कोरोना के प्रकोप से जूझ रही दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा यह महामहारी नहीं होकर असंतुलित एवं भौतिकवादी आर्थिक मानसिकता है। हर किसी के मन में उछाल मार रही अमीरी की ललक है जिसमें हर कोई आर्थिक अपराध एवं पर्यावरण विनाश को नजरअंदाज कर रहा है। इसी से भ्रष्टाचार बढ़ा हैं, पर्यावरण का विनाश हो रहा है, महामारियां बढ़ रही हैं, इंसान का नैतिक एवं चारित्रिक पतन हो रहा है। जीवन पर प्रश्नचिन्ह टंक रहे हैं और अंधकारपूर्ण स्थितियां व्याप्त है। इन खतरों का कारण अमीरी बताया जा रहा है। मजेदार बात यह है कि संतुलित आर्थिक विकास को अपनाने का सुझाव और कोरोना जैसी व्याधि का कारण अमीरी को बताने का निष्कर्ष किसी आध्यात्मिक गुरु या साधु-संत का नहीं बल्कि दुनिया के कुछ जाने-माने वैज्ञानिकों का है। इससे भी बड़ी बात यह कि ऑस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैंड और ब्रिटेन के पर्यावरण वैज्ञानिकों की एक टीम द्वारा की गई यह स्टडी वल्र्ड इकनॉमिक फोरम द्वारा प्रायोजित है, जो खुद दुनिया के सबसे अमीर देशों का वैचारिक मंच है।
दुनिया विपन्नता की उपासक नहीं है, दारिद्र, गरीबी एवं अभाव की उपासक भी नहीं है किन्तु असंतुलित, हिंसक एवं एकांगी संपन्नता की भी उपासक नहीं है। संपन्नता विलासिता बढ़ाती है, सत्ता की भूख संघर्ष बढ़ाती है और विपन्नता क्रूरता बढ़ाती है। इन्हीं का परिणाम है कोरोना। प्राचीन ऋषियों ने कहा है अग्नि में कितना ही इंधन डालो, वह तृप्त नहीं होगी। समुद्र में कितनी ही नदियां आकर गिरे, वह भरेगा नहीं। तब पदार्थों की असीमित धन की आकांक्षा कैसे भर जाएगी? समस्या यह है कि हम दूसरों को सीमा में देखना चाहते हैं लेकिन अपनी सीमा तय नहीं करते। यह समय और विवेक का तकाजा है कि व्यक्ति स्वयं अपनी सीमा तय करे। महत्वपूर्ण प्रश्न हमारे सामने है कि हमारे लिए शांति अपेक्षित है या नहीं? स्वस्थ जीवन प्रिय है या नहीं? पवित्रता और आनंद चाहिए या नहीं? संयम के बिना शांति नहीं मिलेगी, संतोष के बिना स्वस्थ जीवन संभव नहीं है, पवित्रता के लिए साधन की शुद्धि करनी पड़ेगी। आनंद चाहिए तो स्वस्थ रहना पड़ेगा। स्वस्थ केवल शारीरिक रूप से ही नहीं, मानसिक और भावनात्मक रूप से भी रहना पड़ेगा।
समृद्धि को हम भले ही जीवन विकास का एक माध्यम माने लेकिन समृद्धि के बदलते मायने तभी कल्याणकारी बन सकते हैं जब समृद्धि के साथ चरित्र निष्ठा और नैतिकता भी कायम रहे। शुद्ध साध्य के लिए शुद्ध साधन अपनाने की बात इसीलिए जरूरी है कि समृद्धि के रूप में प्राप्त साधनों का सही दिशा में सही लक्ष्य के साथ उपयोग हो। संग्रह के साथ विसर्जन की चेतना जागे। किसी व्यक्ति विशेष या व्यापारिक-व्यावसायिक समूह को समृद्ध के अमाप्य शिखर देने की बजाय संतुलित आर्थिक समाज की संरचना को विकसित करना होगा। समृद्धि की बदलती फिजाएं एवं आर्थिक संरचनाएं अमीरी-गरीबी की खाई को पाटे। आज कहां सुरक्षित रह पाया है-ईमान के साथ इंसान तक पहुंचने वाली समृद्धि का आदर्श? कौन करता है अपनी सुविधाओं का संयमन? कौन करता है ममत्व का विसर्जन? कौन दे पाता है अपने स्वार्थों को संयम की लगाम? और कौन अपनी समृद्धि के साथ समाज को समृद्धि की ओर अग्रसर कर पाता है? भारतीय मनीषा ने ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः’’ का मूल-मंत्र दिया था-अर्थात् सब सुखी हों, सब निरोग हों, सब समृद्ध हो।
आर्थिक असंतुलन एवं पर्यावरण के बिगड़ते हालात पर चिंता पिछले कुछ दशकों में बढ़ती गई है। लगातार यह कहा जाता रहा है कि पृथ्वी को अगर एक जिंदा ग्रह बनाए रखना है तो मानव समाज को अपनी प्राथमिकता बदलनी होगी, संयम एवं अध्यात्म प्रधान जीवनशैली अपनानी होगी, अर्थ के घातक एवं विनाशकारी वर्चस्व को नियंत्रित करना होगा। अब तक ये बातें प्रायः नैतिकतावादी आग्रह के ही रूप में ही सामने आती रहीं। लेकिन अब इन्हें नैतिकता के साथ-साथ पर्यावरण, राजनीति, जीवन निर्वाह, स्वास्थ्य एवं संतुलित समाज के परिप्रेक्ष्य में अपनाना होगा। प्राथमिकताएं तय करने का अधिकार जिन लोगों के हाथों में था, उन्होंने ज्यादातर एक-दूसरे पर दोष मढ़कर ही काम चलाते रहे। बल्कि कई राष्ट्राध्यक्ष इस बीच ऐसे भी हुए जिन्होंने पर्यावरण संबंधी चिंताओं को यूं ही खड़ा किया जा रहा हौआ बताया और इन्हें सिरे से नकार दिया। बहरहाल, अभी ऐसा लग रहा है कि जो काम प्रदूषित होती हवा, जीव-जंतुओं की विलुप्त होती प्रजातियां और वातावरण में बढ़ती गर्मी नहीं कर सकी, उसे कोरोना वायरस ने एक ही झटके में संपन्न कर डाला। इस संकट ने न केवल आम लोगों को बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में निर्णायक स्थानों पर बैठे लोगों को भी उद्वेलित कर दिया है। बड़े-बड़े धनाढ्य, दुनियां की बड़ी आर्थिक शक्तियां और राजनीतिक ताकतें किंकर्तव्यविमूढ़ बनी हुई है। कई तरफ से यह बात सामने आने लगी कि अपने जीवन को अधिक से अधिक सुविधासंपन्न बनाने के क्रम में हमने अन्य जीव जंतुओं के लिए कोई सुकून की जगह ही नहीं छोड़ी है। उनके जीवन में लगातार बढ़ता हमारा दखल खतरनाक वायरसों के उभार का कारण बन रहा है।
जिस वैज्ञानिक रिपोर्ट ने नये आर्थिक दृष्टिकोण को अपनाने की चर्चा की है वह दृष्टिकोण भारत के आध्यात्मिक परिवेश से ऊर्जा प्राप्त कर सकता है। क्योंकि यहां भगवान महावीर एवं महात्मा गांधी जैसे सम्यक आर्थिक प्रक्रिया के सूत्रधार हैं। दुनिया में माक्र्स और केनिज जैसे अर्थशास्त्री के दृष्टिकोण को अपनाया जाता रहा है। वे शुद्ध रूप से आर्थिक व्यक्तित्व हैं, भौतिक व्यक्तित्व हैं। न आत्मा, न धर्म, न मोक्ष कोई अपेक्षा नहीं, केवल पदार्थवादी व्यक्तित्व हैं। जबकि अर्थ है आखिर किसके लिए? वह सुखी जीवन के लिए ही तो है। वह स्वयं को, परिवार, समाज और राष्ट्र एवं संपूर्ण मानवता को सुखी बनाए, निरोगी बनाये एवं शांतिपूर्ण जीवन प्रदत्त करें, लेकिन हो रहा इसका उल्टा है। इस पर चिंतन होना और एक नये आर्थिक दृष्टिकोण को अपनाने का विचार सामने आना, यही नये समाज एवं नये जीवन का आधार है। यहां हम जिस वैज्ञानिक रिपोर्ट की चर्चा कर रहे हैं, उसमें स्पष्ट कहा गया है कि अगले दस वर्षों में दुनिया के नष्ट होने का सबसे बड़ा खतरा परमाणु युद्ध से नहीं बल्कि लोगों की अधिक से अधिक उपभोग करने की इच्छा से जुड़ा है। लेकिन समस्या यह है कि इसी इच्छा का संगठित रूप वह उपभोक्तावाद एवं भौतिकवाद है, जो पिछले कुछ दशकों के आर्थिक विकास का मुख्य प्रेरक तत्व रहा है।
वल्र्ड इकॉनमिक फोरम जैसे मंचों ने उपभोक्तावाद के ग्लोबल इंजन जैसी भूमिका निभाई है और हर तरह से इसे प्रोत्साहित किया है। लेकिन यही वल्र्ड इकॉनमिक फोरम आज आर्थिक विकास की गति और दिशा में अपेक्षित बदलाव सुनिश्चित करने वाले ढांचागत सुधार की बात कर रहा है। फोरम के फाउंडर और एक्जीक्युटिव चेयरमैन क्लॉस श्वैब कोरोना महामारी की पृष्ठभूमि में पूंजीवाद को नए सिरे से ढालने की जरूरत बता चुके हैं। उम्मीद करें कि इस बार ये बातें महज बातों तक सिमटकर नहीं रह जाएंगी। इन्हें जमीन पर उतारा जाएगा, ताकि पृथ्वी के सभी जीव-जंतुओं के लिए बेहतर भविष्य सुनिश्चित हो सके एवं संतुलित एवं आदर्श समाज व्यवस्था को स्थापित किया जा सके। सचाई है कि लाभ से लोभ बढ़ता है- का अध्ययन करने पर यह फलित होता है कि आवश्यकताओं की वृद्धि के क्रम में कुछ आवश्यकताओं की संतुष्टि यानी सीमाकरण किया जा सकता है। किन्तु उनकी वृद्धि के साथ उभरने वाले मानसिक असंतोष और अशांति की चिकित्सा नहीं की जा सकती। असंतुलित अर्थविकास द्वारा प्रस्तुत मानव के भौतिक कल्याण की वेदी पर मानव की मानसिक शांति की आहुति नहीं दी जा सकती। इसलिए भौतिक कल्याण और आध्यात्मिक कल्याण के मध्य सामंजस्य स्थापित करना अनिवार्य है। यदि मनुष्य समाज को कोरोना जैसी महामारियों से मुक्ति दिलानी है, मानसिक तनाव, पागलपन, क्रूरता, शोषण, आक्रमण और उच्छृंखल प्रवृत्तियों से बचाना है तो यह अनिवार्यता और अधिक तीव्र हो जाती है। इसी अनिवार्यता की अनुभूति करके ही विश्व की कुछ बड़ी वैज्ञानिक शक्तियों में नये आर्थिक दृष्टिकोण की चर्चा की है वह प्रासंगिक है, एक नये मानव समाज को स्थापित करने का आधार है। प्रेषकः–ललित गर्ग