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महर्षि वाल्मीकि जयंती पर लिखा एक लेख सहृदय पाठकों के अवलोकनार्थ :– इंदुशेखर

महर्षि वाल्मीकि जयंती पर लिखा एक लेख सहृदय पाठकों के अवलोकनार्थ :–  इंदुशेखर
–––––––––––––––विश्व के प्रथम कवि वाल्मीकि का लोकधर्म
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महर्षि वाल्मीकि इस संसार के प्रथम कवि हैं, जिन्होंने पहला श्लोक रचकर लोक में कविता का सूत्रपात किया। तमसा नदी के तट पर जब ये संध्या–वन्दन कर रहे थे तो एक बहेलिए ने परस्पर क्रीड़ारत क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर क्रौंच का वध कर दिया। क्रौंची के चीत्कार से पूरा जंगल गूँज उठा। धरती पर पड़े रक्त से लथपथ क्रौंच और विलाप करती हुई क्रौंची को देखकर ऋषि का मन करुणा से भीग गया। वे विचलित हो गए और उस दुष्ट बहेलिए को शाप दे डाला। भावावेश में ऋषि के मुख से अनायास श्लोक फूट पड़ा–
“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।”
(रामायण, बालकाण्ड २/१५)
अर्थात् ओ, निषाद! तुमको अनंतकाल तक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो। तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला।…
यही है संसार की पहली पद्य रचना जो आगे चलकर आदिकाव्य रामायण की भूमिका बनी। ब्रह्माजी की प्रेरणा और देवर्षि नारद के प्रबोधन से उन्होंने एक महान् ग्रंथ की रचना कर दी। विस्मय की बात है कि हजारों वर्ष पूर्व लिखा गया महाकाव्य होने के बावजूद “रामायण” आज भी विश्व का सबसे बडा महाकाव्य ठहरता है। और इससे भी बडी बात यह है कि संसार का प्रथम प्रयोग होते हुए भी यह सर्जनात्मकता की दृष्टि से बेजोड है। बृहद्धर्म पुराण में रामायण को समस्त काव्यों का बीज- ‘‘काव्यबीजं सनातनम्’’ कहा है। महाभारत, पुराण, धर्म-इतिहास-काव्यादि सभी प्राचीन ग्रन्थों के मूल में कहीं न कहीं यह आदिकाव्य रहा है।

भारतीय वाङ्मय परम्परा में यह पहला काव्य प्रबन्ध है जिसके नायक मनुष्य हैं। इससे पूर्व के वैदिक वाङ्मय के केन्द्र में मानवेतर अलौकिक सत्ताएं हैं, देवों, दानवों की, प्रकृति–परमात्मा की लोकोत्तर शक्तियां हैं। किंतु वाल्मीकि का नायक पूर्णतः लौकिक मनुष्य है। कौशल्या के गर्भ से उत्पन्न, दशरथ का पुत्र राम, जो शील, शक्ति और मर्यादा का आदर्श प्रतिमान है, जो अपने स्वयं के पराक्रम के बल पर महान उपलब्धियां अर्जित करता है, जीवन में सत्य और धर्म की प्रतिष्ठापना करता है। राम के ऐसे परम दिव्य और अलौकिक गुणों को देखकर सत्यदृष्टा ऋषियों ने इनमें ईश्वरीय अवतार के दर्शन किये, तथापि अपनी दैहिक उपस्थिति में राम मानवी रुप में रहे और पुरुषोत्तम कहलाए। रामायण मनुष्य के पुरुषार्थ और जीवनमूल्यों का पहला ग्रंथ बन गया।

वाल्मीकि रामायण की अत्यंत महत्वपूर्ण विशेषता है, इसका सर्वस्पर्शी सामाजिक सरोकार। इसके आरंभ में ही वाल्मीकि इस ग्रन्थ की फलश्रुति में लिखते हैं-
“पठन् द्विजो वागृषभत्वमीयात्,
स्यात्क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात्।
वणिग्जनः पण्यफलत्वमीयात्,
जनश्च शूद्रोऽपि महत्वमीयात्।।”
(बालकाण्ड , १/१००)
अर्थात् इस ग्रन्थ को ब्राह्मण पढे तो विद्वान् होवे, क्षत्रिय पढे तो राज्य प्राप्त करे, वैश्य पढे तो व्यापार में लाभ होवे और शूद्र भी पढे तो प्रतिष्ठा को प्राप्त होवे। बहुधा ऐसा उल्लेख किया जाता है कि प्राचीन वाङ्मय में शूद्रों को अध्ययन-अध्यापन से वंचित रखा गया। महामुनि वाल्मीकि की यह घोषणा इस मिथ्या और भ्रामक धारणा को ध्वस्त करती है। वे न केवल शूद्र को यह ग्रन्थ पढने का अधिकार देते हैं, पढ़ने से उनका महत्व बढेगा, यह भी कामना करते हैं।

