले फायदे होते हैं। यह कार्यकर्ता अपने दल के लिए काम करते रहते हैं और उम्मीद करते हैं कि जब उनके दल सत्ता में आएंगे तो उन्हें कुछ ठेके मिलेंगे। कुछ को सलाहकार के पद मिलेंगे। कुछ को किसी अन्य माध्यम से लाभान्वित होने का मौका मिलेगा। बस यही एक वजह होती है कि कार्यकर्ता जुड़े रहते हैं। बसपा और सपा की सरकारें बनती रहीं हैं तो इनके कार्यकर्ता कुछ लाभ प्राप्त कर चुके हैं। भाजपा के कार्यकर्ता अब कुछ उम्मीद लगाए हुए थे पर उनकी उम्मीदों पर उनके ही दल के आकाओं ने कुल्हाड़ी मार दी। टिकट कटने के बाद कोई कार्यकर्ता आत्मदाह करने का प्रयास कर रहा है तो कोई खून से खत लिख रहा है। सबका अपना दर्द उजागर करने का अपना अलग तरीका है। ज़्यादातर निराशा सवर्ण उम्मीदवारों में हैं। भाजपा ने दलित वोट पाने के लिए इस बार सवर्णों की अनदेखी की है। ब्राह्मण वोटर अब ठगा सा महसूस कर रहा है।
यदि बात सपा की करें तो वहां हालांकि वर्तमान विधायकों को ही टिकट देने की घोषणा काफी पहले हो चुकी थी किन्तु सपा की अंदरुनी लड़ाई के चलते जब ऐसी फिजा बनी कि शिवपाल और अखिलेश खेमा अलग अलग चुनाव लड़ेंगे तो हर सीट पर दो दो उम्मीदवार आस लगाने लगे। इसके बाद सपा के कांग्रेस के साथ गठबंधन के प्रयास हुये तो कुछ सीटों पर इन दोनों के टिकट भी कटने की संभावना बनने लगी। इस तरह से सपा में जो सब कुछ ठीक ठाक दिख रहा था वह समीकरण बिगडऩे लगा। जो सपा कार्यकर्ता अपने को प्रत्याशी मानने लगे थे उनको निराशा हाथ लगने लगी। भाजपा में टिकट कटने से जो भाजपाई सपा के दो खेमों में से एक से टिकट मांग रहे थे उनकी आशाओं पर भी कुठाराघात हो गया। कुल मिलाकर अगर देखा जाये तो ऐसे प्रत्याशी जो भाजपा से भावी संभावित प्रत्याशी थे और सपा के नाराज़ खेमें से आस लगाये बैठे थे उनकी भावनाएं ज़्यादा आहत हुईं। वह न तो घर के रहे न घाट के। जिन सपाइयों ने जोश में आकर मुलायम और अखिलेश खेमे में से एक खेमे के पक्ष में अतिरिक्त जोश दिखाते हुये दबंगई दिखा दी थी वह भी ज़मींदोज़ कर दिये गये। इस तरह से उत्तर प्रदेश में इस बार चुनाव से ज़्यादा रोचक तो चुनाव के पूर्व के घटनाक्रम बन गये हैं।
महत्वपूर्ण रहेगा महिलाओं का रुझान
उत्तर प्रदेश में लगभग साढ़े छह करोड़ महिला मतदाता हैं जिसमें से लगभग बारह लाख पहली बार मतदान करेंगी। अभी भी 33 प्रतिशत के आरक्षण से कोसों दूर यह महिला मतदाता इस बार एक महत्वपूर्ण किरदार बनने जा रही हैं। इस बात का आभास तब हो गया था जब भाजपा के एक नेता दयाशंकर ने मायावती के विरुद्ध अभद्र भाषा का प्रयोग किया था। इस मुद्दे पर पूरी बसपा एक जुट हो गयी और महिला अस्मिता के नाम पर उनके नेताओं ने खूब शोर शराबा किया था। यह शोर शराबा इतना ज़्यादा था कि इस दौरान स्वयं उनके एक बड़े नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी दयाशंकर के परिवार के खिलाफ अभद्र भाषा का प्रयोग कर गये और स्वयं भी फंस गये। अब बारी भाजपा की थी। उन्होंने दयाशंकर की पत्नी स्वाति सिंह के पलटवार को भरपूर सहयोग किया और महिला अस्मिता का मुद्दा गौण हो गया। यह मुद्दा अब बसपा बनाम भाजपा की सियासी लड़ाई बन गया। दयाशंकर तो पहले ही खलनायक बन चुके थे। अब मायावती को खुश करने में नसीमुद्दीन भी उसी श्रेणी में आ खड़े हुये थे। इसके बाद स्वाति सिंह भाजपा की महिला प्रकोष्ठ की कमान संभालने लगी।
