भारत हो या अन्य लोकतांत्रिक देश राजनीतिक दल बिना चंदे के चुनाव लडऩे की सोच भी नहीं सकते है। यह भी सच है कि अगर चंदे में पारदर्शिता न हो तो यह भ्रष्टाचार की जड़ बन जाता है। असल में देश के ज्यादातर राजनीतिक दल चंदे के हिसाब-किताब में पारदर्शिता नहीं रखते हैं। हालाकि देश में राजनीतिक दलों को मिलने वाले चुनावी चंदे को लेकर इन दिनों खूब हो हल्ला मचा हुआ है। वित्त मंत्री अरूण जेटली नेे अबकि बार अपने बजट भाषण में राजनीतिक चंदे पर एक बड़ी घोषणा कर यह जताने की कोशिश की है कि भाजपा ही वह पार्टी है जिसे चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने की फिक्र है। इस बजट भाषण के दौरान वित्त मंत्री ने राजनीतिक पार्टियां को कैश में चंदा लेने की अधिकतम सीमा 2000 रुपये निर्धारित कर दी है। नई घोषणा के साथ ही अब राजनीतिक दलों को चंदा लेने के लिए चेक और डिजिटल माध्यम का सहारा लेना पड़ेगा। इसके साथ ही पार्टियों को चंदा देने वाले लोग सरकारी बॉन्ड दे सकते है। हालाकि राजनीतिक दलों के हिसाब-किताब में पारदर्शिता लाने के लिएइस तरह की पहल चुनाव आयोग पिछले 15 वर्षों से कर रहा है, लेकिन सियासी पार्टियां कोई न कोई रास्ता निकाल कर अपनी आमदनी और खर्च का ब्योरा देने से बचती रही हैं। चुनाव आयोग ने पिछले साल सभी पार्टियों को चि_ी लिख कर चुनावों में काले धन के इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए 10 सुझाव दिए थे लेकिन पार्टियों ने इसमें भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। सबसे पहले तो चुनाव आयोग ने बतौर सुझाव कहा था कि राजनीतिक पार्टी का खजांची भारत के चार्टर्ड अकाउंटेंट्स संस्थान द्वारा निर्धारित मानकों के आधार पर हो जो सभी वित्त संबंधी गतिविधियों और खातों का संचालन करे। इसके साथ ही चंदे को उचित समय के अंदर मान्यता प्राप्त बैंक में जमा करने की सलाह दी थी। चुनाव से जुड़े खर्च भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मान्य माध्यमों के जरिये ही किया जाए और चुनाव के दौरान उम्मीदवारों को आवंटित राशि के विवरण का प्रमाण पत्र लिया जाए।
राजनीतिक दलों को अपने खातों की ऑडिटिंग करा कर उसकी एक प्रति चुनाव आयोग को सौंपने की सलाह भी दी थी। राजनीतिक दलोंं के हिसाब-किताब में पारदर्शिता लाने की कोशिश आयोग पिछले 15 जुलाई 1998 से कर रहा है लेकिन अब तक किसी पार्टी ने न तो पारदर्शिता बरती है और न ही आय-व्यय का सही ब्यौरा रखा है। केन्द्र की सत्तारूढ राजग सरकार द्वारा चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने की यह पहल बेशक काबिले तारीफ हो सकती है लेकिन भाजपा द्वारा इसी चुनावी चंदे को लेकर यूपी के विधानसभा इलेक्शन में नई तरह की पॉलीटिक्स की जा रही है। इस प्रचार पोस्टर के माध्यम से जाने अजनाने ही सही बीजेपी ने एक अच्छा काम भी कर दिया है। बहरहाल इस विज्ञापन के माध्यम से भाजपा ने यह स्वीकार किया है कि अज्ञात सोर्स से आमदनी राजनीतिक भ्रष्टाचार का जरिया है। यूपी चुनाव में भाजपा ने जिस एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स की रिर्पोटस (एड़ीआर) का हवाला देकर जो पोस्टर बाजार में उतारा है वह इस बात की खुलेआम वकालत कर रहा है कि राजनीतिक दल चुनावी चंदे में पारदर्शिता को लेकर हमेशा टालु रवैया अपनाते रहे है।
भाजपा ने अबकि बार जो चुनावी प्रचार पोस्टर लगाया है उसमेंं मायावती और अखिलेश यादव का फोटो लगाकर चुनावी चंदे का हवाला देते हुए लिखा है कि बुआ-भतीजा सब भ्रष्ट हैं। इसके साथ ही लिखा है कि चुनावी चंदे में बसपा की आमदन सौ फीसदी अज्ञात स्त्रोत से होती है जबकि समाजवादी पार्टी की आमदनी चौरानवे फीसदी अज्ञात स्त्रोत से हुई है। भाजपा ने यह प्रचार पोस्टर चस्पा करके लोगों के सामने बसपा-सपा को चुनावी चंदे को लेकर कटघरे में खड़ा करने का काम तो कर दिया है लेकिन खुद के दामन में कितने दाग है यह सरासर छुपा