इस दुष्काल में हुए लॉक डाउन ने भारतीयों को प्रकृति का सानिध्य महसूस कराया था हम घर में रहते हुए सुबह की मंद बयार और गौधुली की उष्मा महसूस करने लगे थे | लॉक डाउन-१ हटा हो या २ हालत बदतर ही हुए | अब उद्योग खुलने के साथ पर्यावरण सूचकांक फिर डराने लगा है | सच भी है कोई भी व्यावहारिक कारोबार हमेशा इस बात को लेकर चिंतित रहेगा कि वह वो सब करे करे जिन पर उसका कारोबार निर्भर है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं का विरोध ठप है क्योंकि लॉकडाउन के कारण लोग एकत्रित नहीं हो सकते। ऐसे में अब तक उनकी अनदेखी करता आया मंत्रालय अब क्यों ध्यान देगा?
सच तो यह है कि सारा भारतीय समाज जिस पर्यावरण की निर्मलता से निरापद रहेगा | उस पर्यावरण के मोर्चे पर देश पिछड़ रहा है |इस नाकामी का एक मानक येल विश्वविद्यालय के पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में दिखता है। सन २०२० में जारी सूचकांक में भारत १८० देशों में १६८ वें स्थान पर रहा। जबकि २०१४ में देश १७४ देशों में १५५ वें स्थान पर था। सन २०२० के सूचकांक में अफगानिस्तान को छोड़कर अन्य सभी दक्षिण एशियाई देश भारत से बेहतर स्थिति में थे। इससे पर्यावरण कार्यकर्ताओं की चिंताओं को बल मिलता है।
इसका सबसे ताजा उदाहरण है पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना को शिथिल करने का प्रस्ताव। सरकार निर्माण उद्ध्योग को कुछ विशेष छूट इस दुष्काल ने नाम पर देने जा रही है | इसका आधार वह अधिसूचना है जो २००६ में पारित की गई थी |इसके तहत सभी परियोजनाओं को दो मोटी श्रेणियों में बांटा जाता है-पहली श्रेणी वह जहां केंद्र सरकार की मंजूरी और जांच की जरूरत है और दूसरी श्रेणी वह जहां राज्य सरकार को निर्णय लेना होता है। दूसरी श्रेणी में आगे और बंटवारा किया गया और उसके एक हिस्से में समुचित जांच और मंजूरी की आवश्यकता थी जबकि दूसरे को केवल प्रभाव आकलन प्रस्तुत करना होता था और राज्य को यह अधिकार था कि वह परियोजनाओं को इनमें से किसी भी श्रेणी में रखे।
इन्ही प्रावधान का इस्तेमाल करके पर्यावरण प्रभाव आकलन की आवश्यकताओं को शिथिल किया जा रहा है और कई ऐसी परियोजनाओं को बिना जांच और मंजूरी वाली श्रेणी में डाला जा रहा है जो अत्यधिक प्रदूषण फैलाने के लिए जाने जाते हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि संशोधन में प्रस्ताव रखा गया है कि दिशानिर्देशों का उल्लंघन करने वाले उद्योग मामूली जुर्माना चुकाकर बच सकते हैं। ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि पर्यावरण संरक्षण को विकास विरोधी मान लिया गया है। यदि वृद्धि को सही ढंग से परिभाषित किया जाए तो ऐसा नहीं है। वृद्धि का अर्थ केवल वस्तुओं और सेवाओं की उपलब्धता बढ़ाना नहीं है। उसका अर्थ है संपत्ति बढ़ाना और संपत्ति का अर्थ केवल जमीन, उपकरण और अन्य वस्तुएं नहीं बल्कि मानव संसाधन और प्राकृतिक संसाधन भी है।
इन तमाम बातों को ग्रीन नैशनल अकांउट्स इन इंडिया, अ फ्रेमवर्क नामक २०१३ की रिपोर्ट में विस्तार से समझाया गया है। यह रिपोर्ट राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समूह ने तैयार की थी जिसकी अध्यक्षता प्रोफेसर पार्थ दासगुप्ता के पास थी जो केंब्रिज विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्री हैं।
इस रिपोर्ट से उपजे कुछ सवाल के हल ऐसे निकल सकते हैं
‘आर्थिक आकलन जिस आधार पर किया जाना चाहिए, उसे संपत्ति की व्यापक धारणा के साथ अंजाम देना चाहिए। इसमें पुनरुत्पादन लायक पूंजी मसलन सड़क, बंदरगाह, केबल, भवन, मशीनरी, उपकरण आदि शामिल हों। इनके अलावा मानव संसाधन और प्राकृतिक संसाधन मसलन जमीन, पर्यावास आदि को शामिल किया जाना चाहिए।” किसी वन के साथ छेड़छाड़ किए बिना उसे सघन होने देना भी उसमें निवेश करना है। प्राकृतिक परिस्थितियों में मछली मारने की गतिविधि को अंजाम देना भी उस काम में निवेश करना होगा।’
प्रश्न यह है कि क्या पर्यावरण संरक्षण मुनाफा कमाने वाले कारोबारियों के लिए बाधा है? वास्तव में यदि ऐसे कारोबार दूरगामी दृष्टि लेकर चलें तो यह कोई बाधा नहीं है। कोई भी व्यावहारिक कारोबार हमेशा इस बात को लेकर चिंतित रहेगा कि वह उन संसाधनों की रक्षा करे जिन पर उसका कारोबार निर्भर है। वह नहीं चाहेगा कि स्थानीय, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण पर उसकी गतिविधियों का नकारात्मक असर हो। क्योंकि ऐसी स्थिति में पर्यावरण प्रभाव को लेकर संवेदनशील ग्राहकों और अन्य लोगों के मन में उसकी छवि खराब होगी। यह दलील भी दी जा सकती है कि दशकों तक चलने की दूरगामी दृष्टि वाले कारोबार पर्यावरण चुनौतियों को लेकर उन सरकारों की तुलना में ज्यादा संवेदनशील हो सकते हैं जिनका ध्यान चुनावों पर केंद्रित रहता है। प्राय: ऐसी सरकारें अल्पावधि के प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करती हैं। पर्यावरण निगरानी मानकों को शिथिल करने का असली दबाव ऐसे कारोबारों से आता है जो शीघ्र मुनाफा कमाने के चक्कर में रहते हैं।
हमारा देश भारत घनी आबादी वाला देश है और हमें उस संरक्षण की आवश्यकता है जो पर्यावरण हमें स्वच्छ हवा, स्वच्छ जल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के रूप में प्रदान करता है। जलवायु परिवर्तन बढऩे के साथ विपरीत मौसमी घटनाएं भी बढ़ रही हैं। ऐसे में हमें संरक्षण की आवश्यकता और अधिक होगी। प्रकृति हमें तभी बचाएगी जब हम उसे बचाएंगे|
-राकेश दुबे