अब पहले बात करते हैं भाजपा के महिला मोर्चा की। भाजपा में स्मृति ईरानी पहले महिलाओं का चेहरा बनी हुयी थीं। उनके मुख्यमंत्री बनने की खबरें एक साल पहले सुर्खियों में थीं। वर्तमान में वह मुख्यमंत्री की रेस में तो पिछड़ती दिख रहीं हैं किन्तु अभी भी उड़ान कार्यक्रम के तहत वह भाजपा में अपनी सक्रियता बनाये हुये हैं। भाजपा को एक बड़ा फायदा रीता बहुगुणा जोशी के आने से भी हुआ है। कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्षा रह चुकीं रीता जोशी ब्राह्मणों का एक चर्चित चेहरा हैं। प्रदेश की राजनीति को समझती हैं। कांग्रेस के संगठन में बड़े पद पर रह चुकने के कारण उनके पास अपना एक कैडर भी है। इसका फायदा तो मिलेगा। पर यह तस्वीर का सकारात्मक पक्ष मात्र है। टिकट वितरण में महिलाओं को उतना स्थान नहीं मिला है जितना मिलना चाहिए था। भाजपा ने स्वयं के कार्यकर्ताओं से ज़्यादा बागियों को टिकट दे दिये हैं। इसकी वजह से कई विधानसभा क्षेत्रों में जहां भाजपा की महिला नेत्रियां दावेदार थी, उनके टिकट कट गये। इसलिए अब इसका दुष्प्रभाव पडऩा भी लाज़मी है।
जहां तक समाजवादी पार्टी की बात है तो वह लोहिया के सिद्धांतों पर चलने की बात करते हैं। लोहिया ने हमेशा स्त्रियों को बराबरी का दर्जा देने की बात कही थी। मुलायम सिंह यादव ने लोहिया के अन्य सिद्धांतों से ज़्यादा इस पर ध्यान दिया था और सपा में नेत्रियों को स्थान मिलता रहा। वर्तमान में प्रो0 रंजना बाजपेयी समाजवादी महिला सभा की राष्ट्रीय अध्यक्षा हैं एवं डॉ श्वेता सिंह महिला प्रकोष्ठ की प्रदेश में कमान संभाले हैं। इन दोनों के साथ महिलाओं की संख्या काफी मात्रा में है जिसकी वजह से महिलाओं के मोर्चे पर अन्य दलों पर भारी दिखाई दे रहा है। इसकी एक वजह और भी है। वर्तमान कार्यकाल में सपा ने राज्य महिला आयोग, विधान परिषद एवं विभिन्न विभागों के सलाहकार बनाकर कई महिलाओं को सम्मान दिया है। चूंकि, सलाहकार का पद दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री के स्तर का होता है इसलिए सपा में दर्जा प्राप्त राज्यमंत्रियों में काफी महिलाएं भी शामिल दिख रहीं हैं। सपा के साथ दिक्कत यहां नहीं है। सपा के दो खेमे में बंटने के कारण उनके कार्यकर्ताओं के साथ नेत्रियां भी दो धड़े में बंट गईं थीं। कई स्थानों पर उनके बीच सार्वजनिक झड़पें हुयी। दिलों में दूरियां बन गईं। अलग अलग खेमों ने एक दूसरे पर ऐसे ऐसे आरोप लगा दिये कि ये लोग अपने अपने चुनाव क्षेत्रों में जनता के हमाम में नंगे नजऱ आने लगे। अब नेताजी और अखिलेश के खिलाफ और समर्थन में बयान देने के बाद सपा की नेत्रियां इस बयान पर आकर टिकीं हैं कि हमारी राजनीति सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के दिशा निर्देशों पर आगे बढ़ी है और अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी का भविष्य हैं। अब सपा नेत्रियों का यह बयान देखने में जितना सीधा एवं सपाट है अंदर यह उतना ही तूफान लिए है। अगर चुनाव तक यह तूफान थमा रह गया तो सपा के लिये महिला मोर्चा मुनाफे का सौदा होगा वरना रास्ता तो दुष्कर लग ही रहा है।