लिया है। इस प्रचार पोस्टर में भाजपा ने बड़ी चालाकी से इस बात को भी छुपाया है कि पार्टी को अभी तक जो भी चंदा मिला है वह सब ज्ञात स्त्रोत से ही मिला है। असल में सच कुछ ओर है। क्या आप जानते हैं या भाजपा ने इस विज्ञापन के सहारे यह बताने की कोशिश कि है कि अज्ञात सोर्स से सबसे अधिक कमाई किसकी होती है? जिस एडीआर की रिपोर्ट का हवाला देकर भाजपा ने सपा-बसपा को भ्रष्ट कहा है, उसमें दूसरे नंबर पर भाजपा है और पहले नंबर पर कांग्रेस है। कांग्रेस की आमदनी का 83 फीसदी हिस्सा अज्ञात सोर्स से आता है यानी 3,329 करोड़ रुपये। भाजपा की आमदनी का 65 फीसदी हिस्सा अज्ञात सोर्स से आता है यानी 2,126 करोड़ रुपया। बीजेपी के अनुसार अगर अज्ञात सोर्स से 112 करोड़ कमाने वाली बसपा भ्रष्ट है तो अज्ञात स्त्रोत से 2126 करोड़ कमाने वाली भाजपा क्या है। 100 करोड़ और 2000 करोड़ में फर्क होता है या नहीं होता है। क्या अज्ञात स्त्रोत से 2126 करोड़ की आमदनी करने वाली भाजपा ईमानदार कही जाएगी? क्या भाजपा अज्ञात सोर्स से 3,329 करोड़ की आमदनी करने वाली कांग्रेस को उससे भी बड़ी ईमानदार मानती है? भाजपा ने बड़ी ही धुर्तता से खुद को और कांग्रेस को इस पोस्टर से गायब कर दिया है। इसे भी समझना होगा। इस पोस्टर में बसपा-सपा को भ्रष्ट घोषित कर भाजपा ने यूपी की जनता के साथ सत्य छुपाने का भी अपराध किया है। बता दे कि यूपी बीजेपी का यह राजनीतिक विज्ञापन नोटबंदी के दौरान प्रधानमंत्री के उन आश्वासनों का भी अनादर करता है जब उन्होंने कहा था कि वे राजनीतिक दलों की फंडिंग पर खुली चर्चा करना चाहते हैं। हालांकि राजनीतिक दलों की फंडिंग पर कई साल से खुली चर्चा हो रही है, तमाम तरह की रिपोर्टस आई है फिर भी चर्चा की यह भावना कहीं से ठीक नहीं है कि एडीआर की रिपोर्ट का एक हिस्सा लेकर दूसरे दलों को भ्रष्ट ठहराया जाए और खुद के कारनामों का जिक्र न कर चुप्पी साध ली जाए। भाजपा ने इस विज्ञापन में रिपोर्ट में जारी उस बात का भी हवाला नही दिया कि राजनीतिक दलों में अंदर अज्ञात सोर्स से होने वाली आमदनी लगातार बढ़ रही है। इस आमदनी में पिछले दस सालों में 313 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। क्षेत्रिय दलों में अज्ञात सोर्स से आमदनी में 600 प्रतिशत से अधिक का इजाफा हुआ है वहीं राष्ट्रीय दलों की आमदनी का 70 फीसदी हिस्सा अज्ञात सोर्स से आता है। यानी चुनावी चंदे के मामले में भाजपा ने बड़ी चतुराई से खुद को दुध का धुला तो साबित कर दिश लेकिन ये सब करने में वह इस बात को भूल गई कि ये पब्लिक है सब जानती है। बेशक बसपा-सपा ने अपने चुनावी चंदे का स्त्रोत नही बताया क्योंकि सरकार के नियम ही कुछ ऐसे है कि वह इससे बच निकलते है। भाजपा ने जो विज्ञापन जारी किया है उसके हिसाब से बसपा अपने दानकर्ताओं के बारे में कोई जानकारी नही दी। दरअसल एक नियम है कि चंदे में मिलने वाली सारी रकम 20,000 रुपये से कम हो तो दानकर्ता का नाम उजागर करने की बाध्यता नही है। इसी नियम के चलते बसपा-सपा नाम बताने की कानूनी दायित्व से मुक्त हो जाती है। आयकर कानून में ही यह प्रावधान है कि 20,000 रुपये से कम की राशि होगी तो आय का जरिया बताने की जरूरत नहीं रह जाती है। इस हिसाब से राजनीतिक दल कोई कानून नहीं तोड़ते बल्कि इस कानून का लाभ उठाकर दानकर्तांओं या आमदनी का जरिया बताने से बचते हैं। यह काम केवल बसपा-सपा ही नही करती है बल्कि हाल ही में वजूद में आई आम आदमी पार्टी भी करती है। भाजपा-कांग्रेस तो इस खेल के महारती है। इस मामले में एडीआर की रिपोर्ट के बाद मीडिया में जो छापा गया या चैनलों के माध्यम से प्रसारित किया गया उसे ज्यादातर मीडिय़ा माध्यमों ने काफी बड़ा-चड़ा कर प्रस्तुत किया था। भाजपा के इस भ्रामक विज्ञापन की असलीयत समझने के लिए यह जानना जरू री है कि अगर बसपा को अज्ञात सोर्स से सौ करोड़ मिले हैं तो बाकी दलों को क्या बिलकुल नहीं मिले हैं?
