श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग श्रीराम द्वारा सीताजी के त्याग का रहस्य
दोहा- रामू अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोई।
सन्तह सन जस किछु सुनेऊँ तुम्हहि सुनायउ सोई।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ९२ (क)
वर्तमान समय में श्रीरामकथामृत के समान कोई भी वस्तु संसार में मनोरम नहीं है, बाल, वृद्ध, वनिता, युवा सब ही इसका पान करके अपने आपको अत्यन्त सौभाग्यशाली मानते हैं। इस श्रीरामकथामृत के प्रभाव से उनमें धैर्यवान, साहसी, न्यायप्रिय, परहित में लगे रहने तथा उनमें प्रेम, दया, सहयोग एवं सहानुभूति के गुणों का समावेश होता है। यद्यपि श्रीरामचरित का वर्णन अनेक प्रकार से सन्तों, महात्माओं ने अपूर्व किया है किन्तु गोस्वामी तुलसीदासजी की तुलना आज भी किसी से नहीं की जा सकती है। यही कारण है कि भारत के घरों से मंदिरों तक उनकी विश्व प्रसिद्ध कृति- श्रीरामचरितमानस का श्रद्धा-भक्ति के साथ पारायण किया जाता है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि विद्वान से लेकर अल्पज्ञ इसका पारायण करते हैं तथा उसका अर्थ अपनी रुचि एवं ज्ञान के अनुसार कर लेते हैं। कई बार तो विषय-प्रसंगों का अर्थ साधारण पुरुषों की समझ में नहीं आता है। अत: सम्वत् १९४८ में पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्र ने गो. तुलसीदासजी कृत रामायण की संजीवनी टीका कर सबको सरल भाषा में बोध कराया। इसका मुद्रण एवं प्रकाशन श्री खेमराज श्रीकृष्णदास अध्यक्ष श्री वेंकटेश्वर स्टीम प्रेस बम्बई ४ के द्वारा किया गया। इनकी टीका का नाम श्रीरामचरितमानस न होकर गो. तुलसीदासजी कृत रामायण है। इसमें अत्यन्त ही विस्तारपूर्वक सात काण्डों का वर्णन है तथा इसी काण्ड में लवकुश काण्ड प्रसंग के अन्तर्गत श्रीसीताजी के त्यागने का भी बड़ा मार्मिक वर्णन है। श्रीसीताजी को त्यागने के रहस्य का वर्णन इस काण्ड में किया गया है।
नित्य कोचिचर अवध सिधावहिं। साँझ समय सब खबर सुनावहिं।
पृथक पृथक सुनि चरवर बानी। बोल न एक सो सुनहु भवानी।
छ:- कछु कहिन न सक तेहि पूछ सादर वचन बेगि न आवई।।
एक रजक पत्निहि कहत डाटत व्यंग कहि समुझावई
सुनि वचन कृपानिधान चरके मध्य उर राखे हरी।
निशि सपन देखत जगतपति पुनि जागि दारूण दुखकरी।।
गो. तुलसीदासजी कृत रामायण सञ्जीवनी टीकाकार पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र
उत्तरकाण्ड – लवकुश काण्ड ११-७-८ तथा छन्द ९
श्रीराम की आज्ञा से अयोध्या में उनके अनेक दूत (गुप्तचर) फिरते हैं और सन्ध्या के समय आकर सब समाचार उन्हें सुनाते हैं। शिवजी पार्वतीजी से कहते हैं कि अलग-अलग दूतों की श्रेष्ठ वाणी श्रीराम सुनते हैं। किन्तु उनमें से एक कुछ नहीं बोला। जब श्रीराम ने देखा कि वह कुछ भी नहीं कह पा रहा है तब श्रीराम ने उस दूत से आदरपूर्वक पूछा, तब भी उसके मुख से कुछ नहीं बोल सका। फिर कड़ा जी कर उनसे कहा कि भगवन्। एक धोबी अपनी धोबिन से डाटकर दुर्वचन कह रहा था कि मैं राम नहीं हूँ जो उन्होंने पराये घर में रही हुई जानकी को रख लिया। तू मेरे घर से निकल जा, यह दूत के वचन सुनकर जगत्पति श्रीराम ने उसको हृदय में रख लिया। रात्रि को स्वप्र में भी यही देखा, फिर जागे तो बहुत दु:खी हुए। उस समय श्रीराम का अयोध्या में रहते एक युग के प्रमाण का समय बीत गया तब कृपासागर श्रीराम ने विचार किया कि अब एक हजार वर्ष तक और पिता का पवित्र राज्य करना ठीक होगा।
त्यागउँ जनकसुता वनमाहीं। राखउँ श्रुतिपथ धर्म न जाहीं।।
