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यूक्रेन युद्ध संकट से उठे भारतीय चिकित्सा शिक्षा प्रणाली पर सवाल

यूक्रेन युद्ध संकट से उठे भारतीय चिकित्सा शिक्षा प्रणाली पर सवाल-सत्यवान ‘सौरभ’
हाल ही में भारत की चिकित्सा शिक्षा प्रणाली ने यूक्रेन में युद्ध संकट और वाहन फंसे भारतीय मेडिकल  छात्रों को निकालने की आवश्यकता, आरक्षण संबंधी मुकदमेबाजी और तमिलनाडु के एनईईटी से बाहर निकलने के लिए कानून बनाने के कारण हमारा ध्यान अपनी ओर किया है। हमें अब इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि व्यवस्था में क्या खराबी है और स्थिति से निपटने के लिए पर्याप्त उपाय करने की जरूरत है।
भारत में चिकित्सा शिक्षा की प्रमुख समस्याओं में जनसंख्या मानदंडों के मामले में  मेडिकल छात्रों की  अपर्याप्त सीटें हैं। भारत में आवेदक उम्मीदवारों के अपेक्षा सीटों की संख्या काफी कम है। यहां प्रति वर्ष लाखों छात्र मेडिकल कोर्स में दाखिले के लिए राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा यानी नीट में भाग लेते हैं। लेकिन सरकारी कॉलेजों में अभ्यर्थियों के मुकाबले महज 10 फीसदी उम्मीदवारों को भी दाखिला मिल नहीं पाता है। क्योंकि, भारत में एमबीबीएस की मात्र 88 हजार सीट हैं। वहीं, आयुष के लिए 57 हजार सीट, जबकि बीडीएस की महज 27 हजार 498 सीट हैं।
आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2021 में करीब 16 लाख छात्रों ने नीट की परीक्षा दी थी। इससे स्पष्ट होता है कि इनमें से करीब 14.50 लाख छात्रों को भी दाखिला नहीं मिल पाता है। निजी कॉलेजों में, इन सीटों की कीमत प्रति वर्ष 15-30 लाख रुपये (छात्रावास खर्च और अध्ययन सामग्री शामिल नहीं) के बीच है। यह अधिकांश भारतीय जितना खर्च कर सकते हैं, उससे कहीं अधिक है। इतना होने के बावजूद वहां की गुणवत्ता पर टिप्पणी करना बहुत मुश्किल है क्योंकि कोई भी इसे मापता नहीं है। हालांकि, निजी-सार्वजनिक विभाजन के बावजूद, अधिकांश मेडिकल कॉलेजों में यह अत्यधिक परिवर्तनशील और खराब है।
नए मेडिकल कॉलेज खोलने की सरकार की पहल संकट से गुजर रही है। नए कॉलेजों में एक मामला  मेडिकल कॉलेज के अवैध शिक्षकों का भी है। जिसके परिणाम स्वरुप शैक्षणिक गुणवत्ता एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) ने भूतपूर्व फैकल्टी और भ्रष्टाचार की पहले की कई खामियों को दूर करने की कोशिश की। अकादमिक सुधार के लिए पदोन्नति के लिए प्रकाशनों की आवश्यकता की शुरुआत की। लेकिन इसके परिणामस्वरूप संदिग्ध गुणवत्ता वाली पत्रिकाओं की भरमार हो गई है।
भारत में प्रत्येक 11,528 लोगों पर एक सरकारी डॉक्टर और प्रत्येक 483 लोगों पर एक नर्स है, जो डब्ल्यूएचओ द्वारा अनुशंसित 1;1000 से काफी कम है। बैकडेटेड पाठ्यक्रम और शिक्षण शैली भी भारत में चिकित्सा क्षेत्र की उपलब्धियों में बाधक है; चिकित्सा क्षेत्र में हर दिन नियमित सफलताएं मिलती हैं, लेकिन भारत में चिकित्सा अध्ययन पाठ्यक्रम को तुरंत अपडेट नहीं किया जाता है। समयानुसार भारतीय मेडिकल छात्र प्रशिक्षण प्राप्त नहीं करते हैं जो उन्हें स्वास्थ्य चिकित्सकों के रूप में सामाजिक जवाबदेही प्रदान करता है।
1990 के दशक में कानून में बदलाव ने निजी स्कूल खोलना आसान बना दिया और देश में ऐसे कई मेडिकल संस्थान उभरे, जो व्यवसायियों और राजनेताओं द्वारा वित्त पोषित थे, जिन्हें मेडिकल स्कूल चलाने का कोई अनुभव नहीं था। इसने चिकित्सा शिक्षा का काफी हद तक व्यवसायीकरण कर दिया।
चिकित्सा शिक्षा में भ्रष्टाचार: चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में कपटपूर्ण व्यवहार और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार जैसे फर्जी डिग्री, रिश्वत और दान, प्रॉक्सी संकाय, आदि एक बड़ी समस्या है। फलस्वरूप भारतीय छात्रों  ने विदेशों की तरफ रुख किया. मगर वहां से डिग्री लिए छात्र भारतीय मेडिकल कौंसिल की परीक्षा में लगभग न के बराबर उत्तीर्ण होते हैं.
इसलिए ये अब जरुरी बन गया है कि वर्तमान मेडिकल स्कूल स्थापित करने और सीटों की सही संख्या के लिए अनुमति देने के लिए मौजूदा दिशानिर्देशों पर फिर से विचार करें। अभ्यास करने वाले चिकित्सकों को शिक्षण विशेषाधिकार देना और ई-लर्निंग टूल की अनुमति देना पूरे सिस्टम में गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों की कमी को दूर करेगा। साथ में, ये सुधार शिक्षण की गुणवत्ता से समझौता किए बिना मौजूदा चिकित्सा सीटों को दोगुना कर सकते हैं।
छात्रों को अपने बुनियादी प्रबंधन, संचार और नेतृत्व कौशल में सुधार करने की आवश्यकता है. डॉक्टरों के रूप में उनकी सामाजिक प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए उन्हें प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। कक्षाओं में विषयों का एकीकरण, नवीन शिक्षण विधियों और प्रौद्योगिकी के अधिक प्रचलित उपयोग की आवश्यकता है; कॉलेजों में चिकित्सा अनुसंधान और नैदानिक कौशल पर काम करने की जरूरत है।
निजी-सार्वजनिक भागीदारी मॉडल का उपयोग करके जिला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेजों में परिवर्तित करके सीटों के तेजी से पैमाने का प्रस्ताव रखकर नीति आयोग इसी दिशा में आगे बढे।नेशनल मेडिकल काउंसिल (एनएमसी) द्वारा कॉलेज फीस को विनियमित करने के हालिया प्रयासों का मेडिकल कॉलेजों द्वारा विरोध किया जा रहा है। सरकार को निजी क्षेत्र में भी चिकित्सा शिक्षा पर सब्सिडी देने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए, या वंचित छात्रों के लिए चिकित्सा शिक्षा के वित्तपोषण के वैकल्पिक तरीकों पर विचार करना चाहिए।
मेडिकल कॉलेजों का गुणवत्ता मूल्यांकन नियमित रूप से किया जाना चाहिए, और रिपोर्ट सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध होनी चाहिए। आज की चिकित्सा शिक्षा ऐसे पेशेवरों को तैयार करने में सक्षम होनी चाहिए जो 21वीं सदी की चिकित्सा का सामना करने के लिए तैयार हों।
– सत्यवान ‘सौरभ’

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