रामायण का मूल उद्देश्य एक आदर्श मानव का चरित्र प्रस्तुत करना है। अतः इस कथा का प्रारम्भ श्रेष्ठतम मनुष्य की खोज से होता है। तपस्वी वाल्मीकि, मुनिवर नारद से पूछते हैं कि इस समय संसार में गुणवान, वीर्यवान, धर्मज्ञ, सत्यवादी, चरित्रवान, आत्मजयी, प्राणिमात्र का हितैषी और जिसके कोप से देवता भी डरते हैं, ऐसा मनुष्य कौन है? ध्यातव्य है कि वाल्मीकि यहां जीते-जागते वर्तमान की बात करते हैं, किसी पुराकथा में छलांग नहीं लगाते। वे कहते है,– ‘‘कोऽन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके…’’
अर्थात् लोक में अभी वर्तमान समय में ऐसा कौन है?
यह विश्व में मानववाद के विचार का पहला बीज पडने की घटना है, जब वाल्मीकि अपनी रामकथा की भूमिका और आधार सुनिश्चित करते हैं। उनकी जिज्ञासा न तो किसी देव, गंधर्व, सुर, असुर के बारे में हैं, न वे किसी अतीत की कथा में रमना चाहते हैं। उनका उद्देश्य अलौकिक चमत्कारों के बल पर कार्यसिद्धि प्राप्त करने की कथा लिखना भी नहीं है। वे तो जीवनमूल्यों से परिपूर्ण ऐसे संवेदनशील मनुष्य का चित्रण करना चाहते हैं जो अपने संकल्प और सामर्थ्य के भरोसे कार्यसिद्धि प्राप्त करता है और धर्म की रक्षा करता है। यह भारतीय मानववादी दृष्टि है, –एक आदर्श मानव की खोज का विचार-, जो किसी प्रतिक्रिया या प्रतिशोध से उत्पन्न नही हुआ जैसा कि हम आधुनिक मानववाद के पश्चिमी इतिहास में पाते हैं। यह निरंतर साधनारत एक महामुनि और एक तपस्वी के लोकोपकारी संवाद से निपजा हुआ विमर्श है।

प्राचीन वाङ्मय के अनुसार वाल्मीकि के पिता वरुण थे, जो महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र थे। इनकी माता का नाम चर्षणी था और यह भृगु ऋषि के भाई थे। वरुण का नाम प्रचेत होने के कारण वाल्मीकि को प्राचेतस् भी कहा जाता है। इनका आश्रम तमसा नदी के तट पर था। वाल्मीकि के पूर्व में रत्नाकर डाकू होने की कथा भी लोकप्रसिद्ध है। यह जीवनवृत्त मानव के उत्थान–पतन का ज्वलंत उदाहरण है, कि कुसंगति कैसे जीवन को पतित कर कलंकित कर देती है और सत्संगति कैसे जीवन को उन्नति की ओर ले जाकर उज्ज्वल बना देती है। कैसे वह एक खलनायक से महानायक में रूपांतरित हो गए, पुराणों में इसका उल्लेख मिलता है।