हालाकि इस प्रचार पोस्टर में दिए गए तथ्यों को सही माना भी लिया जाए तो भी कुछ ऐसे तथ्य है जो भाजपा की नीयत पर सीधे सवाल खड़े करते है। सबसे पहले तो हम यह जान ले कि आज की तारीख में चुनावी चंदा पाने में भाजपा नंबर एक पर है। देश की जनता भी यह भंली भांति जानती है कि चुनावी चंदे के मामले में कोई भी पार्टी दुध की धुली नही है। सबके दामन में दाग है। काबिलेगौर हो कि देश की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों को पिछले वित्त वर्ष के दौरान कुल 622 करोड़ रुपये चंदे के रूप में मिले थे। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक सबसे अधिक चंदा (437.35 करोड़ रुपये) केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को मिला है। उसके खाते में आई रकम चार राष्ट्रीय दलों कांग्रेस, राकांपा, भाकपा और माकपा को मिले कुल चंदे के दुगने से भी ज्यादा है। वहीं देश के छठे राष्ट्रीय दल बसपा को ज्ञात स्त्रोत से कोई चंदा ही नहीं मिला। ये आंकडे सभी दलों द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए चंदे के ब्योरे के हवाले से सामने आए है। आयोग को भाजपा ने बताया कि उसे 1,234 वीं बार दान में कुल 437.35 करोड़ रुपये की रकम मिली थी। इनमें बड़े व्यावसायिक घराने और व्यक्तिगत दानदाता दोनों शामिल है। वहीं बसपा ने बताया कि उसे 20 हजार रुपये से बड़ा कोई चंदा नहीं मिला। इसके अलावा राकांपा ने घोषित किया कि उसको 2013-14 में 14.02 करोड़ रुपये चंदे के रूप में मिले थे। इसमें एक साल में 177 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। 2014-15 में उसे 38.82 करोड रुपये चंदे के रूप में मिले थे। वहीं भाजपा को पिछले वित्त वर्ष के 170.86 करोड़ रुपये के मुकाबले 437.35 करोड़ रुपये मिले। यानी भाजपा के चंदे की रकम में कुल 156 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। यहां यह भी बता दे कि भाजपा को औद्योगिक घरानों से भी सबसे अधिक चंदा मिला है। राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए अंबानी, मित्तल सहित पांच औद्योगिक घरानों ने ट्रस्ट भी बना रखे हैं। इसके अलावा दो दर्जन से अधिक कारोबारी समूह इस तरह की योजना बना रहे हैं। ये सभी ट्रस्ट नए नियमों के तहत पंजीकृत किए जा रहे हैं। नए नियमों के मुताबिक चुनावी चंदे के लिए ट्रस्ट का गठन करना जरूरी है। इसमें राजनीतिक पार्टियों को दिए गए चंदे पर कर में छूट भी मिलती है। एड़ीआर की रिपोर्ट के मुताबिक देश के औद्योगिक घरानों ने राजनीतिक पार्टियों को 379 करोड़ रुपये चंदा दिया। भाजपा को 1,334 कंपनियों से 192.47 करोड़ और कांग्रेस को 418 कंपनियों से 172.25 करोड़ रुपये चंदे में मिले। इन कंपनियों से मिला चंदा सियासी दलों को ज्ञात सभी स्त्रोतों से प्राप्त चंदे का 87 फीसदी है। असल सवाल तो ये है कि21 सौ करोड़ रुपये अज्ञात सोर्स से लेने वाली भाजपा कम भ्रष्ट कैसे हो सकती है ?
संजय रोकड़े