इसके बाद आता है बहुजन समाज पार्टी का नंबर। यह पार्टी दूर से देखने पर स्त्री अस्मिता का प्रतीक दिखती है। इकलौती कद्दावर मायावती इसकी नेता है। इस पार्टी में अब चाहें स्त्री हो या पुरुष, एक ही नेता सर्वमान्य रहा है। महिला प्रकोष्ठ जैसा कोई चलन बसपा में नहीं है। मायावती विभिन्न प्रकोष्ठ बनाने से ज़्यादा अपने परंपरागत वोट बैंक पर ज़्यादा निर्भर दिखाई देती हैं। इस बार उन्होंने महिलाओं को भी टिकट वितरण में स्थान दिया है। लगभग एक दर्जन महिलाएं हाथी चुनाव निशान के साथ मैदान में उतारी गईं हैं। इनमें कोई बड़ा या बड़ा स्थापित नाम तो नहीं है किन्तु मायावती के निर्देश हैं कि सपा की महिला अपराधों को रोक पाने में नाकामियां एवं खराब कानून व्यवस्था का मुद्दा उम्मीदवार गांठ बांध लें। मायावती का मानना है कि परंपरागत वोट बैंक और महिला अपराध इनको पार लगा सकता है। अन्य दलों में कांग्रेस एक ऐसा दल है जिसने मुख्यमंत्री के रूप में एक महिला शीला दीक्षित के नाम को आगे बढ़ाया था किन्तु कमजोर कांग्रेस में किसी भी नाम का होना या न होना कुछ फर्क पैदा करने वाला नहीं है। रीता बहुगुणा जोशी का कांग्रेस को मझदार में छोड़ कर जाना कांग्रेस को महिला मोर्चे पर अनाथ कर गया है। एक और दल राष्ट्रीय लोकदल जो कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुछ सीटों पर प्रभाव रखता है, ने भी महिलाओं को कुछ हद तक टिकट दिये हैं। रालोद में महिला प्रकोष्ठों आदि का ज़्यादा चलन तो नहीं है किन्तु थोड़ी बहुत भागीदारी तो महिलाओं की बनी रहती है। अब यदि कुल मिलकर देखा जाये तो 33 प्रतिशत महिला आरक्षण की बात करने वाली राजनैतिक पार्टियां अभी 33 प्रतिशत महिला उम्मीदवारों को टिकट देने के मुद्दे पर काफी पिछड़ी दिख रही हैं।
अब चूंकि, महिलाएं जागरूक हो चुकी हैं और सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से वह राजनैतिक गतिविधियों से जुड़ी हुयी हैं इसलिए कहीं न कहीं महिलाओं के मुद्दे उनके जेहन में बैठे हुये हैं। यह एक ऐसा विषय है जिस पर विश्लेषक अक्सर चूक कर जाते हैं किन्तु चुनाव के दिन महिलाओं के भीतर का यह अंतद्र्वन्द्व चुनाव परिणामों को प्रभवित करने वाला कारक बन सकता है।
ब्राह्मण वोट बैंक : एक ब्राह्मण ने कहा है कि ये साल अच्छा है
उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण वोटों की बेहद अहमियत रहती है। पिछले बीस सालों का यह इतिहास रहा है कि जिस दल की तरफ ब्राह्मण वोट बैंक का झुकाव हुआ है उसकी सरकार बनी है। इसकी बानगी इस बात से साबित होती है कि जब जब ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है तब तब उस दल ने सत्ता पर अपने कदम जमाये हैं। यदि ब्राह्मण वोटों की बात करें तो यह उत्तर प्रदेश के कुल वोटर में 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है। पिछले दो चुनावों में यह क्रमश: 2007 में बसपा और 2012 में सपा को आज़मा चुका है। दोनों ही दलों से उसे निराशा ही हाथ लगी है। उत्तर प्रदेश के मध्य भाग में अवध एवं रूहेलखंड के क्षेत्र एवं पूर्वांचल की लगभग ढाई दर्जन सीटों पर ब्राह्मणों का वोट अहम किरदार निभाता रहा है। इन क्षेत्रों में ब्राह्मण निर्णायक राजनैतिक चोट करने में सक्षम हैं। उत्तर प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में भी ब्राह्मण इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि यह अभी भी अन्य जातियों को प्रभावित करने वाले कारक हैं। इनका सामाजिक प्रभाव है। इनके किसी एक दल में जाने पर कुछ अन्य जातियां भी इनके प्रभाव में आकर वोट देती हैं। इस तरह से यह वोट बैंक सिर्फ 10 प्रतिशत न होकर लगभग 15 प्रतिशत तक का वोट बैंक बन जाता है। ब्राह्मण एक ऐसा वोट बैंक है जो सिर्फ जाति के आधार पर वोट नहीं देता बल्कि समझ के आधार पर वोट देता रहा है। सबसे पहले कांग्रेस का परंपरागत वोटर रहा ब्राह्मण समाज, बाद में बसपा एवं सपा के खेमें में जाकर देख चुका है। चूंकि, इस बार वह नये विकल्प तलाशता दिख रहा है इसलिए वह भाजपा की तरफ भी जा सकता है। हालांकि, ऐसा कोई रुझान नहीं दिखा है फिर भी कोई और विकल्प न होने की स्थिति में ऐसा हो सकता है।