“अध्यात्मरामायण” में प्रसंग आता है कि राम अपने वनवास काल में जब वाल्मीकि के आश्रम में जाते हैं तो वाल्मीकि अपने बारे में बताते हैं कि, “हे राम! मैं पूर्वकाल में किरातों के साथ रहता था। द्विज तो में जन्ममात्र का था किंतु सदैव शूद्रों जैसे आचरण में रत रहता था। मुझ स्वेच्छाचारी के किराती‌ के गर्भ से बहुत सारे पुत्र उत्पन्न हुए। उनके पालन–पोषण के लिए, चोरों के साथ रहते हुए मैं भी चोर हो गया था।
“अहं पुरा किरातेषु किरातै: सह वर्धित:।
जन्ममात्रद्विजत्वं मे शूद्राचाररत: सदा।।
शूद्रायां बहव: पुत्रा उत्पन्ना मेऽनियतात्मन:।
ततश्चोरैश्च संगम्य चौरोऽहमभवं पुरा।।
(अध्यात्म रा., अयोध्या कांड, ६/६५,६६)
आगे की कथा प्रसिद्ध ही है कि लूटपाट कर अपने परिवार का भरण पोषण करने वाले इस किरात की भेंट देवर्षि नारद से हुई। अध्यात्म रामायण में यह भेट सप्तर्षियों से होती है। जब यह उनको लूटने को उद्यत हुआ तो उन्होंने पूछा कि तुम जो यह प्रतिदिन पाप इकट्ठा कर रहे हो इसका भागी तुम अकेले ही हो या तुम्हारे परिवार के लोग भी हैं? यह दस्यु अपने परिवार जनों से पूछने जाता है और जब वे कहते हैं कि वे कोई भी इनके पापकर्म के भागी नहीं हैं तो इस दस्यु की आंखें खुल जाती है। श्रीराम को आत्मकथा सुनाते हुए वाल्मीकि कहते हैं कि मुनियों के दर्शन से मेरा अंतःकरण शुद्ध हो गया और मैंने तभी से धनुषबाण त्याग दिए। मुनियों की प्रेरणा से ही मैं तपस्या में रत हुआ। तथा आपका उल्टा नाम मरा–मरा जपते हुए तपस्या में इतना डूब गया कि मेरे ऊपर दीमक की वल्मीक (ढूह–मिट्टी का ढेर) जमा हो गया। कालांतर में उन्हीं ऋषियों की प्रेरणा से मैं, जैसे कोहरे को चीरकर सूर्य निकलता है उसी तरह, वल्मीक से बाहर निकल आया। उन ऋषियों ने तभी मुझे वाल्मीकि नाम दिया‌ और कहा कि यह एक प्रकार से तुम्हारा दूसरा जन्म होगा।
“वाल्मीकान्निर्गतश्चाहं नीहारादिव भास्कर:।
मामप्याहुर्मुनिगणा वाल्मीकिस्त्वं मुनिवर:।।
वाल्मीकात्संभवो यस्माद्वितीयं जन्म तेऽभवत्।।”
(अध्यात्म रा., अयोध्या कांड, ६/६५,६६)
हम देखते हैं कि ऋषियों की प्रेरणा से किस तरह एक निकृष्ट कर्म करने वाला वाले निंदित व्यक्तित्व का रूपांतरण एक महामानव में हो जाता है। एक दस्यु एक महाकवि बन जाता है।

