Shadow

जिंदगी मै रंग भरती बिटिया, चूल्हे-चौके से सिविल सेवा के शीर्ष तक

जिंदगी मै रंग भरती बिटिया, चूल्हे-चौके से सिविल सेवा के शीर्ष तक
सिविल सेवा परीक्षा के नतीजों में इस बार देश की बेटियों ने जैसी धूम मचाई है, वह न सिर्फ उनके परिवारजनों बल्कि संपूर्ण भारतीय समाज के लिए गर्व करने का विषय है.
-प्रियंका ‘सौरभ’
______________________________ __
श्रुति शर्मा, अंकिता अग्रवाल तथा गामिनी सिंगला संघ लोक सेवा द्वारा घोषित सिविल सेवा परीक्षा 2021 में क्रमश: प्रथम, द्वितीय और तृतीय रैंक प्राप्त किया है। लड़कियों ने आज हर क्षेत्र में डंका बजा रखा है। पढ़ाई से लेकर नौकरी और व्यवसाय से लेकर अंतरिक्ष में छलांग लगाने के मामले में लड़कियों ने अपनी प्रतिभा से सबको परिचित करा दिया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिला बिजनौर की रहने वाली श्रुति शर्मा ने यूपीएससी 2021 प्रथम रैंक प्राप्त की है। यह उत्तर प्रदेश और विशेषकर जिला बिजनौर के लिए बेहद गर्व की बात है। जिस क्षेत्र को कृषि प्रधान क्षेत्र कहा जाता है और जहां पर शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ापन और जागरूकता का अभाव एक लंबे समय तक बना रहा;  वहां पर एक स्त्री होने के नाते चुनौतियां और बढ़ जाती हैं। विवाह की जल्दी, बाहर पढ़ने जाने का संघर्ष‌, अच्छी संस्थाओं (केंद्रीय विश्वविद्यालय) का अभाव, मार्गदर्शन की कमी आदि बहुत कुछ झेलना पड़ता है, लड़ना पड़ता है।  लेकिन ऐसे क्षेत्र से आने वाली कोई लड़की अगर यूपीएससी टॉप करती है तो यह भविष्य के लिए बहुत अच्छा संकेत है। इस बार टॉप १० में प्रथम तीन स्थान पर नारी शक्ति का बोलबाला रहा। यह भी समाज में स्त्री शिक्षा के बदलते स्वरूप को दिखाता है।

महिलाएं आने वाले समय में हजारों नवयुवतियों के लिए प्रेरणा की स्रोत बनेंगी। भारत जैसे परंपरागत समाज में भी अपनी प्रतिभा और लगन की बदौलत स्त्रियां अनछुई ऊंचाइयों तक पहुंच सकती हैं, उनकी वजह से यह आत्मविश्वास नई पीढ़ी की महिलाओं में पैदा होगा।  सिविल सेवा परीक्षा में लड़कियां टॉप करती है तो  जमीनी हकीकत भी सामने आती है। देश में 52 फीसदी लड़कियां स्कूल शिक्षा के स्तर पर ही पढ़ाई छोड़ देती हैं। क्यों हैं ऐसे हालात और क्या है इससे आगे निकलने का रास्ता? अगर ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे  हमारे देश में जब लड़कियां बड़ी हो रही होती हैं तो उनमें से ज्यादातर को उतने मौके नहीं मिलते शिक्षा और दूसरे क्षेत्रों में आगे बढऩे के, जितने की लड़कों को मिलते हैं। हमारा समाज घर और बाहर, अभिभावक और शिक्षक उनसे अपेक्षा ही नहीं करते कि वे घर के कामों के अलावा दूसरे काम भी अच्छी तरह से करें। वास्तव में उनके ऊपर सामाजिक-आर्थिक और भावनात्मक रूप से उतना निवेश नहीं किया जाता जितना कि लड़कों पर किया जाता है। परिणामस्वरूप लड़कियोंं में आगे बढऩे का आत्मविश्वास, बंधनों से जूझने की हिम्मत ही विकसित नहीं होती। यह सभी के बारे में सच है कि अगर किसी बच्चे से अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद की जाती है तो फिर उसकी आत्मछवि में और सुधार आता है। लेकिन लड़कियों के साथ तो प्राय: उल्टा होता है। स्कूलों में या घर में उनके काम की सराहना कम होती है, उन्हें शाबासी कम मिलती है। जिससे उसकी अस्मिता सिमट कर रह जाती है और इसका उसके प्रदर्शन पर नकारत्मक असर होता है। बेटियों की शिक्षा और फिर उच्च शिक्षा से कब और क्यों वंचित कर दिया जाएगा, इस संशय से वे हमेशा भयग्रस्त रहती हैं। देश की करीब 52.2 प्रतिशत बेटियां बीच में ही अपनी स्कूली पढ़ाई छोड़ रही हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति को करीब 68 प्रतिशत लड़कियां स्कूल में दाखिला तो लेती हैं, लेकिन पढ़ाई पूरी करने से पहले ही स्कूल छोड़ देती हैं।

हमारे देश में लड़कियों या महिलाओं के जीवन के कई मोड़ों पर उन के ऊपर यह दबाव आता है जब उनसे घरेलू जिम्मेदारियों तक सिमट जाने की अपेक्षा की जाती है। पहला मोड़ तब आता है जब उनकी  इंटर तक की पढ़ाई पूरी हो जाती है। जो लड़कियां इस दबाव से बच पाती हैं वे सुनहरे भविष्य के लिए  आगे निकल जाती हैं, पर जो इस बाधा-दौड़ से आगे नहीं निकल पातीं, वे बेचारी हाईस्कूल या इंटर तक पहुंच ही नहीं पातीं। कोई लड़की इस अनचाही बाधा-दौड़ को लांघ पाएगी या नहीं, यह लड़की पर बहुत ही कम निर्भर करता है। यह तो सीधा परिवार की आर्थिक और सामाजिक हैसियत और आसपास के क्षेत्र में स्कूल की मौजूदगी और कानून व्यवस्था की बेहतर स्थिति पर निर्भर करता है। देशे में हम  जिन बच्चियों को हम इंटर और हाईस्कूल आदि में टॉप करते और लड़कों से बेहतर प्रदर्शन करते देखते हैं, उनमें से अधिकांश संपन्न तबके से होती हैं। गरीब परिवारों से लड़कियां प्राय: इस मोड़ से आगे नहीं बढ़ पातीं। गरीब परिवारों से लड़के तो  भी आगे बढऩे में सफल हो जाते हैं, पर लड़कियों का आगे बढऩा काफी मुश्किल होता है।  एक बार लड़की बाधा-दौड़ को पार कर जाये तो उसे यह अहसास होता है कि यह मौका बहुत संघर्ष से मिला है, गंवाना नहीं है, तो वह पूरे समर्पण और मेहनत से काम को अंजाम देती हुई लड़कों की तुलना में बेहतर सफलता अर्जित करती है।

मेरे देश की बेटियां क्यों स्कूल छोड़ देती हैं। इस विषय पर बिहार और उत्तर प्रदेश में किए गए एक शोधपत्र में तथ्य सामने आए हैं कि बीच में पढ़ाई छोड़ चुकी हर पांच लड़कियों में से एक का मानना है कि उनके माता-पिता ही उनकी पढ़ाई में बाधक हैं। समाज में असुरक्षित माहौल एवं विभिन्न कुरीतियों के कारण आठवीं या उससे बड़ी कक्षा की पढ़ाई के लिए उनके परिवार वाले मना करते हैं। करीब 35 प्रतिशत लड़कियों का मानना है कि कम उम्र में शादी होने के कारण बीच में ही पढ़ाई छोडऩी पड़ती है। यह अध्ययन स्पष्ट इंगित करता है कि बेटियों की शिक्षा के मध्य अवरोध उनके परिवार के सदस्यों द्वारा ही खड़ा किया जाता है। हमारी बेटियां क्यों हतोत्साहित हैं? ऐसा क्या है, जो वह स्वयं को इन क्षेत्रों से दूर कर लेती है जहां समय और श्रम अधिक अपेक्षित हैं। शोध तो ऐसा बताते है कि 5 प्रतिशत लड़कियां ही विज्ञान, तकनीक, गणित और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अपना कॅरियर नहीं बनाना चाहती। गणित और विज्ञान जैसे विषयों में लड़कियों का प्रदर्शन लड़कों से कमतर नहीं रहा।

व्यक्ति हो या देश, उसकी सफलता इसमें मानी जाती है कि उसमें निहित संभावनाएं उभर कर आएं और इन संभावनाओं का भरपूर उपयोग हो। यदि कार्यबल में महिलाओं के लिए नए द्वार खुलते हैं तो इससे तमाम महिलाओं में निहित संभावनाओं को फलीभूत करने का मार्ग प्रशस्त होगा और हम अपने राष्ट्र की आबादी में मौजूद संभावनाओं का लाभ उठा सकेंगे। इसके लिए सरकार और निजी क्षेत्र दोनों को नए सिरे से आगे आना होगा।  लड़कियों की यह कामयाबी सरकार के ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान को भी यकीनन बल देगी। इससे समाज में कमजोर पड़ रही वह सोच और भी बेदम होगी कि लड़कियां सिर्फ चूल्हे-चौके का काम करने के लिए होती है। इससे तमाम मां-बाप तक संदेश पहुंचेगा कि लड़कियां किसी भी मामले में कमतर नहीं है। अभिभावकों की बदलती सोच, सरकारी समर्थन के साथ-साथ खुद लड़कियों के तेवर भी जिस तरह बदल रहे हैं, उम्मीद की जानी चाहिए कि उनकी सफलता का सिलसिला भविष्य में और अधिक व्यापक रूप से जारी रहेगा।

—  —-प्रियंका सौरभ 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *