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विकास और सुरक्षा की दृष्टि से ज़रूरी है मणिपुर में बदलाव

मणिपुर पूर्वोत्तर में म्यांमार का सीमावर्ती राज्य है। देश की अखंडता को बरकरार रखने के लिए सुदूर सीमावर्ती राज्य का मजबूत होना एक आवश्यक अहम शर्त होती है। हालांकि, 2017 में हो रहे सभी पांच राज्यों की सीमा अन्तर्राष्ट्रीय सीमा से लगी है किन्तु एक सुदूर प्रदेश होने के कारण मणिपुर की सीमा का महत्व बढ़ जाता है। जिस तरह हृदय से सुदूर अंगों को रक्त पहुंचाने का काम धमनी और शिराओं के माध्यम से होता है वैसा ही सुदूर प्रदेशों में विकास का मॉडल पहुंचाने का काम केंद्र और राज्य सरकारों का होता है। प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता संभालने के बाद से ही पूर्वोत्तर के राज्यों पर विशेष ध्यान दिया है। असम के बाद अब मणिपुर पर उनकी निगाह है। मणिपुर की भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार मणिपुर के चुनाव का महत्व समझा रहे हैं विशेष संवाददाता अमित त्यागी।

मणिपुर में पिछले पंद्रह सालों से कांग्रेस का शासन रहा है। ओकराम इबोबी लगातार मुख्यमंत्री का पद संभाल रहे हैं। अब जब कोई भी सरकार इतने सालों से लगातार चल रही हो तो इसकी दो वजहें प्रमुख होती है। या तो वह सरकार इतनी बेहतर होती है कि लोग उसके काम से खुश होते हैं या फिर जनता के पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं होता है कि वह किसी दूसरे दल को चुन सकें। पूर्वोत्तर के राज्यों में दूसरी वजह ज़्यादा महत्वपूर्ण है। इस बिन्दु पर गौर करते हुये भाजपा ने पूर्वोत्तर के सभी राज्यों को कांग्रेस से मुक्त करवाने के लिए पिछले साल राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की देखरेख में नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (नेडा) का गठन किया था। असम में जीत के द्वारा वह इसकी उपयोगिता साबित भी कर चुके हैं, पर अब इस टीम का मुख्य इम्तेहान मणिपुर में है। मणिपुर में बीजेपी के प्रभारी केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, राम माधव, अजय जामवाल, रामलाल जैसे नेता चुनाव जीतने की रणनीति  तैयार कर रहे हैं।

मणिपुर में सत्ताधारी कांग्रेस इस बार भी विकास के मुद्दे पर चुनाव लडऩे जा रही है। चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह ने सात नए जिले गठन कर एक बड़ा राजनैतिक दांव चला है। भाजपा के लिये इसकी काट करना आसान नहीं दिखता है। पर भाजपा का इस पर कहना है कि अगर सरकार को यह काम करना ही था तो पिछले पंद्रह सालों में इसको करना चाहिए था। अब चुनाव में यह मुद्दा बनाकर वह क्यों जनता को गुमराह कर रही है। कांग्रेस के विरोध में एक और बात जाती दिख रही है, एंटी इंकमबेंसी। मणिपुर की भौगौलिक संरचना कुछ इस तरह है कि वहां रेल यातायात लगभग नगण्य है। सड़क मार्ग ही परिवहन का एक मात्र साधन है और वह भी काफी कम है। असम में जहां एक हज़ार वर्ग किमी में सड़क का औसत लगभग 3000 किमी है वहीं मणिपुर में यह 800 किमी के आस पास है। इस तरह अभाव में जीते हुये मणिपुर की जनता इस बार बदलाव के लिये तैयार दिखाई दे रही है।

पहाड़ क्षेत्र में मजबूत भाजपा, घाटी में अभी भी कांग्रेस का दबदबा

60 विधानसभा वाला मणिपुर दो भागों में बांटा जा सकता है। एक पहाड़ और दूसरा घाटी। पहाड़ी इलाकों में 20 सीटें हैं तो घाटी के इलाके में 40 सीटें हैं। दोनों स्थानों के अपने अलग अलग मुद्दे हैं। दोनों इलाकों के बीच में गलतफहमी बनी रहती है। भाजपा का कहना है कि पहाड़ी और घाटी के लोगों के बीच ग़लतफ़हमी को दूर करना भी उनकी पार्टी का प्रमुख काम होगा। पहाड़ में नगा जाति निवास करती है और घाटी में मेतई जाति। नगा थोड़े पिछड़े हैं और विकास से अछूते हैं। राज्य प्रशासन और प्रदेश की राजनीति में हमेशा मेतई समुदाय का ही दबदबा रहा है। यह एक बड़ा समुदाय है क्योंकि मणिपुर की 31 लाख जनसंख्या में 63 प्रतिशत आबादी मेतई समुदाय से है। स्वयं कांग्रेसी मुख्यमंत्री इबोबी सिंह भी मेतई समुदाय से आते हैं। यही वजह है कि इतने बड़े वोट बैंक होने के कारण मणिपुर की सत्ता प्राप्त करने के लिये मेतई बहुल घाटी की सीटों पर जीत बेहद अहम होती है।

चूंकि कांग्रेस पिछले 15 साल से शासन में है इसके बावजूद मणिपुर में उग्रवाद, फर्जी मुठभेड़, विवादित अफ़्स्पा क़ानून, बेरोजग़ारी, सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार, आर्थिक नाकाबंदी, आम हड़ताल, पहाड़ी और घाटी के लोगों के बीच टकराव जैसे अहम मुद्दों पर सरकार विफल हो गयी है। सत्ता में रहते हुये कांग्रेस जिन मुद्दों को सुलझा सकती थी उसे भी वह सुलझा नहीं पायी। अगर इन चुनावों में भाजपा इन मुद्दों को जनता के बीच ले जाने में सफल हो गयी तो इस बार मणिपुर में बदलाव तय दिखाई दे रहा है। इस बार मानवाधिकार कार्यकर्ता और बरसों तक अनशन पर रहीं इरोम शर्मिला चानू ने अपनी एक पार्टी पीपलस रिसर्जेंस एंड जस्टिस अलायंस का गठन कर लिया है। वह भी चुनाव मैदान में उतार चुकी हैं किन्तु कोई खास चुनौती पेश करती नजऱ नहीं आ रही हैं। बिहार की तरह महागठबंधन करते हुये कुछ दलों ने मणिपुर में अपनी पहचान बनाने के हिसाब से एक मंच पर आने का निर्णय लिया है। सीपीआई, सीपीआई (एम), एनसीपी, आम आदमी पार्टी, जद (यू) और मणिपुर नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ने लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट नाम से एक संयुक्त मोर्चा बनाया है। इसके साथ ही मणिपुर पीपुल्स पार्टी और मणिपुर स्टेट कांग्रेस पार्टी नामक कुछ स्थानीय क्षेत्रीय दल भी मैदान में ताल ठोक रहे हैं। यदि पिछले चुनाव के इतिहास को देखें तो सीपीआई का पिछले चुनाव में खाता ही नहीं खुला था और एनसीपी का एक विधायक सीट जीतने के बाद कांग्रेस से विलय कर बैठा था। मणिपुर स्टेट कांग्रेस पार्टी ने पांच सीट पर जीत दर्ज की थी।  जबकि तृणमूल कांग्रेस के चार विधायक पहले ही कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं।

भाजपा के लिये है एक मौका

भाजपा ने पूर्वोत्तर को कांग्रेस मुक्त करने का जी अभियान चला रखा है उसको हौसला असम की जीत से मिला है। असम में मिली बड़ी जीत और मणिपुर में 2 सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा का विजयी होना समीकरण बदल रहा है। भाजपा को इस बात का आभास है कि इस बार मणिपुर बदलाव की राह पर है। भाजपा ने असम की जीत के सूत्रधार हेमंत बिस्वा सरमा को असम के बाद मणिपुर की जिम्मेदारी दी है। वह यहां की स्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ हैं। चुनाव से ठीक पहले मणिपुर में नए जिलों के गठन के बाद जिस तरह हिंसा और विरोध हुआ उसके बाद यह, वहां बड़ा मुद्दा बन गया है। भाजपा का ध्यान इसी मुद्दे को भुनाने का है। इस मुद्दे ने राजनीतिक समीकरण को पूरी तरह बदल दिया है। इसको 15 सालों के कांग्रेस शासन की असफलता से जोड़कर भी देखा जा रहा है। मणिपुर की जनता हालांकि, बहुत जागरूक जनता नहीं कही जा सकती है। सोशल मीडिया का प्रभाव भी वहां ज़्यादा व्यापक नहीं दिखाई दे रहा है फिर भी इन सबके बावजूद इस बार मणिपुर में बदलाव दिखाई दे रहा है। असम के चुनाव परिणामों का असर यहां के बदलाव का मुख्य आधार बनने जा रहा है।

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