महाकवि वाल्मीकि की दृष्टि कितनी गहरी और संवेदनापूर्ण है, उनका जीवनबोध कितना दृष्टिसम्पन्न और उदात्त है, एक उदाहरण देखने योग्य है। यह अद्भुत प्रसंग अशोक वाटिका का है जहां सीताजी को देखकर हनुमान सोचते हैं कि, ‘ओह ! यही वह सीता है जिसके कारण राम करुणा, दया, शोक और प्रेम– इन चार कारणों से संतप्त रहते हैं।’’ वाल्मीकि राम के हृदय में चार प्रकार के भावों की उद्भावना करते हैं। “एक, वे सीता के प्रति करुणा से भरे हुए हैं। दूसरा, उन्हें सीता पर दया आती है। तीसरा, सीता के लिए वे शोक में डूबे रहते हैं और चौथा, सीता से मिलने की कामना में दिन रात तपते रहते हैं।” मानवीय चित्त का ऐसा सूक्ष्म और विलक्षण अनुभव साहित्य में दुर्लभ है। राम के इन चारों मनोभावों का कारण वाल्मीकि बताते हैं कि, ‘‘एक स्त्री खो गई, यह सोचकर उनके हृदय में करुणा भर आती है। वह हमारे आश्रित थी, यह सोचकर वे दया से द्रवित हो उठते हैं। मेरी पत्नी मुझसे बिछुड गई, यह विचार उन्हें शोकाकुल कर देता है और मेरी प्रियतमा मुझसे दूर हो गई, यह भावना उनके हृदय में प्रेम की वेदना जगा देती है।’’-
‘‘इयं सा यत्कृते रामश्चतुर्भिरिह तप्यते।
कारुण्येनानृशंस्येन शोकेन मदनेन च ।।
स्त्री प्रणष्टेति कारुण्यादाश्रितेत्यानृशंस्यतः।
पत्नी नष्टेति शोकेन प्रियेति मदनेन च ।।’’
(सुंदरकाण्ड, सर्ग-१५/४९,५०)
ध्यान से देखेंगे तो हमे यहां एक कवि के रूप में एक अत्यंत कुशल मनोवैज्ञानिक दिखाई देगा जो राम के बहाने एक आदर्श मनुष्य का चरित्र गढता है और जीवन मूल्यों की रचना करता है। राम के संताप के इन चार कारणों का विश्लेषण करते हुए वे कहते हैं कि, राम की इस करुणा का कारण उसका “स्त्री” होना है। यदि वह कोई पुरुष होता, लक्ष्मण या भरत भी होता तो इतनी गहरी करुणा नहीं फूटती। करुणा के साथ उसके प्रति “दया” भी है। दया क्यों उमड़ती है? क्योंकि वह स्त्री हमारे अधीन थी। यदि हमारे अधीन नहीं होती तो, वह स्वाधीन होती, तो केवल करुणा ही होती। पर अब दया भी जुड़ गई है। एक महत्वपूर्ण संकेत यहाँ यह भी है कि यदि कोई किसी के भरोसे रहता है तो उसे सहारा देने वाला एक उत्तरदायित्व से जुड़ जाता है। अधीन के प्रति दया का यह भाव किस तरह पात्र पर निर्भर होता है यह हम सर्वत्र महसूस करते हैं। एक ही तरह का संकट यदि एक शिशु और एक युवा के सामने आ जाए तो हमारी दया इस पर आधारित है कि कौन हम पर कितना निर्भर है। यह मानवीय संवदेना ही है कि जो जितना हमारे भरोसे रहता है हम उसके प्रति उतने ही दयार्द्र हो उठते हैं।
आगे वे कहते हैं कि करुणा और दया के साथ वे शोक में भी डूबे रहते हैं। वह स्त्री उनकी “पत्नी” है, अतः वे शोकमग्न भी रहते हैं। शोक व्यक्तिगत संबंधों से जुडा़ हुआ भाव है। यह हमारे दैनन्दिन का अनुभव है कि अपरिचित सैकड़ों लोगों की मृत्यु की खबर भी हमें उतना विचलित नहीं कर पाती जितना किसी एक परिचित की मृत्यु कर जाती है। संबंध जितने व्यक्तिगत होते हैं शोक भी उतना ही घनीभूत होता है। करुणा जहां व्यक्ति-निरपेक्ष होती है वहीं शोक व्यक्ति-सापेक्ष होता है। मानवीय व्यवहार में करुणा, दया और शोक के भावों ऐसा मार्मिक पर्यवेक्षण कोई महाकवि ही कर सकता है।
और अंतिम बात, कि वह स्त्री जो उनकी पत्नी है वह उनकी “प्राणप्यारी” भी है। वे उसकी स्मृति में प्रेमाग्नि में जलते हैं, विरह में तडपते हैं। राम के जीवन के इस निजी पक्ष को भी ध्यान में रखते हुए उनके मर्यादास्वरूप के साथ उनके पुरुषभाव को भी वाल्मीकि नहीं भूलते हैं। राम के संताप में घुले-मिले ये चारों भाव मानवीय संवेदना की पराकाष्ठा है।
वाल्मीकि रामायण में ऐसे अनेक अद्भुत प्रसंग हैं जो पाठक को रोमांचित कर जाते हैं।

इधर, इन दिनों वाल्मिकी की रामकथा के जिस तरह मनमाने कु-पाठ और आत्मघाती विमर्श प्रस्तुत किए जा रहे हैं वह इतने घटिया और विघटनकारी है कि वे इन पाठकर्ताओं की कुत्सित मानसिकता को ही प्रकट करते हैं। आदिकवि से लेकर वेदव्यास, कालिदास, कबीर, तुलसी, रैदास, सूरदास, जायसी, मीरा, रहीम, धन्ना, पीपा, दादू जैसे संत कवियों ने रामकथा का जो अमृत बरसाया, उस सब पर तेजाब उडेला जा रहा है। बर्बर अत्याचारियों, दुराचारियों को नायकत्व का चोला चढाया जा रहा है। शताब्दियों से अन्याय, अत्याचार और पाप के प्रतीक रावण, महिसासुर आदि में कुछ लोग अपना नायक तलाशने लगे हैं। इनको वनवासियों-जनजातियों का प्रतिनिधि सिद्ध किया जा रहा है। घोर आश्चर्य और उससे भी अधिक क्षोभ की बात है कि उन लोगों को इन जनजातियों, वनवासियों, पर्वतवासियों के ही बीच के निषाद, शबरी, जटायु, सुग्रीव, जामवन्त जैसे पात्र कभी आकर्षक और प्रेरक नही लगते। इनका मन शूर्पणखा, खर-दूषण, मेघनाद, कुम्भकर्ण, महिसासुर जैसे रक्त-पिपासुओं, हत्यारों की नेतृत्व कल्पना में अधिक रमता है। जो पात्र सदियों से सामाजिक समरसता और नैतिक मूल्यों की प्रेरणा देते हैं उनका तिरस्कार कर सामाजिक दुराचार को बढावा देने वाले पात्रों के प्रति मोह, उन समाजद्रोही बुद्धिजीवियों की असली मानसिकता को प्रकट करता है। इस विचारमूढों को यह भी नही दिखाई पड़ता कि यह धर्म-अधर्म, नीति-अनीति, न्याय-अन्याय का एक मूल्यपरक संघर्ष था जिसमें एक और राज्यहीन, सेनाविहीन, संसाधनविहीन, जंगल-जंगल भटकता संघर्षशील किन्तु मर्यादावान् पुरुष था, जिसकी पत्नी का भी अपहरण कर लिया गया, तो दूसरी ओर लाखों सैनिकों, सत्ता-संसाधनों से लैस, सोने की लंका का मालिक था, जिसके अन्तःपुर में देश-विदेश से छल-बलपूर्वक हरण करके लाई गई सैकड़ों स्त्रियां कैद थी।

वस्तुतः जिस आर्य आक्रमण सिद्धान्त को अनेक इतिहासकार और पुरातत्वविद् दशकों पूर्व मनगढंत, दुराग्रहपूर्ण और मिथ्या सिद्ध कर चुके हैं, उसी को आधार बना कर यह छल–प्रपंच रचा जा रहा है। यदि राम-रावण युद्ध के पीछे आर्य-द्रविण सिद्धान्त था तो रावण के बाप–दादा, महर्षि पुलस्त्य और विश्रवा कौन थे? आर्य थे या द्रविण थे? दक्षिण देशवासी राम के सहयोगी बाली-सुग्रीव-हनुमान कौन थे? और तो और अभी हजार वर्ष पूर्व द्रविण देश में उत्पन्न हुए शंकराचार्य जो आर्यधर्म के स्तंभ कहे जाते हैं, जो “आनन्दलहरी” में स्वयं को द्राविण कहते हैं, उन्हें क्या माना जायेगा? आर्य या द्रविण या दोनों ही?
इधर, इन दिनों कुछ लोग ईलोक (सोशल मीडिया) में रावण के साथ इसलिए सहानुभूति प्रकट करते नजर आते हैं कि वह ब्राह्मणकुलोत्पन्न प्रकांड पण्डित, परमवीर और परम शिवभक्त था। ऐसा कहते समय वे यह भूल जाते है कि उसके हाथ हजारों सदाचारी-तपस्वियों और शांतिप्रिय अहिंसक आश्रमवासियों के खून से रंगे हुए थे। माता सीता का हरण भी उसने एक डरपोक चोर की भांति धोखे से किया था। वस्तुतः यह जातिवादी दंभ का वह घिनौना रुप है जो आज आताताइयों, दुराचारियों और समाजकंटकों में भी स्वजाति देखकर उनके पक्ष में उठ खडा होता है और देश में अराजकता का माहौल पैदा करता है।

