जब से Animal रिलीज़ हुई है तब से सोशल मीडिया पर इससे जुड़े काफी रिव्यूज़ पढ़ चुका हूं। बहुत से लोगों ने इसमें रणबीर कपूर के किरदार पर खासी आपत्ति दर्ज की है। लोग रणबीर के Male Chauvinist किरदार से काफी खफा हैं। वो इस बात से नाराज़ हैं कि एक मर्द औरत पर अपनी मर्ज़ी कैसे थोप सकता है? एक मर्द खुद बीवी से धोखा करते हुए उसे खुलेआम ऐसा न करने को कैसे कह सकता है? वो अपनी बहनों पर इतना रौब कैसे मार सकता है? वो खुद अपने जीजा को कैसे मार सकता है?वो बार-बार इस बात को कैसे अंडरलाइन कर सकता है कि मैं एक अल्फा मेल हूं और होगा वही, जो मैं चाहूंगा। इसके अलावा जिस तरह वो खुलेआम अपनी सेक्स लाइफ के बारे में बोलता है वो भी लोगों को हज़म नहीं होता। फिल्म में जिस लेवल की हिंसा दिखाई गई उससे भी बहुतों को प्रॉब्लम है। इसके अलावा भी नैतिकता के बहुत सारे मापदंड है जिस पर फिल्म को कसा गया है और ये भी कहा गया है कि आर्ट का काम तो मैसेज देना होता है कि न कि किसी नकारात्मक सोच को जस्टिफाई करना, जैसा कि ये फिल्म करती है। फिल्म की आलोचना मोटे तौर पर इन्हीं बातों के इर्द गिर्द है। मैंने आज ही ये फिल्म देखी है और बड़ी विनम्रता से कहना चाहूंगा कि मुझे इनमें से ज़्यादातर आपत्तियों में कोई दम नहीं लगा। दम इसलिए नहीं लगा, क्योंकि आप किसी किरदार की Negativity पर सवाल तब खड़े कर सकते हैं जब उसके उस व्यवहार के पीछे कोई Rational या तर्क न हो…राइटर-डायरेक्टर आपको सिर्फ हैरान करने के लिए हीरो से ये सब करवा रहा हो। Animal फिल्म तो शुरू में ही इस बात को साफ कर देती है कि कैसे दस साल का एक बच्चा जो अपने बाप से बेहद प्यार करता है मगर उसका बाप कभी उसके लिए वक्त नहीं निकाल पाता…वो अपने बाप को उसके बर्थडे पर विश करने के लिए स्कूल में टीचर की मार खाता है…फिर स्कूल से भागकर घर आ जाता है…घर से भागकर बाप को विश करने उसकी फैक्ट्री जाता है मगर उसका बाप कभी नहीं मिलता और आखिर में बच्चा मायूस होकर हाथ पर टीचर की दी चोट का निशान लेकर सो जाता है…उसका बाप सारी ज़िंदगी उसे कभी वक्त नहीं देता और बेटे के मन में हमेशा इस बात टीस बनी रहती है कि पापा मुझसे बात नहीं करते…बाप भी बेटे की इस शिकायत को अच्छे से जानता है मगर बाप का मेल ईगो उसे कभी बच्चे के सामने अपनी गलती कबूल नहीं करने देता। पिता का यही रवैया बेटे को अंदर के कड़वाहट से भर देता है। और कई बार ऐसा होता है जिस भी चीज़ या इंसान को बेहद आप चाहें और वो आपको न मिले तो आप self-destructive मोड में चले जाते हैं…जहां आप किसी भी सूरत में अपनी सोच से समझौता करने के लिए तैयार नहीं…मानो अपने प्यार को मिली बेरूखी के बदले पूरी दुनिया से बगावत कर लेते हैं… अपनी बात को सही साबित करने के लिए आप किसी से भी लड़ लेते हैं, किसी से भी रिश्ता तोड़ लेते हैं, किसी को भी हर्ट करते हैं और ऐसा करते वक्त आप कभी नतीजों की परवाह नहीं करते…क्योंकि आपको लगता है कि आप हर्ट हुए हैं तो अब आप सबको हर्ट करेंगे…रणबीर का किरदार भी पूरी फिल्म में यही करता है…उसके बाप ने उसके प्यार की कभी परवाह नहीं की और उसने भी अपनी सोच और अपने सही-गलत के अलावा किसी की भी परवाह करना बंद कर दिया है… धीरे-धीरे उसके अंदर ये कड़वाहट बढ़ती जाती है और एक वक्त बाद वो अपने बेसिक Animal Instinct को काबू करना छोड़ देता है…वो अपने व्यवहार में politically correct होने की कोशिश नहीं करता…वो अपनी मर्दवादी सोच को छिपाने या दबाने की कोशिश नहीं करता…वो अपनी बीवी के मुंह पर कह देता है कि मैंने किसी और से सेक्स किया तो क्या हुआ, तुम नहीं करोगी…मेरे मरने के बाद किसी से शादी भी नहीं करोगी…उसे लगता है कि उसकी बहन को अपनी नहीं, उसकी पसंद के लड़के से शादी करनी चाहिए थी। उसे गुस्सा आता है तो वो भरे फंक्शन में सबके सामने अपने जीजा की बेइज्ज़ती कर देता है। रणबीर पूरी फिल्म में क्या करता है, क्यों करता है, वो कितना सही या गलत…उसने जो-जो किया, वो क्यों किया इस पर लंबी बहस करने के बजाए अगर सिर्फ इस एक बात को समझ लें कि वो एक ऐसा over emotional इंसान है जो अपने पिता से मिली बेरूखी के चलते self-destruction mode में जा चुका है तो उसके किए सारे कामों के जवाब मिल जाएंगे। और जब एक बार हम उस किरदार को समझ जाएँगे तो वो अलग-अलग स्थितियों में कैसे रिएक्ट करता है ये भी अपने आप समझ आएगा। फिल्म बेसिकिली अलग-अलग स्थतियों में उस किरदार की स्वाभाविक (उग्र)प्रतिक्रियाओं की ऋंखला है और कुछ नहीं। इसलिए बजाए इसे नैतिक और अनैतिक से जज करने के अलग-अलग परिस्थितियों में उस किरदार की unpredictability से जज कीजिए। वो unpredictability जो जनता का बराबर मनोरंजन करती है। कुछ लोग ये सवाल करेंगे कि यार, बहुत सारे लोगों के साथ ज़िंदगी इंसाफ नहीं करती मगर हर कोई तो ऐसा नहीं हो जाता। बिल्कुल सही बात है। मगर किन हालात में कौनसा आदमी कैसे रिएक्ट करेगा ये कौन जानता है। अपने जीवन में मैं खुद ऐसे एक शख्स को बेहद करीब से जानता हूं। जिसने बचपन में अपने मां-बाप का प्यार नहीं देखा। वो बहुत छोटा था तब दोनों चले गए। मैं अच्छे से जानता हूं कि वो दिल का हीरा है। मगर उसने भी खुद को कई सालों से उस self-destruction के मोड में डाल लिया है। वो किसी रिश्ते की परवाह नहीं करता। किसी रिश्तेदारी के लिए ज़िम्मेदारी नहीं समझता। शराब पीकर खुद को तबाह करने में लगा है। मैं अच्छे से जानता हूं ये उसका स्वभाव नहीं है मगर बहुत गहरे में मां-बाप के प्यार के अभाव ने उसे बहुत रूखा बना दिया है। एक तो सिर पर कभी मां-बाप का साया नहीं रहा। फिर ज़िंदगी ने भी उसके साथ न्याय नहीं किया। कुछ काम किए उनमें भी बात नहीं बनी। तो ज़िंदगी आगे बढ़ने के साथ-साथ उसकी कड़वाहट बढ़ने लगी और वो हर किसी को अपना दुश्मन मानने लगा। Breaking Bad के क्रिएटर विंस गिलिगन से एक बार किसी ने पूछा था कि कोई भी सीन लिखते वक्त आपकी सोच क्या होती है, तो उन्होंने बड़ा सिंपल और शानदार जवाब दिया…उनका कहना था कि मैं अपने किरदारों को उन सिचुएन में डालना चाहता हूं जिसे देखकर दर्शकों को भी तनाव हो…किरदार का तनाव दर्शक महसूस कर पाए…और बतौर दर्शक आप सोचने लगें कि अब ये क्या करेगा…एनिमल फिल्म देखते वक्त अक्सर मुझे गिलिगन की ये बात कई बार महसूस हुई….फिल्म में एक भी सीन ऐसा नहीं है जिसे आप फ्लैट कह पाएं…बतौर राइटर-डायरेक्टर संदीव रेड्डी वांगा ने हर वक्त दर्शकों को असहज किया है और असहज करके जिस थ्रिल के साथ वो उन्हें उस सिचुएशन से निकालकर ले गए हैं उसका रोमांच आखिर तक आपके साथ रहता है। फिल्म में ऐसा बहुत कुछ है जिसे नैतिक-अनैतिक की कसौटी पर कसा जा सकता है। ऐसा करते हुए फिल्म की आलोचना भी की जा सकती है। मगर मुझे लगता है कि अगर सिनेमा आपको एंटरटेन कर पा रहा है, अगर फिल्म के किरदार बिना अपना स्वभाव छोड़े आपको हैरान कर पा रहे हैं, तो ये एक फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है। फिल्म में रणबीर बहुत कुछ कहते करते हैं जिस पर बहुत बात भी हो रही है मगर उसमें से एक भी बात ऐसा नहीं है जो रणबीर अपना कैरेक्टर छोड़कर कह रहे हों। आप उस कैरेक्टर को समझिए, उसकी जर्नी को इंजॉय कीजिए और सिनेमा का मज़ा लीजिए। रही बात सिनेमा के किरदारों में मॉरैलिटी ढूंढने की तो मुझे लगता है कि ऐसा करना उनके साथ बहुत बड़ी ज़्यादती है। मुझे याद है डर की रिलीज़ के वक्त शाहरुख से जब उनके किरदार के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था…मैं एक एक्टर हूं, समाज सुधारक नहीं। और यही मेन बात है… अरे भाई, सिनेमा का प्राइम काम तो मनोरंजन करना है। मनोरंजन करते हुए कोई नैतिक संदेश भी दिया जाए तो बड़ी बात मगर जिन पेशों का आधार ही नैतिकता है उनमें ही नैतिकता कहां दिखती है। अगर नेता विकास के बजाए भावनात्मक मुद्दों पर चुनाव लड़ें, तो क्या ये अनैतिक नहीं है? अगर अस्पताल इलाज के बजाए सिर्फ मरीज़ से पैसे ऐंठने पर फोक्सड हों तो क्या ये पेशे से गद्दारी नहीं है? अगर स्कूल-कॉलेज पढ़ाई से ज़्यादा मां-बाप को अलग-अलग खर्चों के नाम पर लूटने पर ध्यान दें तो क्या ये बेईमानी नहीं है? अगर धर्म गुरू संन्यासी होने के बजाए सिर्फ व्यवसायी बन कर जाए, क्या ये पाप नहीं है? अगर ये सब पाप हैं, तो नैतिकता का सारा बोझ क्या एक फिल्ममेकर ही उठाएगा…वो फिल्ममेकर जिसका बुनियादी काम वैसे भी नैतिक संदेश देना नहीं, एंटरटेन करना है। और आज के कचरा कंटेट के ज़माने में अगर कोई एंटरटेन भी कर पा रहा है, तो क्या ये कम है। और जिन लोगों को फिल्म देखकर अपनी नैतिकता गंवाने का डर सता रहा है उनसे पूछना चाहता हूं कि जब आपकी स्कूल शिक्षा, मां-बाप के दिए संस्कार आपको 18 साल की उम्र तक सही-गलत में फर्क करना नहीं सिखा पाए, तो एक मास एंटरटेनर फिल्म तीन घंटे में ऐसा कर पाएगी? रणबीर का किरदार तो फिर भी आत्मघाती ज़ोन में जी रहा है मगर आप तो इतने परिपक्व हैं कि एक फिल्म देखकर अपने अंदर के Animal को काबू में रख पाएं। इसलिए उसकी लगाम खींचिए और आप और आपके अंदर का एनिमल फिल्म के मज़े लीजिए, वैसे भी जीवन में स्यापे बहुत हैं। @Neeraj Badhwar