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भारतीयों को मॉरीशस क्यों प्रिय है?

*विनीत नारायण
अफ्रीकी महाद्वीप के दक्षिण-पूर्व तट से से लगभग 900 किलोमीटर दूर हिंद महासागर के तट पर और मेडागास्कर
के पूर्व में स्थित द्वीपीय देश मॉरीशस भारतीयों के लिए काफ़ी आकर्षक स्थान है। अपने झील, झरनों, हरे भरे
जंगलों व प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर मॉरीशस हर नवविवाहित जोड़े के लिए बरसों से हनीमून मनाने का स्थान
बन हुआ है। परंतु क्या आप जानते हैं कि इसके अलावा भी एक कारण है जिसके लिये मॉरीशस भारतीयों को बहुत
प्रिय है।
सुंदर पर्यटक स्थल होने के कारण मॉरीशस में केवल हनीमून मनाने वाले पर्यटक ही नहीं आते। बल्कि ‘टैक्स हैवन’
के नाम से मशहूर इस छोटे से द्वीप पर हर उस व्यक्ति की नज़र बनी रहती है जो किसी न किसी तरह से भारत में
आयकर की चोरी करना चाहता है। चूँकि भारत और मॉरीशस के बीच हुए ‘दोहरे करारोपण संधि’ के तहत
भारतीय कंपनियां मॉरीशस की किसी कंपनी से समझौता कर भारत में एफडीआई के द्वारा निवेश करवा लेती
हैं।इस निवेश को निवेशकों की भाषा में ‘मॉरीशस रूट’ कहा जाता है। भारत में ‘मॉरीशस रूट’ के तहत हुए निवेश
पर कोई टैक्स नहीं देना होता। ऐसा करने से वे सभी कंपनियाँ जो भारत में निवेश करवाती हैं कैपिटल गेन्स टैक्स
देने से बच जाती हैं।
कई वर्ष पहले इंटरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ इनवेस्टीगेटिव जर्नलिस्ट्स (आईसीआईजे) की एक रिपोर्ट सार्वजनिक
हुई थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत की कई कंपनियों ने 1982 में हुए इस संधि का दुरुपयोग किया है। इस
समझौते के मुताबिक भारतीय कंपनियों को मॉरीशस में टैक्स रेजीडेंसी की सुविधा मिल जाती है। जिस कारण वे
जीरो कैपिटल गेन्स वाली श्रेणी में आ जाती थीं। ज़ाहिर सी बात है कि ‘मॉरीशस रूट’ से अपना ही पैसा घुमा कर ये
कंपनियाँ अपना निवेश वापिस भारत में ले आती हैं। इसी के चलते देश को करोड़ों के टैक्स का चूना लग जाता है।
जबकि इस टैक्स के पैसे को देश के विकास कार्यों में लगाया जा सकता था। पर ऐसा नहीं हो रहा।
‘मॉरीशस रूट’ हो या किसी अन्य ‘टैक्स हैवन’ देश से आने वाला निवेश, हमारे देश में ऐसा काफ़ी बड़ी मात्रा में हो
रहा है। देश की कई नामी कंपनियाँ ऐसा कई बरसों से कर रही हैं। नियमों में इस कमी का फ़ायदा उठा कर ये लोग
टैक्स चोरी कर देश में होने वाले विकास को पीछे धकेल रहे हैं। आम आदमी को सरकार द्वारा दी जाने वाली
सुविधाएँ समय पर नहीं दी जाती तो इसके पीछे टैक्स में होने वाली चोरी ही मुख्य कारण होता है। सरकार चाहे
केंद्र की हो या राज्य की, विकास कार्यों और सरकारी कर्मचारियों के वेतन के भुगतान के लिए टैक्स पर ही निर्भर
करती है। यदि टैक्स में कमी आती है तो विकास कार्यों में भी बाधा आएगी।
‘मॉरीशस रूट’ से आने वाले निवेश केवल एफ़डीआई के ज़रिये ही नहीं होते। उद्योगपतियों के अलावा भ्रष्ट नेता व अफ़सर भी
इसका फ़ायदा उठाते हैं। ये लोग भ्रष्टाचार के द्वारा कमाये गये अपने काले धन को हवाला के ज़रिये विदेशों में स्थित मॉरीशस
जैसे ‘टैक्स हैवन’ देशों में भेजते हैं। वहाँ पर कुछ शैल कंपनियों की मदद से उसी पैसे को कुछ चुनिंदा कंपनियों के शेयरों को
मन-माने दाम पर ख़रीदवाते हैं। भारत की कंपनियों के शेयरों का बढ़े हुए दाम पर बिकना शेयर मार्केट में अच्छा माना जाता
है। यदि ऐसा नियमों के दायरों में हो तो ये सही होता है। परंतु ‘मॉरीशस रूट’ से होने वाले ऐसे निवेश नियम क़ानून की
धज्जियाँ उड़ा कर होते हैं। जैसे ही किसी कंपनी के शेयर का दाम बढ़ता है, देश के भोले-भाले छोटे व मध्यम निवेशक भी
मुनाफ़ा कमाने की नियत से इसमें निवेश करते हैं। परंतु असल में उस कंपनी के शेयर की असल क़ीमत इससे काफ़ी कम होती
है।
मिसाल के तौर पर देश के एक राज्य के पूर्व मुख्य मंत्री के बेटे की एक ठंडी पड़ी कंपनी के 10 रुपये प्रति शेयर को देश के एक
भगोड़े ने 96,000 रुपये प्रति शेयर पर ख़रीदा। आरोप है कि ये अपने ही काले धन को घुमाकर किया गया। इसकी जाँच के
लिये दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की गई। कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय को नोटिस दे कर इसकी जाँच के

आदेश भी दिये। परंतु जाँच को लंबा खींचने और ढुलमुल रवैये अपनाने से इस मामले की जड़ तक नहीं पहुँचा जा सका।
ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर लोगों का जाँच एजेंसियों पर से भरोसा भी डगमगाने लगता है। इसलिए जब भी कभी ऐसा
विवाद खड़ा हो तो मामले की सघन जाँच होना ज़रूरी हो जाता है।
ऐसे में अपनी ‘योग्यता’ के लिए प्रसिद्ध देश की प्रमुख जाँच एजेंसियाँ शक के घेरे में आ जाती हैं। इन एजेंसियों पर विपक्ष
द्वारा लगाए गए ‘ग़लत इस्तेमाल’ के आरोप सही लगते हैं। मामला चाहे छोटे घोटाले का हो या बड़े घोटाले का, एक ही
अपराध के लिए दो मापदंड कैसे हो सकते हैं? यदि देश का आम आदमी या किसान बैंक द्वारा लिये गये ऋण चुकाने में
असमर्थ होता है तो बैंक की शिकायत पर पुलिस या जाँच एजेंसियाँ तुरंत कड़ी कार्यवाही करती हैं। उसकी दयनीय दशा की
परवाह न करके कुर्की तक कर डालती हैं। परंतु बड़े घोटालेबाजों के साथ ऐसी सख़्ती क्यों नहीं बरती जाती?
 
जैसा कि इस कॉलम में पहले भी लिख चुके हैं, घोटालों की जाँच कर रही एजेंसियों का निष्पक्ष होना बहुत ज़रूरी है। एक
जैसे अपराध पर, आरोपी का रुतबा देखे बिना, अगर एक सामान कार्यवाही होती है तो जनता के बीच ऐसा संदेश जाता है
कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्तता और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। सिद्धांत ये होना चाहिये कि किसी भी दोषी को
बख्शा नहीं जाएगा। चाहे वो किसी भी विचारधारा या राजनैतिक दल का समर्थक क्यों न हो। क़ानून अपना काम क़ानून के
दायरे में ही करेगा। मॉरीशस जैसे प्राकृतिक ख़ूबसूरती के लिए जाने जाने वाले द्वीपों को पर्यटन के लिए ही जाना जाए न कि
वित्तीय घोटालों में लिए जाने जाने वाले ‘मॉरीशस रूट’ जैसे अलंकारों के लिए।

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