वाल्मीकि पर विमर्श के साथ “शम्बूक वध प्रकरण” पर विचार करना भी प्रासंगिक होगा। यह प्रकरण वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में वर्णित है। रामायण के अधिकतर अध्येता विद्वानों का यह मत है कि उत्तरकाण्ड मूल रामायण का अंग नहीं हैं। यह किसी परवर्ती कवि की रचना है जो वाल्मीकिकृत रामायण में बाद मे जोड़ी गयी। बाल, अयोध्या, अरण्य, किष्किन्धा, सुन्दर और युद्ध नामक काण्डों के क्रम में ‘उत्तर’ शब्द का प्रयोग ही प्रथमदृष्ट्या यह सूचित करता है कि यह उत्तरकालीन सामग्री है अर्थात् बाद में जोड़े गये सर्ग। रामायण के अन्तःसाक्ष्य भी ऐसा मानने का सुदृढ़ आधार प्रदान करते हैं। युद्ध काण्ड की समाप्ति पर कवि जिस तरह इस ग्रन्थ का माहात्म्य वर्णन करता है वह यही प्रकट करता है कि यह महाकाव्य पूर्ण हो गया। युद्ध काण्ड के श्लोक संख्या १०७ से लेकर अंतिम श्लोक संख्या १२५ तक कही गई फलश्रुति ठीक वैसी ही है जैसी ग्रन्थों की समाप्ति पर दी जाती है। इधर बालकाण्ड का प्रथम सर्ग भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है। जब मुनिवर नारद वाल्मीकि को राम के बारे में बताते हैं तो अति संक्षेप में रामकथा भी सुनाते हैं। यह वाल्मीकि का रामकथा जानने का पहला अनुभव था। श्लोक क्रमांक ८ से लेकर श्लोक क्रमांक ९७ तक कुल ९० श्लोकों में नारद इस कथा को इस महाकाव्य की सिनॉप्सिस की तरह बांचते हैं। इसमें भी राम कहानी तो श्लोक क्रमांक ८९ तक ही है, शेष श्लोक संख्या ९० से ९७ तक रामराज्य का वर्णन है। इस प्रस्तावित कथा का अंत इस सूचना से होता है कि ‘‘राम ने नंदिग्राम में भाइयों के साथ जटाएं कटवा कर मुनिवेष त्यागकर, सीता के साथ फिर से राज्य प्राप्त किया।’’
तीसरे सर्ग में जब वाल्मीकि जी इसी रामकथा का पुनरवलोकन करते हैं तो पुनः रामकथा का संक्षिप्त विवरण मिलता है जिसमें आखिरी में राम के अभिषेक समारोह, सुग्रीवादि की सेनाओं का विसर्जन, अपने राष्ट्र का रंजन और वैदेहीविसर्जन का उल्लेख मिलता है। शंबूक वध जैसी ज्वलन्त घटना का कोई उल्लेख न प्रथमसर्ग में, न तृतीय सर्ग में, कहीं भी नही मिलता।
निश्चय ही यह किसी एजेंडाधारी घुसपैठिये की कारस्तानी है जो वाल्मीकि की रामकथा मंदाकिनी में यह अपशिष्ट घोल गया। वर्ना, वाल्मीकि के राम ऐसा कदापि नहीं कर सकते थे। जो वाल्मीकि शूद्र को रामकथा पढने का आह्वान कर उसके महत्व को बढाने का दावा करते हैं, उन्हीं का राम एक शूद्र का वध केवल इसलिए करदे कि वह तपस्यारत था? उनके प्रिय राम के लिए ऐसा कृत्य किसी भी तरह संभव नहीं था। नितांत असंभव!!

अपने महाकाव्य के आरंभ में ही वे कहते हैं, ‘‘रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता।”(बालकाण्ड १/१३) उनके करुणामूर्ति राम तो संसार के जीवमात्र के रखवाले और भक्तों पर प्रेम उड़ेलने वाले हैं। विश्वास न हो तो निषाद से पूछिए! शबरी से पूछिए! कोल, किरातों से, वनवासियों से पूछिए! पूछिए उस गिलहरी से जो अभी तक अपने राम की अंगुलियों के निशान अपनी पीठ पर लिए इतराती डोलती हैं।
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