Shadow

लोकतंत्र को मजबूती देने वाले नतीजें

-ः ललित गर्ग:-

भारत के दो राज्यों गुजरात एवं हिमाचल प्रदेश और एक नगर निगम दिल्ली के चुनावों में इन क्षेत्रों के मतदाताओं ने जो जनादेश दिया है उससे एक बार फिर सिद्ध हो गया है कि भारत में लोकतंत्र कायम है और इसकी जीवंतता के लिये मतदाता जागरूक है। मतदाता को ठगना या लुभाना अब नुकसान का सौदा है। गुजरात में भारतीय जनता पार्टी ने कीर्तिमान गढे़, तो हिमाचल में कांग्रेस ने नया जीवन पाया, दिल्ली में आम आदमी पार्टी को खुश होने का मौका मिला। इन चुनावी नतीजों ने जाहिर कर दिया कि आज के मतदाता किसी भी पार्टी के दबाव में नहीं है। ये नतीजे जहां लोकतंत्र की सुदृढ़ता को दर्शा रहे हैं, वही देश की राजनीति का नई राहों की ओर अग्रसर होने के संकेत दे रहे हैं। इन चुनाव नतीजों से यह तय हो गया कि भारत विविधता में एकता एवं विभिन्न फूलों का एक ‘खूबसूरत गुलदस्ता’ है। इन जनादेशों का चारों तरफ स्वागत हो रहा है। ऐसे जनादेश का केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही महत्त्व नहीं है, इसका सामाजिक क्षेत्र में भी महत्त्व है। जहाँ राजनीति में मतों की गणना को जनादेश कहते हैं, वहां अन्य क्षेत्रों में जनता की इच्छाओं और अपेक्षाओं को समझना पड़ता है। जनादेश और जनापेक्षाओं को ईमानदारी से समझना और आचरण करना सही कदम होता है और सफलता सही कदम के साथ चलती है। भारत के लोगों ने इस देश की बहुदलीय राजनैतिक व्यवस्था के औचित्य को न केवल स्थापित किया है बल्कि यह भी सिद्ध किया है कि मतदाता ही लोकतन्त्र का असली मालिक होता है। एक दिन का राजा ही हमेशा वाले राजा से बड़ा होता है।
कहने को भले ये दो राज्यों के विधानसभा एवं दिल्ली के नगर निगम के चुनाव थे, लेकिन ये चुनाव ज्यादा महत्वपूर्ण एवं उत्साह वाले इसलिये बने कि इन्हीं चुनावों को 2024 के लोकसभा चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा था। उस लिहाज से निस्संदेह गुजरात में बीजेपी को मिली ऐतिहासिक जीत बहुत बड़ी है और बहुत कुछ बयां कर रही है। पिछले यानी 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को कांग्रेस ने कड़ी टक्कर दी थी। तब 268 विधायकों वाली विधानसभा में उसे 99 सीटें आई थीं, जो सरकार गठन के लिए आवश्यक संख्या 95 से मात्र चार ज्यादा थीं। स्वाभाविक रूप से माना जा रहा था कि अगर कांग्रेस थोड़ा और जोर लगा दे या बीजेपी थोड़ी सी लापरवाही दिखा दे तो चुनाव में उलटफेर हो सकता है। लेकिन न तो कांग्रेस ज्यादा जोर लगा पाई और न ही बीजेपी ने कोई चूक दिखाई। उसने अब तक के सारे रिकार्ड तोड़ डाले, माधवसिंह सोलंकी के समय कांग्रेस के 149 सीटों से जीत के रिकार्ड को भी उसने तोड़ डाला। यह एक पहेली ही है कि कांग्रेस ने पूरे दम-खम से गुजरात चुनाव क्यों नहीं लड़ा और उसके सबसे प्रभावी नेता राहुल गांधी ने वहां केवल दो रैलियां ही संबोधित क्यों कीं? गुजरात चुनाव से ज्यादा भारत जोड़ो यात्रा को प्राथमिकता देना कोई राजनीतिक परिपक्वता की निशानी नहीं है।