मन प्रण करि पुनि सियपहँ आये। सादर बोले वचन सुहाये।।
सुमुखि न कछु मांगेहु केहुकाला। हँस कह कृपानिकेतन दयाला।।
निज छाया महि राखि बिनीता। रहहु जाय निज धाम पुनीता।।
प्रभुपद वंदि गई नभ सोइ्र। जीव चराचर लखेउ न कोई।।
तासन प्रभु अस कहेउ बुझाई। मन भावत मांगहु सुखदाई।।
गो. तुलसीदासजी कृत रामायण, स. टीकाकार पं. ज्वाला प्रसाद मिश्र उत्तरकाण्ड लवकुश काण्ड १२-१ से ६
श्रीराम ने मन में विचार किया कि वे जानकीजी को वन में त्याग देंगे और वेद के मार्ग का अनुकरण करेंगे। जिससे धर्म न जा सके। यह मन में प्रतिज्ञा कर फिर श्रीराम जानकीजी के निकट गए और आदरपूर्वक सुन्दर वचन कहे। हँसकर कृपासागर श्रीराम ने सीताजी से कहा हे सुन्दरी! आज तक कभी तुमने मुझसे कुछ नहीं माँगा। तुम ऐसा करो कि अपनी छाया पृथ्वी में रखकर पवित्रधाम में जाकर रहो। इतना सुनते ही जानकीजी ने प्रभु के चरणों में नमस्कार कर आकाश को चली गई। इस बात को चर-अचर किसी भी जीव ने नहीं जाना। माया की सीता से श्रीराम ने यह बात अच्छी तरह समझाकर कही कि तुम अपना मनमाना सुखदायक वर माँग लो। जानकीजी बोली कि ऋषि-मुनियों के सुन्दर स्थान को छोड़कर आपके साथ अब घर आने से मन में बड़ा संकोच हुआ है। मेरी इच्छा है कि स्त्रियों के धारण करने योग्य सब सुन्दर गहने जो कि मनभाये इस प्रकार मुनि पत्नियों को जाकर पहना दूँ।
श्रीराम ने हँसकर कहा कि प्रात:काल तुम्हारे मनोरथ पूर्ण हो जाएंगे अर्थात् तुम मुनि पत्नियों को गहने-वस्त्र आदि ले जाना। प्रात:काल होते ही भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न श्रीराम के पास आए तथा सभी भाइयों ने पृथ्वी पर सिर धरकर प्रणाम किया किन्तु श्रीराम कुछ न बोले। श्रीराम का मुख व्याकुल और शरीर का रंग विवर्ण-कांतिहीन देखकर तीनों भाई थरथर काँपने लगे, श्री रघुनाथजी का चरित्र जाना नहीं जाता। तत्पश्चात् श्रीराम मनोहर गूढ़ वाणी में बोले भाई। मेरा वचन हृदय में धारण करके सीता को वन में ले जाओ। यह तीक्ष्ण वचन सुनकर तीनों भाई सहमकर सूख गए, उनका शरीर जलने लगा और हृदय में ज्वाला उत्पन्न हो गई। उनके मन में यह दुविधा हुई कि श्रीराम हँसी कर रहे हैं या सत्य कह रहे हैं।
भरत आदि भाई सब अत्यन्त ही दु:खी एवं व्याकुल हो गए और मुँह से कोई वचन नहीं निकला तब शत्रुघ्न हाथ जोड़कर नेत्रों में नीर भरकर कहने लगे। हे प्रभु! आपका वचन सुनकर हृदय काँप उठा कि जानकीजी जगत् माता हैं, यह सब कोई जानता है। आप जगत् के पिता प्रभु सबके हृदय में वास करने वाले हैं और सच्चिदानंद आनन्द के राशि हैं।
कारण कवन जानकी त्यागी। मन वचन क्रम तव पद अनुरागी।।
सुनु सर्वज्ञ सुगर्भिनि जानी। रिसि परिहास कि सत्य सुबानी।।
गो. तुलसीदासजी कृत रामायण सं. टीकाकार पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र उत्तरकाण्ड लवकुश काण्ड-१४-३-४
क्या कारण है जो जानकीजी का त्याग किया? वे तो मन-वचन-कर्म से आपके चरणों की अनुरागिनी है। हे सर्वज्ञा सुनिये गर्भिणी जानकर यह हँसी में कहा है या सत्य है? यह सुनकर दैत्यों के मारने वाले प्रभु के नेत्रकमलों में जलभर आया और कोमल वचन बोले- भाई! जो मेरी आज्ञा उल्लंघन करोगे तो मैं अपने शरीर में प्राण नहीं रखूँगा। नारायण की इच्छा होनहार बलवान है, हे छोटे भाई! यही हमारी आज्ञा मानो कि प्रात:काल होते ही जानकी को ले जाओ। यह कठोर वचन सुनकर भरतजी हाथ जोड़कर बोले- हे सर्वज्ञ प्रभु! हमारी मति तो भोली है आप हमारी विनती सुनिये। यह सूर्यवंश जगत् भर में विख्यात हे, दशरथजी आपके पिता और माता कौशल्या हैं। हे प्रभु! आप तीनों लोकों के पति हो यह सब जगत् जानता है जिनके यश को अनेक प्रकार से शेष और वेद गाते हैं। आपकी सत्य शक्ति जो प्रकट है। हे स्वामी। उसको वेद और शेषजी वर्णन नहीं कर सकते हैं। जनकनन्दिनी जानकीजी की शोभा की खानि है, अमंगल रहित और मंगल देने वाली हैं।
जल बिनु मीन की जिये कृपाला। होय कृषि बिनु वारिदमाला।
अस तुम बिनु छिन जियै कि सीता। ज्ञानवंत अतिनिपुण विनीता।।
गो. तुलसीदासजी कृत रामायण सं. टीकाकार ज्वालाप्रसाद मिश्र उत्तर लवकुशकाण्ड १४-७-८
भरतजी ने श्रीराम से कहा हे कृपालु! जल के बिना मीन (मछली) क्या जीवित रह सकती है? और बिना मेघ के क्या खेती हो सकती है? इसी प्रकार आपके बिना ज्ञानयुक्त अति चतुर विनीत जानकी जो क्या क्षणमात्र भी जीवित रह सकती है? श्रीराम ने भरतजी के करुणा और प्रेम भरे यह वचन सुनकर उनसे कहा कि भरत। तुमने नीति तो सुन्दर कही है।
दोहा : – तदपि नृपहि चाहिय सदा, राजनीति धन धर्म।।
वसुधा पालहि शोच तजि, वचन प्रीति शुचिकर्म।।
गो. तुलसीदासकृत रामायण सं. टीकाकार पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र उत्तर लवकुश काण्ड दो. १४
फिर भी राजा को सदा ही राजनीति धन और धर्म की रक्षा करनी चाहिए, शोच नहीं करके प्रीति के वचन और धर्म कर्म से पृथ्वी का पालन उचित है। तत्पश्चात् दूत ने जो कुछ कहा था वह श्रीराम ने सुनाकर कहा कि यह कुल में बड़ा भारी कलंक लगा है। सूर्यवंश में कई राजा हुए हैं, वे एक से बढ़कर एक बड़े थे, इस बात को सारा जगत जानता है। रघु, दिलीप, स्वायंभुव, मनु सगर और भागीरथ जिनकी वेद ने प्रशंसा की है और राजा दशरथजी को जगत में सब कोई जानते हैं जिन्होंने प्राण त्याग दिया पर वचन न जाने दिया। भरतजी बोले हे सर्वज्ञ! सबके पाप दूर करने वाले! जानकीजी कलंक रहित है। हे भाई! ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सब देवताओं ने सुन्दर रीति से देखा है और अग्नि में तपाकर आपने भी भलिभाँति परीक्षा कर ली है। जो देवता मुनि हैं उनमें ऐसा कोई भी नहीं है जो स्वप्न में इस चरित्र को देखकर जगत् मेें प्रसन्न हो। श्रीराम बोले हे लक्ष्मण! हठ और शोच छोड़कर सुनो, संसार चाहे भला कहे या बुरा। जानकी को तुरन्त रथ पर गंगा के समीप पहुँचा कर लौट आओ। बड़े घने वन में जहाँ कोई न हो हे तात! वहाँ जानकी को यत्न सहित छोड़ आओ। जब प्रभु ने यह कहा कि तुम उदास होकर वचनों को मानने से मना न करें। लक्ष्मणजी निराश होकर चल पड़े।
सुन्दर विमान में जानकीजी को बैठाया और बहुत से वस्त्र तथा आभूषण भी सँवार कर रख लिये। श्रीराम की जानकी अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक चल पड़ी।
दोहा. विवरण लखन निहारि करि, शोच निकल भर बाल।।
हृदय विचार न कहि सकत, मणि बिनु व्याकुल व्याल।।
गो. तुलसीकृत रामायण सं. टीकाकार ज्वालाप्रसाद मिश्र उत्तर लवकुशकाण्ड दोहा। ६
सीताजी लक्ष्मणजी को उदास देखकर सोच विचार में ऐसा व्याकुल हुई जैसे मणि बिना सर्प हो जाता है और हृदय में विचार करती है किन्तु कुछ वह कह भी नहीं सकती। गंगा पार घने वन में प्रवेश देखकर वह मन ही मन भयभीत हुई। फिर सीताजी बोली- स्वामी के छोटे भाई यहाँ मुनियों के धाम (आश्रम) दिखाई नहीं दे रहे हैं। यहाँ तो पशु, पक्षी, हिरण, सिंह, सर्प, हाथी, बन्दर, भेड़िये, बाघ, गीदड़ ये अनेक प्रकार के जीव-जन्तु यहाँ फिरते हैं। हे लक्ष्मण यहाँ तो कोई मुनि भी आता-जाता दिखाई नहीं दे रहा है। सीताजी की व्याकुलता देखकर लक्ष्मणजी मन ही मन कहने लगे कि हे ब्रह्मा, विष्णु, महेश आपने यह क्या कर डाला है। लक्ष्मणजी मूर्च्छित से होकर रथ से पृथ्वी पर गिरने लगे तथा कुछ क्षण बाद सँभल गए। सीताजी को देखकर मन में धीरज धारण किया और कहने लगे कि प्यास के मारे प्राण निकलने चाहते हैं। लक्ष्मणजी के प्राणों पर संकट देखकर जानकीजी बहुत व्याकुल हुई कि लक्ष्मण शरीर का त्याग करना चाहते हैं मेरे जीवन को बारम्बार धिक्कार है।
लक्ष्मणजी की दशा देखकर सीताजी को तो मूर्च्छा आ गई फिर उसी समय आकाशवाणी हुई- सुनो लक्ष्मण! जानकी को त्यागकर चले जाओ, यह भाग्यवती जनककुमारी जीती रहेगी। आकाशवाणी सुनकर लक्ष्मणजी को कुछ धैर्य हुआ और हाथ जोड़कर जानकीजी की प्रदक्षिणा की। रथ लेकर जानकीजी के चरणों को नमस्कार करके अयोध्या को चल पड़े परन्तु मन में बड़ा दु:ख था।
जानकीजी जब मूर्च्छा से जागी तब चारों ओर देखने लगी, वहाँ रथ-घोड़े और लक्ष्मणजी नहीं थे। जानकीजी वन में अनेक प्रकार से विलाप करने लगी थी कि उसी समय वन में वाल्मीकिजी आए। महर्षि वाल्मीकिजी ने कहा पुत्री! अपने वन में आने का सब कारण बताओ? हे मुनिराज मैं राजा जनक की कन्या एवं श्रीरामचन्द्रजी की भार्या हूँ। यह बात सारा जगत् जानता है किन्तु मैं अपने त्यागने का कारण (हेतु) कुछ नहीं जानती, विधाता की गति बलवान है। मेरे देवर लक्ष्मण मुझको यहाँ पहुँचाकर चले गए तब महर्षि वाल्मीकिजी ने ध्यानस्थ होकर सब कारण जान लिया। महर्षि वाल्मीकिजी कहने लगे हे पुत्री! सुनो मिथिलापति जनक तुम्हारे पिता हमारे बड़े भक्त शिष्य हैं। वाल्मीकिजी ने जानकीजी से कहा- हे जानकी तुम चिन्ता मत करो, अन्त में तुम्हारा मंगल होगा तथा श्रीरामजी मिलेंगे। इतना कहकर वाल्मीकिजी जानकी को आदरसहित अपनी पर्णशाला में ले आए और मज्जन करके फिर सब आने वाली गति जान ली। वाल्मीकिजी ने जानकी को अनेक प्रकार से धीरज दिलवाया। तत्पश्चात् जानकीजी ने गंगाजी में स्नान किया और श्रीराम को स्मरण कर उनकी मूर्ति हृदय में धारण की, तब मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया तथा उन्हें खाने के लिए कुछ फल दिए।
वाल्मीकिजी अनेक प्रकार की कथाएं कहते हैं, जानकी पक्षियों सहित श्रवण करती है। लक्ष्मणजी जानकीजी को त्याग कर अयोध्या जब आए तब व्याकुल होते हुए महल में गए और अनेक प्रकार से माताओं के सामने रोने लगे कि जानकीजी को बड़ा कष्ट दिया। माताएँ लक्ष्मण की यह बात सुनकर ऐसे डर कर मूर्च्छित हो गईं जिस प्रकार साँप की मणि जाती रहने पर वह व्याकुल हो जाता है। माता बहुत भाँति से रोती हुई कहती है अरे! इस दारुण संकट को कौन सह सकता है? इस प्रकार कोलाहल सुनकर श्रीरामजी लक्ष्मण को अपने साथ स्वयं के महल में ले गए और जब माताओं को अपना ब्रह्मज्ञान देकर समझा दिया तब उनके हृदय के किवाड़ खुल गए और कहने लगी कि हे स्वामी! हम आपको अपना पुत्र समझकर भूल से भ्रम के फंदे में पड़ी रही थी। हे जगदीश्वर श्रीरामजी! अब कृपा करके अपनी सुन्दर अचल तथा परम पवित्र भक्ति दीजिए। जिसको योगी, मुनि, तपस्वी खोजते फिरते हैं। माताओं ने जो वर चाहा वही करुणासागर ने उनको दे दिया और सबने अन्त:करण शुद्ध करके आदरपूर्वक योग अग्नि में शरीर त्याग दिया।
दोहा. योग अग्नि तनु भस्मकरि, सकल गई पतिधाम।।
भरत शत्रु सूदन लेषन, शोक भवन श्रीराम।।
गो. तुलसीदासजी कृत रामायण, सं. टीकाकार पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र उत्तर लवकुशकाण्ड दो. १९
योगाग्नि में शरीर भस्म करके सब पति के लोक को चली गई। भरत, शत्रुघ्न, लक्ष्मण और श्रीरामचन्द्रजी को बहुत दु:ख हुआ।
