ये देश है, सड़क दुर्घटनाओं का*
वैसे तो यह एक विकास और स्वास्थ्य संबंधी विषय है, पर डेढ़ लाख मौतों के बाद भी भारत में अभी भी इसे महज कानून-व्यवस्था का मामला माना जाता है | इस विषय पर आई अधिकारिक जानकारी भी चौकानें वाली है |राष्ट्रीय अपराध आंकड़ा ब्यूरो (एनसीआरबी) से आई जानकारी के अनुसार वर्ष २०२१ में लगभग १ लाख ५५ व्यक्तियों की मौत सड़क दुर्घटनाओं में हुई है। सडक दुर्घटनाओ में घायलों की संख्या अधिक यानी लाख ७१ हजार रही, भारत में कुल सड़क दुर्घटनाओं की गिनती ४ लाख से ऊपर है।हर वर्ष राष्ट्रीय अपराध आंकड़ा ब्यूरो द्वारा जारी रिपोर्ट का जिक्र बस एक खबर की तरह ली जाती है इसके बाद शेष पूरे वर्ष इस पर नाममात्र या किसी प्रकार की सार्वजनिक चर्चा नहीं होती। जबकि सरकार भरपूर कर वसूल करती है |
ब्यूरो की इस रिपोर्ट में राज्य-वार आंकड़े और विस्तृत जानकारी में दुर्घटनाओं में शामिल वाहनों की किस्में भी बताई हैं। यही सही समय है जब हम सड़क सुरक्षा को महज कानून-व्यवस्था का मामला समझना बंद करें। वास्तव में यह एक विकास और स्वास्थ्य संबंधी विषय है।
संयुक्त राष्ट्र आमसभा ने पिछले साल मौजूदा दशक को ‘वैश्विक सड़क सुरक्षा दशक’ मनाने की घोषणा की थी , वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हादसों में मौतों की भारी संख्या और अपंगता के मद्देनजर सड़क सुरक्षा को ‘मुख्य स्वास्थ्य चिंता’ वर्ग में रखा है। किसी भी अन्य स्वास्थ्य समस्या की तरह, इस व्याधि के जोखिम अवयवों की शिनाख्त और निदान करके निपटा जा सकता है। इनमें, खराब इंजीनियरिंग से बनी सड़कें, घटिया रखरखाव और परिचालन स्थितियां, नियम लागू करवाने में उदासीनता जिसमें लेन-ड्राइविंग, गति-सीमा, नशा करके वाहन चलाना, सीट-बेल्ट और हेलमेट का अनिवार्य उपयोग इत्यादि के साथ ही समय रहते जीवनरक्षक आपातकालीन उपचार मिलना भी शामिल है।
भारत में पिछले कुछ दशकों में सड़क जाल में बहुत विस्तार हुआ है| जिसके हाई वे,एक्सप्रेस-वे इत्यादि साथ ही अंतरनगरीय मार्गतंत्र जैसे कि पुल, फ्लाईओवर, सर्विस लेन वगैरह तो बहुत बने हैं, लेकिन सड़क सुरक्षा उपायों की रफ्तार मार्ग-विस्तार प् ध्यान नहीं दिया गया | वाहन चालन का समुचित प्रबंधन और परिक्षण में कोताही भी इस सब से कदमताल नहीं कर पाई।जैसे , आवागमन समय में कटौती करने हेतु कारों-ट्रकों की आवाजाही तेज बनाने को, कई जगहों पर मुख्य मार्ग में विलय होने वाली सड़कों की संख्या सीमित करते हुए एक्सप्रेस-वे बनाए गए हैं। हालांकि इन पर रफ्तार की ऊपरी सीमा तय है लेकिन वाहन चालक निर्धारित गति से कहीं अधिक तेज वाहन चलाते हैं, जिससे दुर्घटना का अवसर ज्यादा बनता है। रिपोर्ट बताती है कि भारत में एक्सप्रेस-वे दुर्घटना दर शेष राष्ट्रीय और राज्य मार्ग औसत से अधिक है। नोएडा और आगरा को जोड़ने वाला १५५ कि.मी. लंबा यमुना एक्सप्रेस-वे एक बड़ा उदाहरण है।
पुलिस की अपनी कहानी है , पुलिस के अनुसार इन तेज गति मार्गों पर विविध कारणों से दुर्घटनाओं में अधिक मौतें हुई हैं। मसलन, चालक की ऊंघ, गति सीमा उल्लंघन और उच्च मार्ग पर अनधिकृत पार्किंग आदि । गांवों के नजदीक यथेष्ट संख्या में पैदल पार-पुल या अंडरपास न होने की वजह से लोग जोखिम उठाकर सड़क पार करते हैं। आवारा पशु भी खतरा बढ़ाते हैं, कहीं –कहीं तो ले-बाइलेन नदारद हैं।
इसके बावजूद प्रशासन को सड़क सुरक्षा सर्वेक्षण-विश्लेषण करवाना गवारा नहीं है , जिससे सुधारात्मक उपाय हो सकें। यमुना एक्सप्रेस-वे की तर्ज पर मुंबई-पुणे, मुंबई-अहमदाबाद और चेन्नई-बंगलुरू हाई वे की भी ऐसी समीक्षाएं निरंतर होना और इनमे जरूरी सुधार आवश्यक हैं |
भारत में शहरी सड़क तंत्र जैसे कि फ्लाईओवर और क्लोवर लीव्स का डिजाइन केवल इंजनचालित वाहनों को ध्यान में रखकर बनाया जाता है। इनमें पथिक, साइकिल सवार और गैर-यांत्रिक परिवहन की कोई परवाह नहीं की जाती । सार्वजनिक परिवहन बस का भी ध्यान नहीं रखा जाता। अक्सर बस स्टॉप के बारे में यात्रियों के लिए जानकारी उपलब्ध नहीं है |नागरिकों को जोखिम उठाकर बस में सवार होना पड़ता है। स्काईवॉक और पैदल-पार पुल का निर्माण करने की याद बहुत बाद में आती है। इसके अलावा, जहां कहीं यह बने हैं, वहां डिज़ाइन खामियां या लोकेशन संबंधित मुश्किलों की वजह से उपयोग बहुत कम है। नगर प्रशासन और निकाय इनकी वास्तविक उपयोगिता और रखरखाव के पहलू पर ध्यान देने की बजाय बाहरी साज-सज्जा को ज्यादा तरजीह देते हैं।
भारत में आज भी साइकिल सवार बहुत संख्या में हैं, परंतु भारतीय शहरों में पृथक से साइकिल ट्रैक नगण्य हैं। जहां कहीं हैं भी, तो लेन मुख्य सड़क से पृथक नहीं है, नतीजतन इंजनचालित वाहन अक्सर अतिक्रमण करते हैं। भारत के शहरों में अलग साइकिल ट्रैक की जरूरत केवल मौजमस्ती की साइकिलिंग के लिए नहीं बल्कि रोजाना उपयोग के लिए है। स्थानीय निकाय गैर-जरूरी सौंदर्यीकरण, जैसे कि फ्लाईओवर के नीचे सेल्फी प्वाइंट्स और मार्गों के किनारे विविध सजावटी रेलिंग-फर्नीचर या फव्वारे इत्यादि पर अच्छा-खासा धन खर्च करते हैं, इसकी बजाय, पैदल और साइकिल सवार मित्र ट्रैक बनाकर, सुरक्षा जरुर करनी चाहिए।
देश व राज्य की सरकारों ने सुरक्षा के नाम पर केवल जुबानी काम किया है। सड़क सुरक्षा सप्ताह हमेशा की तरह सतही बातों से शुरू होकर खत्म हो जाता है। आज सड़क सुरक्षा सुनिश्चित करने को सुझाए गए प्रावधान प्रभावी रूप से लागू करवाने के लिए बोर्ड का स्वतंत्र और शक्ति-संपन्न होना जरूरी है, वह जो वाहन, सड़क और लोगों के लिए सुरक्षा मानक विकसित करने और क्रियान्वन करवाने की क्षमता रखता हो।