निश्चित ही भाजपा ने इस राज्य में नया इतिहास रच डाला और 54 प्रतिशत वोट प्राप्त करके नया कीर्तिमान स्थापित किया। एक बार फिर यह साबित हुआ कि इस प्रांत में नरेन्द्र मोदी का वर्चस्व कायम है। तमाम आलोचनाओं के बावजूद इन नतीजों ने साबित किया कि मोदी आज भी राज्य के सबसे लोकप्रिय और बड़े नेता है। यहां की जनता विकास पर वोट डालती है न कि मुफ्त की सुविधाओं के झांसे में आती है। भाजपा की जीत का अर्थ निश्चित ही सुशासन भी है और इससे राज्य के लोगों के कल्याण व विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। इसी की अपेक्षा के लिये जनता ने एकतरफा वोट डाले। सभी राजनैतिक दलों को सोचना होगा कि केवल चुनावी समय में जनता को लुभाने के लिए मुफ्त की सौगातें देने का लोकतन्त्र पर क्या असर पड़ सकता है। विशेषतः आप जैसी पार्टी को मुफ्त की खैरात बांटने की अलोकतांत्रिक सोच से उबरना चाहिए। गुजरात के मतदाताओं ने राज्य में पिछले 27 वर्षों से चल रही हुकूमत को ही पुनः अवसर देने का फैसला करके यह भी संकेत दिया है कि काम करने वाले दलों को मतदाता सिर माथे बिठाती ही है। भारतीय राजनीति के इतिहास को देखें, तो किसी पार्टी को किसी राज्य में इतने मौके मिलना या इतने लम्बे समय तक राज करने देना बहुत खास है। वामपंथी पार्टियां बंगाल में लगातार 34 वर्षों तक सरकार चलायी है, इस रिकॉर्ड को तोड़ने के लिये भाजपा अगली बार भी निश्चित ही जीत हासिल करके नया चमत्कार घटित करेंगी। बंगाल एवं उडीसा की ही भांति गुजरात ने राजनीति को एक नई दिशा दी है और वह है कि राजनीतिक चालंे शुद्ध विकास एवं स्वस्थ लोकतांत्रिक मूल्यों से जुड़कर ही लम्बा जीवन पा सकती है।
लोकतन्त्र की खासियत इसी बात में है कि मतदाता हर पांच वर्ष बाद अपनी विकास की बात करने वाले एवं स्वस्थ मूल्यों के धारकों को उनकी काबिलियत के मुताबिक चुनता है। गुजरात में मतदाताओं को लगा कि भाजपा का शासन उनके लिए ठीक है अतः उसने इस बात की परवाह किये बिना पुनः इस पार्टी को चुना कि वह पिछले सात चुनावों से लगातार जीतती आ रही है जबकि हिमाचल में उसने भाजपा के शासन को नाकारा समझा अतः उसे बदल डाला। जहां तक गुजरात का प्रश्न है तो इस राज्य से ही प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी व गृहमन्त्री श्री अमित शाह आते हैं। इन दोनों ही नेताओं ने गुजरात में जमकर प्रचार किया था, चुनाव से पूर्व अनेक बहुआयामी योजनाओं की शुरुआत की। मतदाताओं ने विशेषरूप से प्रधानमन्त्री के वादों और कथनों पर यकीन करने के साथ ही उसे गुजरात का गौरव माना और भाजपा को हटाना उचित नहीं समझा।
गुजरात में जिस प्रकार दिल्ली की आम आदमी पार्टी ने अपने बूते पर मतदाताओं के बीच सेंध लगाने की कोशिश की उसका असर भी हुआ और इसने मुख्य रूप से कांग्रेस के वोट बैंक को छिन्न-भिन्न करते हुए उसमें हिस्सेदारी की जिसकी वजह से राज्य में यह पार्टी धराशायी हो गयी और बामुश्किल 182 सदस्यीय विधानसभा में 20 के नीचे का आंकड़ा ही छूने में कामयाब हो सकी। आप ने भी जितने बड़े बोल बोले एवं बड़ी बातें की उसकी तुलना में उसे सफलता नहीं मिली। गुजरात एवं हिमाचल ने आप की सत्ता लालसा पर लगाम लगा दी है। राजनीतिक दलों के लिये ये नतीजे खुशी देने के साथ-साथ खतरे की घंटी भी है। एक चुनौती भी है कि मतदाताओं को हल्के में नहीं लेना चाहिए, न अपनी जागीर समझना चाहिए। आज का मतदाता जागरूक है और परिपक्व भी है। अवसर आने पर किंग मेकर की भूमिका निभाने वाली जनता उसकी भावनाओं एव ंअपेक्षाओं से खिलवाड़ करने वालों को जमीन भी दिखा देती है। भले ही चुनाव परिणामों के बाद मतदाता का रोल समाप्त गया है। अब ये दिन चुनी हुए दलों एवं प्रतिनिधियों के हैं। इसी दिन के लिए तो वे खडे़ हुए हैं, चुनावों में लम्बे-लम्बे वायदें किये अब उन वायदों को पूरा करना है।  
कांग्रेस मुक्त भारत की ओर अग्रसर पार्टी को हिमाचल की जीत संजीवनी देने वाली है, यह जीत कांग्रेस के लिए लिए एक बड़ी राहत भी देने वाली इसलिये है कि बीते चार वर्ष में वह पहली बार विधानसभा का कोई चुनाव जीत सकी है। भले ही भारत जोड़ो यात्रा के जरिए राहुल गांधी लंबी लड़ाई लड़ने की तैयारी दिखा रहे हों, इससे चुनावी लड़ाई के मोर्चे पर पार्टी की गैरहाजिरी की भरपाई नहीं होती। बल्कि गुजरात की करारी हार राष्ट्रीय स्तर पर उसके उत्थान को लेकर प्रश्नचिह्न लगाती रहेगी। हिमाचल में मतदाताओं ने कांग्रेस को पूर्ण बहुमत देकर सिद्ध किया है कि केवल आक्रामक प्रचार के माध्यम से मतदाताओं को नहीं लुभाया जा सकता। इस राज्य के अधिसंख्य लोग सेना, मैदानी क्षेत्रों में नौकरियों व सेब की फसल में लगे हुए हैं। इन तीनों ही क्षेत्रों में राज्य की पिछली जयराम ठाकुर सरकार ने जो काम किये उससे लोग सन्तुष्ट नहीं थे और उनमें भारी असन्तोष था। इसका कारण सेना में भर्ती के नियमों में बदलाव किया जाना भी माना जा रहा है और सरकारी कर्मचारियों की पेंशन योजना को बदल दिये जाने से भी जोड़ा जा रहा है। भाजपा की हार का कारण हमीरपुर क्षेत्र भी बना। जनाकांक्षाओं को किनारे किया जाता रहा और विस्मय है इस बात को लेकर कोई चिंतित भी नजर नहीं आ रहा था। लेकिन पहाड़ों पर जिस तरह महंगाई की मार से यहां के निवासियों का जीवन त्रस्त हुआ उसका असर भी इन चुनाव परिणामों पर देखने को मिल रहा है। ऐसी स्थितियां का असर तो आना ही था।
गुजरात और हिमाचल प्रदेश में तीसरे खिलाड़ी के तौर पर आप भी मैदान में थी और अपनी जीत के बड़े-बड़े दावे कर रही थी, लेकिन वैसा कुछ नहीं होना था, जैसा उसकी ओर से कहा जा रहा था। आप को गुजरात में पैर जमाने के साथ राष्ट्रीय दल के रूप में उभरने का अवसर अवश्य मिला, लेकिन उसे समझना होगा कि रेवड़िया बांटने की राजनीति की अपनी सीमाएं हैं और बिना विचारधारा बहुत दूर तक नहीं जाया जा सकता। दिल्ली में नगर निगम की चाबी आप को देकर मतदाता ने नया प्रयोग किया। यहां के मतदाताओं ने आप को बहुमत केवल इसलिए दिया है जिससे दिल्ली सरकार व निगम के बीच की खींचतान व चख-चख समाप्त हो सके। इससे भारत के मतदाता की जागरूकता एवं विवेक का अन्दाजा लगाया जा सकता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *