राकेश दुबे
1960 के दशक तक ज्वार, बाजरा और रागी का अंश भारतीयों के भोजन में लगभग एक-चौथाई हुआ करता था, लेकिन हरित क्रांति में धान और गेहूं की फसल को मिली तरजीह के बाद इनका अंश कम होता चला गया। जब से मोटे अनाज का उत्पादन और खपत कम होनी शुरू हुई तब से अब तक हमारी भोजन और खुराक संबंधी आदतें पूरी तरह बदल चुकी हैं। पिछले कुछ दशकों से हम निर्णायक रूप से महीन, प्रसंस्करित, पैकेट बंद और रेडी-टू-कुक भोजन की ओर मुड़ गए हैं।अब केंद्र सरकार वापिस मोटे अनाज पर लौटने की बात कह रही है। तथ्य है कि सदियों से मोटा अनाज भारतीय भोजन का हिस्सा और खुराक रहे हैं।
अब संयुक्त राष्ट्र और भारत की केंद्रीय सरकार द्वारा साल 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष घोषित किए जाने के बाद सरकारी एजेंसियों की पुरज़ोर कोशिश रशुरू हो गई है कि भारत को मोटा अनाज उत्पादन और निर्यात की मुख्य धुरी बनाया जाए। अब यह समझाने की कोशिश हो रही है कि मोटा अनाज मानव के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए वैसे भी अच्छा होता है और इसे तीखे मौसम में भी उगाए जा सकता हैं।
खाद्य-प्रसंस्करण उद्योग को बढ़ावा 1960-70 के दशक से मिलना शुरू हुआ था ताकि खाद्यान्न की बर्बादी रोकी जा सके और कृषि उत्पाद का भंडारण लंबे समय तक हो पाए।प्रसंस्करित और पैकेट बंद खाद्य पदार्थों की ओर जाना आर्थिक उदारवाद लागू होने के बाद ज्यादा तेजी से हुआ। वर्ष 1991 के बाद, बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में प्रसंस्करित और अति-प्रसंस्करित खाद्य पदार्थों के अलावा अधिक चीनी युक्त पदार्थ उतारने शुरू किए। इस श्रेणी के खाद्य को जंक फूड यानी कबाड़ भोज कहा जाता है, इन अति-प्रसंस्करित पदार्थों में चीनी, नमक और वसा (सेचुरेटेड और अनसेचुरेटेड) की काफी मात्रा होती है, इनके आने के बाद भारतीयों में मोटापा और असंक्रमित रोगों का इजाफा होने लगा।आज देश की आबादी का बड़ा हिस्सा इसके दुष्परिणाम भोग रहा है।
वर्तमान स्थिति में मोटे अनाज को भोजन का मुख्य हिस्सा बनाना काफी चुनौतीपूर्ण है । एक ओर किसानों को मौजूदा गेहूं-चावल वाले मुख्य फसल चक्र से हटकर इसकी पैदावार के लिए प्रेरित करना मुश्किल होगा तो दूसरी तरफ उपभोक्ता को अपनी खानपान आदतें सुधारने के लिए शिक्षित करना पड़ेगा। डर यह भी है कि जंक फूड उद्योग अपनी प्रचार ताकत से मोटे अनाज के प्रति लोगों की रुचि पैदा ही न होने दें। जब से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जंक फूड को असंक्रमित रोगों के जोखिम का मुख्य कारक ठहराया है और नई पीढ़ी में जंक फूड के प्रचार-प्रसार को नियंत्रण करने के लिए नीतियां सुझाई हैं, तब से खाद्य कंपनियां अपने उत्पाद को किसी भी हीले-हवाले ‘स्वास्थ्यप्रद’ और ‘प्राकृतिक’ बताने का प्रयास करने लगी हैं। इसका रूप हमें मल्टीग्रेन बिस्किट, कम चीनी वाले कोला पेय, आटा, नूडल्स और ‘दिल-मित्र खाद्य तेल’, फ्रूट जूस इत्यादि में देखने को मिल रहा है और उन्हें घर में बने-उगाए भोजन-सब्जियों-फलों का सही विकल्प बताया जा रहा है। कुछ जंक फूड कंपनियों ने पहले से ही हैदराबाद स्थित आईसीएमआर – राष्ट्रीय मोटा अनाज अनुसंधान केंद्र का दरवाज़ा खटखटाना शुरू कर दिया है।
हमेशा से जंक फूड कंपनियों द्वारा अपने उत्पाद को स्वास्थ्यप्रद बताने का सामान्य तरीका है “पैकेट पर बड़े-बड़े दावे करते हुए मुख्य घटक और मिलाये गए नुकसानदायक अवयवों की जानकारी छिपाना।“ भारत की खाद्य नियामक संहिता के अनुसार सभी खाद्य पैकेटों पर तयशुदा सारणी के अनुसार ‘पौष्टिकता सूचना’ लिखना अनिवार्य है, जिसमें मुख्यतः चीनी, वसा, कार्बोहाईड्रेट्स इत्यादि की जानकारी होती है। अब अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नियमन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक संस्थान ने प्रस्ताव दिया है कि खाद्य-पैकेट के मुख्य पार्श्व पर पौष्टिकता-अवयव संबंधी लघु जानकारी देने के अलावा पिछले हिस्से पर तफ्सील देना जरूरी किया जाए। इससे ग्राहक को अपनी सेहत स्थिति के मुताबिक उत्पाद चुनने में मदद मिलेगी। यह सूचना आसानी से समझ में आने वाले चिन्हों या फिर पंक्ति के रूप में हो सकती है।
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