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सेंगोल क्या है और इसकी इतिहास कितनी पुरानी है ? जिसे नए संसद भवन में रखा जाएगा.

सेंगोल का ‘इतिहास’ काफी पुराना है,और यह चोला साम्राज्य से जुड़ा हुआ है. इसकी जरूरी बात यह है कि यह जिसे प्राप्त होता है, उससे “राज्य की प्रजा” निष्पक्ष और न्यायपूर्ण शासन की आशा करते है. “सेंगोल राजदंड” औपचारिक अवसरों पर चोल सम्राटों द्वारा ग्रहण किया जाता था और इसका इस्तेमाल उनके “अधिकार” को दर्शाने के लिए किया जाता था ! बता दूं कि सेंगोल शब्द की “उत्पत्ति” संस्कृत से “संकु” शब्द से हुई है जिसका अर्थ “शंख” होता है ! सनातन धर्म में शंख को काफी पवित्र माना जाता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 28 मई को नए संसद भवन को देश को समर्पित करेंगे. हालांकि, नाम मात्र 19 विपक्षी दलों ने इसका विरोध किया है और महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जी से नए संसद भवन का उद्घाटन कराने की मांग किया है. यह विपक्षी पार्टियों का एक ‘Propaganda’ है और उनका टार्गेट नरेंद्र मोदी है !! चलिए अब पोस्ट की ‘विषयवस्तु’ पर आते हैं. नरेंद्र मोदीजी 28 तारीख रविवार वीर सावरकर जी के जन्म जयंती पर नए संसद भवन का उद्घाटन करेंगे.और इसके साथ ही इस मौके पर, एक ऐतिहासिक परंपरा का “पुनर्जीवित” होगा और नए संसद भवन में, सेंगोल को प्रधानमंत्री द्वारा स्थापित किया जाएगा जिसका इतिहास भी भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू जी से जुड़ा है. भारतवर्ष की आजादी के समय जब नेहरू जी से सत्ता हस्तांतरण को लेकर प्रश्न किया गया कि, इसके लिए क्या ‘आयोजन’ होना चाहिए !? इसके बाद नेहरू जी ने अपने सहयोगियों से बात की, और सी गोपालाचारी जी से पूछा गया इसके बाद सेंगोल को “चिन्हित” किया गया, और फिर सेंगोल को “तमिलनाडु” से मंगवाया गया. इसके बाद नेहरू जी सत्ता हस्तांतरण के प्रमाण सरूप, अंग्रेजों से “सेंगोल-राजदंड” को ग्रहण किया.

14 अगस्त 1947 को यह अनोखी घटना हुई थी !! इसके 75 साल बाद “अंग्रेजों” के बनाए गए संसद भवन से आजादी के मौके पर उस परंपरा को पुनर्जीवित किया जाएगा !! भारत के अधिकतर लोगों को इसकी इतिहास के बारे में जानकारी नहीं थी, “सेंगोल-राजदंड” ने हमारे इतिहास में एक अहम किरदार निभाई थी. ये सेंगोल अंग्रेजों से सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक बना था, और आज “76 सालों” के बाद अंग्रेजों के बनाए गए संसद भवन से “आजादी” का प्रतीक बनेगा !! जब सेंगोल की जानकारी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी को मिली तो, गहन जांच करवाई गई, और फिर यह फैसला लिया गया कि, और इसके लिए उसे राष्ट्र के सामने रखना चाहिए !! इसके लिए नए संसद भवन के लोकार्पण के दिन को चुना गया.

76 वर्षों से सेंगोल को ‘इलाहाबाद’ के संग्रहालय में रखा गया था. इसका “इतिहास” काफी पुराना है, और इसे संग्रहालय में रखना ठीक नहीं है, यह अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक है, और अब यह “आजादी के अमृतकाल” का प्रतिबिंब होगा. और नए संसद भवन के उद्घाटन के दिन ‘तमिलनाडु’ से आए विद्वान, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सेंगोल देंगे और इसके बाद इसे संसद में “लोकसभा अध्यक्ष” के आसन के पास, स्थापित किया जाएगा. ‘सेंगोल-राजदंड’ की स्थापना के लिए संसद से पवित्र जगह और कोई नहीं हो सकता. यह “राजदंड” चांदी से बनाया गया है और इसमें सोने की परत चढ़ाई गई है…

सेंगोल( राजदण्ड )

तो तय हुआ है कि स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्षों बाद अब भारतीय संसद में ‘राजदण्ड’ स्थापित होगा। प्रधानमंत्री नए संसद के उद्घाटन के दिन तमिलनाडु के एक मठ के संत से इसे प्राप्त करेंगे और लोकसभा अध्यक्ष के आसन के निकट इसे स्थापित किया जाएगा।
राजदण्ड का यह स्वरूप सम्भवतः चोल शासकों के समय से चला आ रहा है। “शिव का अनुयायी राजा स्वर्ग जैसा शासन करे” के पवित्र भाव के साथ सम्राट इस पवित्र सेंगोल को धारण करते थे। इसमें एक बड़े दण्ड के ऊपर नन्दी महाराज की आकृति होती है, जैसे वे शासक पर दृष्टि रख रहे हों। या शासक में भगवान शिव का अंश होने की सनातन मान्यता… फिर बिना नन्दी महाराज के कोई काम कैसे सफल होगा? दण्ड पर नन्दी महाराज का आसीन होना वस्तुतः धर्म का आसीन होना है।
भारतीय लोकतंत्र अपनी पचहत्तर वर्षों की यात्रा में यदि कहीं विफल रहा है तो दण्ड का भय स्थापित करने में विफल रहा है। सत्य यही है कि किसी को राजदण्ड का भय नहीं। स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता में कोई अंतर नहीं रह गया है। ऐसे में सांकेतिक तौर पर ही सही, राजदण्ड की स्थापना एक सुखद संकेत तो है ही…
दण्ड का भय केवल प्रजा के लिए ही आवश्यक नहीं है, यह भय सत्ता को भी रहना चाहिये। प्राचीन दंडनीति के अनुसार नैतिकता और विधि का पालन सर्वोपरि होता है जो दण्डित और दण्डधारी दोनों पर समान रूप से लागू होता है।
सत्ता के प्रमुख केंद्र पर धर्म का अंकुश होना ही चाहिये, अन्यथा वह अधर्मी हो जाएगी। यही कारण है कि बनाने वालों ने दण्ड के ऊपर नन्दी की मूर्ति लगाई होगी। धर्म सबसे ऊपर है। सेंगोल राजदण्ड नहीं, वस्तुतः धर्मदण्ड है।
सेंगोल का अर्थ होता है धर्म, सत्य और निष्ठा! इस राष्ट्र की सत्ता को इन तीनों मूल्यों की कितनी आवश्यकता है, यह सब समझ रहे हैं। शायद इसीलिए संसद में इस शक्ति के प्रतीक दण्ड का स्थापित होना अत्यंत शुभ लग रहा है।
यूँ तो इसे स्वतंत्रता के समय सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक रूप में माउंटबेटन द्वारा पण्डित नेहरू को दिए जाने की स्मृति में स्थापित करने की बात हो रही है। तब पीताम्बर पहने नेहरू ने भी दक्षिण के किसी संत के हाथों इसे प्राप्त किया था। हालांकि तब इसे प्रयागराज के किसी संग्रहालय में रख दिया गया था। इसे इसके उचित स्थान पर अब लाया जा रहा है।
कुछ संकेत बड़े सुखद होते हैं। अपने हर निर्णय को जन जन से जोड़ देने में माहिर प्रधानमंत्री से आशा है कि वे इस “भारत की सत्ता द्वारा धर्मदण्ड धारण करने के” पवित्र भाव को भी जन जन से जोड़ देंगे।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

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