दोहा- रामू अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोई।
सन्तह सन जस किछु सुनेऊँ तुम्हहि सुनायउ सोई।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड ९२ (क)
वर्तमान समय में श्रीरामकथामृत के समान कोई भी वस्तु संसार में मनोरम नहीं है, बाल, वृद्ध, वनिता, युवा सब ही इसका पान करके अपने आपको अत्यन्त सौभाग्यशाली मानते हैं। इस श्रीरामकथामृत के प्रभाव से उनमें धैर्यवान, साहसी, न्यायप्रिय, परहित में लगे रहने तथा उनमें प्रेम, दया, सहयोग एवं सहानुभूति के गुणों का समावेश होता है। यद्यपि श्रीरामचरित का वर्णन अनेक प्रकार से सन्तों, महात्माओं ने अपूर्व किया है किन्तु गोस्वामी तुलसीदासजी की तुलना आज भी किसी से नहीं की जा सकती है। यही कारण है कि भारत के घरों से मंदिरों तक उनकी विश्व प्रसिद्ध कृति- श्रीरामचरितमानस का श्रद्धा-भक्ति के साथ पारायण किया जाता है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि विद्वान से लेकर अल्पज्ञ इसका पारायण करते हैं तथा उसका अर्थ अपनी रुचि एवं ज्ञान के अनुसार कर लेते हैं। कई बार तो विषय-प्रसंगों का अर्थ साधारण पुरुषों की समझ में नहीं आता है। अत: सम्वत् १९४८ में पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्र ने गो. तुलसीदासजी कृत रामायण की संजीवनी टीका कर सबको सरल भाषा में बोध कराया। इसका मुद्रण एवं प्रकाशन श्री खेमराज श्रीकृष्णदास अध्यक्ष श्री वेंकटेश्वर स्टीम प्रेस बम्बई ४ के द्वारा किया गया। इनकी टीका का नाम श्रीरामचरितमानस न होकर गो. तुलसीदासजी कृत रामायण है। इसमें अत्यन्त ही विस्तारपूर्वक सात काण्डों का वर्णन है तथा इसी काण्ड में लवकुश काण्ड प्रसंग के अन्तर्गत श्रीसीताजी के त्यागने का भी बड़ा मार्मिक वर्णन है। श्रीसीताजी को त्यागने के रहस्य का वर्णन इस काण्ड में किया गया है।
नित्य कोचिचर अवध सिधावहिं। साँझ समय सब खबर सुनावहिं।
पृथक पृथक सुनि चरवर बानी। बोल न एक सो सुनहु भवानी।
छ:- कछु कहिन न सक तेहि पूछ सादर वचन बेगि न आवई।।
एक रजक पत्निहि कहत डाटत व्यंग कहि समुझावई
सुनि वचन कृपानिधान चरके मध्य उर राखे हरी।
निशि सपन देखत जगतपति पुनि जागि दारूण दुखकरी।।
गो. तुलसीदासजी कृत रामायण सञ्जीवनी टीकाकार पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र
उत्तरकाण्ड – लवकुश काण्ड ११-७-८ तथा छन्द ९
श्रीराम की आज्ञा से अयोध्या में उनके अनेक दूत (गुप्तचर) फिरते हैं और सन्ध्या के समय आकर सब समाचार उन्हें सुनाते हैं। शिवजी पार्वतीजी से कहते हैं कि अलग-अलग दूतों की श्रेष्ठ वाणी श्रीराम सुनते हैं। किन्तु उनमें से एक कुछ नहीं बोला। जब श्रीराम ने देखा कि वह कुछ भी नहीं कह पा रहा है तब श्रीराम ने उस दूत से आदरपूर्वक पूछा, तब भी उसके मुख से कुछ नहीं बोल सका। फिर कड़ा जी कर उनसे कहा कि भगवन्। एक धोबी अपनी धोबिन से डाटकर दुर्वचन कह रहा था कि मैं राम नहीं हूँ जो उन्होंने पराये घर में रही हुई जानकी को रख लिया। तू मेरे घर से निकल जा, यह दूत के वचन सुनकर जगत्पति श्रीराम ने उसको हृदय में रख लिया। रात्रि को स्वप्र में भी यही देखा, फिर जागे तो बहुत दु:खी हुए। उस समय श्रीराम का अयोध्या में रहते एक युग के प्रमाण का समय बीत गया तब कृपासागर श्रीराम ने विचार किया कि अब एक हजार वर्ष तक और पिता का पवित्र राज्य करना ठीक होगा।
त्यागउँ जनकसुता वनमाहीं। राखउँ श्रुतिपथ धर्म न जाहीं।।
मन प्रण करि पुनि सियपहँ आये। सादर बोले वचन सुहाये।।