इसके साथ एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि किसी भी दल को ऐसी खुशफ़हमी नहीं पालनी चाहिए कि ब्राह्मण उसका वोट बैंक है। यह वर्ग हमेशा सम्मान और पहचान को अहमियत देता है। इससे ज़्यादा की अपेक्षा उसे नहीं रहती है। इसलिए ब्राह्मण वर्ग एक निर्णायक ‘शिफ्टिंग वोटबैंक’ की तरह काम करता है। लगभग पूरे प्रदेश में लगभग सभी दलों के द्वारा ब्राह्मणों को टिकट वितरण में उपेक्षित रखा गया है। अब देखना रोचक होगा कि ऐसे में ब्राह्मणों का रुख क्या होगा। यह किधर जाएगा? इस बार किसके झांसों में फसेगा? यदि ब्राह्मणों के नज़रिये से कहा जाये तो; हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन, दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये खयाल अच्छा है।
जिसके संग युवाओं की रेल, बाकी के सारे गणित फेल
पिछली विधानसभा निर्माण में युवाओं की भूमिका अहम थी। इस बार भी यह वोटर निर्णायक बनता दिख रहा है। इस बार कुल 30 प्रतिशत मतदाता युवा मतदाता है। यह सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक लगभग ढाई प्रतिशत का चुनावी स्विंग हार जीत का अंतर पैदा कर देता है। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार सोशल मीडिया लगभग चार प्रतिशत का अंतर पैदा करता है। इसके हिसाब से देखने पर युवा वोटर बेहद महत्वपूर्ण होने जा रहा है। युवा वोटर के साथ को समझने के लिए सभी दलों की यूथ ब्रिगेड को समझना होगा।
भाजपा में नरेंद्र मोदी के चेहरे का युवाओं पर अच्छा खासा प्रभाव है। वह मोदी से प्रभवित भी है और भरोसा भी करता है। भाजप में यूथ मैनेजमेंट के तहत कराए गए युवा सम्मेलनों की कमान पंकज सिंह ने संभाल रखी है। ब्राह्मणों को प्रतिनिधित्व देते हुये सुब्रत पाठक के रूप में भारतीय जनता युवा मोर्चा की कमान दी गयी है। भाजपा का आईटी सेल भी अच्छा काम कर रहा है जिसमें प्रदेश उपाध्यक्ष जेपीएस राठौड़ अच्छा प्रबंधन संभाले हुये हैं। कांग्रेस युवाओं को रिझाने के लिए अभी भी प्रियंका और राहुल के भरोसे है। कोई बड़ा और उल्लेखनीय चेहरा उनके पास नहीं है। बसपा पिछले चुनावों में युवा शक्ति का साथ न मिलने का हश्र देख चुकी है। इस बार ऐसी गलती न हो इसलिए उसने अपने वरिष्ठ नेताओं के परिजनो को चुनाव मैदान में उतार दिया है। अन्य छोटे दलों ने भी युवाओं की तरफ रुझान किया है। लोकदल में जयंत चौधरी को उनके दल के युवा पसंद कर रहे हैं। सपा में तो अखिलेश यादव के रूप में एक कद्दावर युवा चेहरा मौजूद है। इस तरह उत्तर प्रदेश का सियासती संग्राम जितना रोचक दिखाई दे रहा है उतना ही ज़्यादा मनोरंजक परिणाम यहां की युवा शक्ति के हाथों में है। यदि चुनावी आंकलन में युवा शक्ति को थोड़ा सा भी अनदेखा किया गया तो यकीन मानिए सारे पूर्वानुमान ध्वस्त हो सकते हैं। टीवी पर दिखने वाली चुनावी रेत के नीचे युवा एक पानी की लहर हैं। जो दिख नहीं रही है पर मौजूद है। युवाओं पर ध्यान रखिए। उनका रुझान देखिये क्योंकि, रेत के नीचे अभी थोड़ा सा पानी और है।