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*राष्ट्रभाषा और सुगम न्याय, एक साथ मिल सकते हैं*

*राष्ट्रभाषा और सुगम न्याय, एक साथ मिल सकते हैं*
देश के न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन में यह बात उभर कर आई कि आम आदमी को सहज, सरल व त्वरित न्याय कैसे मिले? देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने कहा कि “वक्त की दरकार है कि अदालतों में स्थानीय भाषाओं को लागू किया जाये, जिसके लिये एक कानूनी व्यवस्था की जरूरत है।“ यहीं से तो देश को एक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है, स्वर मिकलता है। यह भाषा क्या हो कौन से हो हम आज तक तय नहीं कर सकें हैं। यह काम जिनको करना था या है वे राजनीति में उलझे थे और हैं। देश के मुख्य न्यायाधीश के इस तर्क के साथ कि अदालती फैसले सालों-साल तक सरकारों द्वारा लागू न करना देश हित में नहीं है,के साथ ही देश की एक राष्ट्र भाषा पर भी विचार किया जाना ज़रूरी है ।
देश के संविधान में विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की जवाबदेही का निर्धारण किया गया है, इस लक्ष्मण रेखा का हमें उल्लंघन नहीं करना चाहिए,परंतु देश आगे बड़े यह सोचना कोई ग़लत बात नहीं है, अभी पूरे विश्व में “भारत की एक राष्ट्र भाषा नहीं है” कहकर देश को कमतर आंका जाता है। देश राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर आपस में उलझता रहता है। जिस विषय पर राजनेताओं को गम्भीरतासे बात करना चाहिए, अभिनेता बात करने लगते हैं, मूल बात आगे नहीं बढ़ती।
देश का संविधान आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं में हिंदी समेत हमारी राज्य भाषाएं भी हैं। ‘जो हिंदी नहीं बोलेगा, वह नागरिकता खो लेगा’ के आक्रामक कथन करने वालो को विचार करना चाहिए कि उनके स्वर में हिंदी की शीलता, अवधी का सुर, ब्रजभाषा का माधुर्य नहीं है । यह स्वर बिहारी के दोहों ,रसखान की शब्द-क्रीड़ा, महादेवी के विशाल हृदय , निराला के चिंतन, से कोसों दूर है। इसमें जवाहरलाल नेहरू का गुलाबी मन, लाल बहादुर शास्त्री के स्नेह के साथ,अटल जी की दरियादिली ग़ायब है।
यह सही है,हिंदी में जन-बल है, उसको सड़क पर न उतारें भारत में दक्षिण नाम की भी एक जगह है। यह हम हिंदीभाषियों को हमेशा याद रखना चाहिए। यदि कवि प्रदीप भूल जाते तो स्वर साम्रज्ञी लता मंगेशकर के गान में कोई गोरखा कोई मदरासी वाले” अमर शब्द उद्घृत नहीं होते । भाषा विवाद भारत के तन को भारत के मन से अलग करने की कोशिश है, इससे सबको बचना चाहिए। न्यायपालिका को तो इस विषय पर साफ़-साफ़ बात करना चाहिए।हर भारतीय को रवींद्रनाथ टैगोर की रचना “जन गण मन” को हमेशा याद रखना चाहिये ।
जहां तक बात दक्षिण से उठते स्वर की है।‘हिंदी-नीति’ की दक्षिण में एक छवि है- हिंदी का आरोपण हो रहा है। हिंदी-जगत यह कह सकता है कि आरोपण करने का उद्देश्य किसी का नहीं है। अगर नहीं है, तो फिर यह छवि क्यों? कैसे? उस छवि को कौन और कैसे दूर करे? जवाहरलाल नेहरू का और फिर लाल बहादुर शास्त्री का आश्वासन तब तमिल जगत को विश्वसनीय लगा था उसे दोहराए जाने की भी ज़रूरत है। तब आरोपण का भय जाता रहा था । अब हिंदी गौण रूप से दक्षिण में सहज, सरल और खुले रूप से बोली-सुनी जाने लगी है । कोई जोर नहीं, कोई जबर्दस्ती नहीं, कोई प्रतियोगिता नहीं। यह स्थिति बदलनी नहीं चाहिए, बल्कि उसको और बल मिलना चाहिए।यदि देश के न्यायालय की भाषा सुधरी तो राष्ट्र भाषा का सवाल हल हो सकता है।
भारत तो भाषाओं का सागर है; दक्षिण हिंदी सीखे, उत्तर दक्षिण भाषाएं सीखे। तमिल का कालजयी काव्य तिरुक्कुरल हिंदी में उपलब्ध है। कितने हिंदीभाषी हैं, जिन्होंने उसको पढ़ने और उसके ज्ञान से लाभ उठाने का प्रयत्न किया? क्या यह जानने का प्रयत्न किया है कि बसव के कन्नड़ उदघोष हिंदी में मिलेंगे या नहीं? क्या श्री नारायण गुरु के मलयाली कथन और त्यागराज के तेलुगू कीर्तन हिंदी में अनुदित हुए हैं? ये प्राथमिक काम है, जो अब तक पूरे देश में स्वीकार्य हो जाना थे।हिंदी-नीति हिंदी के विस्तार के लिए ही नहीं, हिंदी जगत की आतंरिक सीमाओं के विस्तार, उसकी संकीर्णताओं को दूर करने के लिए कटिबद्ध होनी चाहिए। भारत के हिंदीभाषी निश्चय ही बहुमत में हैं। हिंदी भारत की सर्वोच्च ‘लिंक’ भाषा बने,न्याय की सुगमता का सेतु बने यह एक स्वाभाविक भावना होनी चाहिए है। राष्ट्र प्रेम में हिंदी का योगदान निश्चित रूप से बड़ा है, न्यायपालिका चाहे तो स्वयं इसे और विस्तार दे सकती है । इसके लिए नेता और अभिनेता के स्वाँग की ज़रूरत नहीं है, राष्ट्रभाषा और देशहित का सवाल है ।

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