सुमुखि न कछु मांगेहु केहुकाला। हँस कह कृपानिकेतन दयाला।।
निज छाया महि राखि बिनीता। रहहु जाय निज धाम पुनीता।।
प्रभुपद वंदि गई नभ सोइ्र। जीव चराचर लखेउ न कोई।।
तासन प्रभु अस कहेउ बुझाई। मन भावत मांगहु सुखदाई।।
गो. तुलसीदासजी कृत रामायण, स. टीकाकार पं. ज्वाला प्रसाद मिश्र उत्तरकाण्ड लवकुश काण्ड १२-१ से ६
श्रीराम ने मन में विचार किया कि वे जानकीजी को वन में त्याग देंगे और वेद के मार्ग का अनुकरण करेंगे। जिससे धर्म न जा सके। यह मन में प्रतिज्ञा कर फिर श्रीराम जानकीजी के निकट गए और आदरपूर्वक सुन्दर वचन कहे। हँसकर कृपासागर श्रीराम ने सीताजी से कहा हे सुन्दरी! आज तक कभी तुमने मुझसे कुछ नहीं माँगा। तुम ऐसा करो कि अपनी छाया पृथ्वी में रखकर पवित्रधाम में जाकर रहो। इतना सुनते ही जानकीजी ने प्रभु के चरणों में नमस्कार कर आकाश को चली गई। इस बात को चर-अचर किसी भी जीव ने नहीं जाना। माया की सीता से श्रीराम ने यह बात अच्छी तरह समझाकर कही कि तुम अपना मनमाना सुखदायक वर माँग लो। जानकीजी बोली कि ऋषि-मुनियों के सुन्दर स्थान को छोड़कर आपके साथ अब घर आने से मन में बड़ा संकोच हुआ है। मेरी इच्छा है कि स्त्रियों के धारण करने योग्य सब सुन्दर गहने जो कि मनभाये इस प्रकार मुनि पत्नियों को जाकर पहना दूँ।
श्रीराम ने हँसकर कहा कि प्रात:काल तुम्हारे मनोरथ पूर्ण हो जाएंगे अर्थात् तुम मुनि पत्नियों को गहने-वस्त्र आदि ले जाना। प्रात:काल होते ही भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न श्रीराम के पास आए तथा सभी भाइयों ने पृथ्वी पर सिर धरकर प्रणाम किया किन्तु श्रीराम कुछ न बोले। श्रीराम का मुख व्याकुल और शरीर का रंग विवर्ण-कांतिहीन देखकर तीनों भाई थरथर काँपने लगे, श्री रघुनाथजी का चरित्र जाना नहीं जाता। तत्पश्चात् श्रीराम मनोहर गूढ़ वाणी में बोले भाई। मेरा वचन हृदय में धारण करके सीता को वन में ले जाओ। यह तीक्ष्ण वचन सुनकर तीनों भाई सहमकर सूख गए, उनका शरीर जलने लगा और हृदय में ज्वाला उत्पन्न हो गई। उनके मन में यह दुविधा हुई कि श्रीराम हँसी कर रहे हैं या सत्य कह रहे हैं।
भरत आदि भाई सब अत्यन्त ही दु:खी एवं व्याकुल हो गए और मुँह से कोई वचन नहीं निकला तब शत्रुघ्न हाथ जोड़कर नेत्रों में नीर भरकर कहने लगे। हे प्रभु! आपका वचन सुनकर हृदय काँप उठा कि जानकीजी जगत् माता हैं, यह सब कोई जानता है। आप जगत् के पिता प्रभु सबके हृदय में वास करने वाले हैं और सच्चिदानंद आनन्द के राशि हैं।
कारण कवन जानकी त्यागी। मन वचन क्रम तव पद अनुरागी।।
सुनु सर्वज्ञ सुगर्भिनि जानी। रिसि परिहास कि सत्य सुबानी।।
गो. तुलसीदासजी कृत रामायण सं. टीकाकार पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र उत्तरकाण्ड लवकुश काण्ड-१४-३-४
क्या कारण है जो जानकीजी का त्याग किया? वे तो मन-वचन-कर्म से आपके चरणों की अनुरागिनी है। हे सर्वज्ञा सुनिये गर्भिणी जानकर यह हँसी में कहा है या सत्य है? यह सुनकर दैत्यों के मारने वाले प्रभु के नेत्रकमलों में जलभर आया और कोमल वचन बोले- भाई! जो मेरी आज्ञा उल्लंघन करोगे तो मैं अपने शरीर में प्राण नहीं रखूँगा। नारायण की इच्छा होनहार बलवान है, हे छोटे भाई! यही हमारी आज्ञा मानो कि प्रात:काल होते ही जानकी को ले जाओ। यह कठोर वचन सुनकर भरतजी हाथ जोड़कर बोले- हे सर्वज्ञ प्रभु! हमारी मति तो भोली है आप हमारी विनती सुनिये। यह सूर्यवंश जगत् भर में विख्यात हे, दशरथजी आपके पिता और माता कौशल्या हैं। हे प्रभु! आप तीनों लोकों के पति हो यह सब जगत् जानता है जिनके यश को अनेक प्रकार से शेष और वेद गाते हैं। आपकी सत्य शक्ति जो प्रकट है। हे स्वामी। उसको वेद और शेषजी वर्णन नहीं कर सकते हैं। जनकनन्दिनी जानकीजी की शोभा की खानि है, अमंगल रहित और मंगल देने वाली हैं।
जल बिनु मीन की जिये कृपाला। होय कृषि बिनु वारिदमाला।
अस तुम बिनु छिन जियै कि सीता। ज्ञानवंत अतिनिपुण विनीता।।
गो. तुलसीदासजी कृत रामायण सं. टीकाकार ज्वालाप्रसाद मिश्र उत्तर लवकुशकाण्ड १४-७-८
भरतजी ने श्रीराम से कहा हे कृपालु! जल के बिना मीन (मछली) क्या जीवित रह सकती है? और बिना मेघ के क्या खेती हो सकती है? इसी प्रकार आपके बिना ज्ञानयुक्त अति चतुर विनीत जानकी जो क्या क्षणमात्र भी जीवित रह सकती है? श्रीराम ने भरतजी के करुणा और प्रेम भरे यह वचन सुनकर उनसे कहा कि भरत। तुमने नीति तो सुन्दर कही है।
दोहा : – तदपि नृपहि चाहिय सदा, राजनीति धन धर्म।।
वसुधा पालहि शोच तजि, वचन प्रीति शुचिकर्म।।
गो. तुलसीदासकृत रामायण सं. टीकाकार पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र उत्तर लवकुश काण्ड दो. १४
फिर भी राजा को सदा ही राजनीति धन और धर्म की रक्षा करनी चाहिए, शोच नहीं करके प्रीति के वचन और धर्म कर्म से पृथ्वी का पालन उचित है। तत्पश्चात् दूत ने जो कुछ कहा था वह श्रीराम ने सुनाकर कहा कि यह कुल में बड़ा भारी कलंक लगा है। सूर्यवंश में कई राजा हुए हैं, वे एक से बढ़कर एक बड़े थे, इस बात को सारा जगत जानता है। रघु, दिलीप, स्वायंभुव, मनु सगर और भागीरथ जिनकी वेद ने प्रशंसा की है और राजा दशरथजी को जगत में सब कोई जानते हैं जिन्होंने प्राण त्याग दिया पर वचन न जाने दिया। भरतजी बोले हे सर्वज्ञ! सबके पाप दूर करने वाले! जानकीजी कलंक रहित है। हे भाई! ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सब देवताओं ने सुन्दर रीति से देखा है और अग्नि में तपाकर आपने भी भलिभाँति परीक्षा कर ली है। जो देवता मुनि हैं उनमें ऐसा कोई भी नहीं है जो स्वप्न में इस चरित्र को देखकर जगत् मेें प्रसन्न हो। श्रीराम बोले हे लक्ष्मण! हठ और शोच छोड़कर सुनो, संसार चाहे भला कहे या बुरा। जानकी को तुरन्त रथ पर गंगा के समीप पहुँचा कर लौट आओ। बड़े घने वन में जहाँ कोई न हो हे तात! वहाँ जानकी को यत्न सहित छोड़ आओ। जब प्रभु ने यह कहा कि तुम उदास होकर वचनों को मानने से मना न करें। लक्ष्मणजी निराश होकर चल पड़े।
सुन्दर विमान में जानकीजी को बैठाया और बहुत से वस्त्र तथा आभूषण भी सँवार कर रख लिये। श्रीराम की जानकी अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक चल पड़ी।
दोहा. विवरण लखन निहारि करि, शोच निकल भर बाल।।
हृदय विचार न कहि सकत, मणि बिनु व्याकुल व्याल।।
गो. तुलसीकृत रामायण सं. टीकाकार ज्वालाप्रसाद मिश्र उत्तर लवकुशकाण्ड दोहा। ६
सीताजी लक्ष्मणजी को उदास देखकर सोच विचार में ऐसा व्याकुल हुई जैसे मणि बिना सर्प हो जाता है और हृदय में विचार करती है किन्तु कुछ वह कह भी नहीं सकती। गंगा पार घने वन में प्रवेश देखकर वह मन ही मन भयभीत हुई। फिर सीताजी बोली- स्वामी के छोटे भाई यहाँ मुनियों के धाम (आश्रम) दिखाई नहीं दे रहे हैं। यहाँ तो पशु, पक्षी, हिरण, सिंह, सर्प, हाथी, बन्दर, भेड़िये, बाघ, गीदड़ ये अनेक प्रकार के जीव-जन्तु यहाँ फिरते हैं। हे लक्ष्मण यहाँ तो कोई मुनि भी आता-जाता दिखाई नहीं दे रहा है। सीताजी की व्याकुलता देखकर लक्ष्मणजी मन ही मन कहने लगे कि हे ब्रह्मा, विष्णु, महेश आपने यह क्या कर डाला है। लक्ष्मणजी मूर्च्छित से होकर रथ से पृथ्वी पर गिरने लगे तथा कुछ क्षण बाद सँभल गए। सीताजी को देखकर मन में धीरज धारण किया और कहने लगे कि प्यास के मारे प्राण निकलने चाहते हैं। लक्ष्मणजी के प्राणों पर संकट देखकर जानकीजी बहुत व्याकुल हुई कि लक्ष्मण शरीर का त्याग करना चाहते हैं मेरे जीवन को बारम्बार धिक्कार है।
लक्ष्मणजी की दशा देखकर सीताजी को तो मूर्च्छा आ गई फिर उसी समय आकाशवाणी हुई- सुनो लक्ष्मण! जानकी को त्यागकर चले जाओ, यह भाग्यवती जनककुमारी जीती रहेगी। आकाशवाणी सुनकर लक्ष्मणजी को कुछ धैर्य हुआ और हाथ जोड़कर जानकीजी की प्रदक्षिणा की। रथ लेकर जानकीजी के चरणों को नमस्कार करके अयोध्या को चल पड़े परन्तु मन में बड़ा दु:ख था।
जानकीजी जब मूर्च्छा से जागी तब चारों ओर देखने लगी, वहाँ रथ-घोड़े और लक्ष्मणजी नहीं थे। जानकीजी वन में अनेक प्रकार से विलाप करने लगी थी कि उसी समय वन में वाल्मीकिजी आए। महर्षि वाल्मीकिजी ने कहा पुत्री! अपने वन में आने का सब कारण बताओ? हे मुनिराज मैं राजा जनक की कन्या एवं श्रीरामचन्द्रजी की भार्या हूँ। यह बात सारा जगत् जानता है किन्तु मैं अपने त्यागने का कारण (हेतु) कुछ नहीं जानती, विधाता की गति बलवान है। मेरे देवर लक्ष्मण मुझको यहाँ पहुँचाकर चले गए तब महर्षि वाल्मीकिजी ने ध्यानस्थ होकर सब कारण जान लिया। महर्षि वाल्मीकिजी कहने लगे हे पुत्री! सुनो मिथिलापति जनक तुम्हारे पिता हमारे बड़े भक्त शिष्य हैं। वाल्मीकिजी ने जानकीजी से कहा- हे जानकी तुम चिन्ता मत करो, अन्त में तुम्हारा मंगल होगा तथा श्रीरामजी मिलेंगे। इतना कहकर वाल्मीकिजी जानकी को आदरसहित अपनी पर्णशाला में ले आए और मज्जन करके फिर सब आने वाली गति जान ली। वाल्मीकिजी ने जानकी को अनेक प्रकार से धीरज दिलवाया। तत्पश्चात् जानकीजी ने गंगाजी में स्नान किया और श्रीराम को स्मरण कर उनकी मूर्ति हृदय में धारण की, तब मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया तथा उन्हें खाने के लिए कुछ फल दिए।
वाल्मीकिजी अनेक प्रकार की कथाएं कहते हैं, जानकी पक्षियों सहित श्रवण करती है। लक्ष्मणजी जानकीजी को त्याग कर अयोध्या जब आए तब व्याकुल होते हुए महल में गए और अनेक प्रकार से माताओं के सामने रोने लगे कि जानकीजी को बड़ा कष्ट दिया। माताएँ लक्ष्मण की यह बात सुनकर ऐसे डर कर मूर्च्छित हो गईं जिस प्रकार साँप की मणि जाती रहने पर वह व्याकुल हो जाता है। माता बहुत भाँति से रोती हुई कहती है अरे! इस दारुण संकट को कौन सह सकता है? इस प्रकार कोलाहल सुनकर श्रीरामजी लक्ष्मण को अपने साथ स्वयं के महल में ले गए और जब माताओं को अपना ब्रह्मज्ञान देकर समझा दिया तब उनके हृदय के किवाड़ खुल गए और कहने लगी कि हे स्वामी! हम आपको अपना पुत्र समझकर भूल से भ्रम के फंदे में पड़ी रही थी। हे जगदीश्वर श्रीरामजी! अब कृपा करके अपनी सुन्दर अचल तथा परम पवित्र भक्ति दीजिए। जिसको योगी, मुनि, तपस्वी खोजते फिरते हैं। माताओं ने जो वर चाहा वही करुणासागर ने उनको दे दिया और सबने अन्त:करण शुद्ध करके आदरपूर्वक योग अग्नि में शरीर त्याग दिया।
दोहा. योग अग्नि तनु भस्मकरि, सकल गई पतिधाम।।
भरत शत्रु सूदन लेषन, शोक भवन श्रीराम।।
गो. तुलसीदासजी कृत रामायण, सं. टीकाकार पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र उत्तर लवकुशकाण्ड दो. १९
योगाग्नि में शरीर भस्म करके सब पति के लोक को चली गई। भरत, शत्रुघ्न, लक्ष्मण और श्रीरामचन्द्रजी को बहुत दु:ख हुआ।
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर