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उपराष्ट्रपति बनाम उच्चतम न्यायालय 

उपराष्ट्रपति बनाम उच्चतम न्यायालय 

उप राष्ट्रपति जी ने सुप्रीम कोर्ट को बहुत कायदे से धोया है.. पूरा पढ़िए और समझिए कि कैसे उनको उनकी औक़ात दिखाई।

1. “आप राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकते!” – राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद है, कोई अदालत का क्लर्क नहीं।

2. “अनुच्छेद 145(3) कहता है – संवैधानिक व्याख्या के लिए कम-से-कम 5 जज!” – फिर यह तीन जजों की फौज संविधान पर भाषण क्यों दे रही है?

3. “राष्ट्रपति को परमादेश देना सीधे-सीधे संविधान का अपमान है!” – क्या अब जज राष्ट्रपति से ऊपर हो गए?

4. “अनुच्छेद 142 अब 24×7 परमाणु मिसाइल बन गया है!” – हर चीज़ में 142 लगाओ और फैसला सुना दो, यही नया खेल है क्या?

सुप्रीम कोर्ट की ओर से राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समयसीमा तय किये जाने पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने नाराजगी जताई है. उन्होंने कहा कि हम ऐसी स्थिति नहीं रख सकते, जहां अदालतें भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दें. उन्होंने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 142 के तहत मिले कोर्ट को विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24×7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है.

अनुच्छेद 142 के तहत भारत का सुप्रीम कोर्ट पूर्ण न्याय करने के लिए कोई भी आदेश, निर्देश या फैसला दे सकता है, चाहे वह किसी भी मामले में हो ।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि भारत ने ऐसे लोकतंत्र की कल्पना नहीं की थी, जहां जज कानून बनाएंगे, कार्यपालिका का काम स्वयं संभालेंगे और एक सुपर संसद के रूप में कार्य करेंगे. “एक महीने हो गए, कैश वाले जज पर FIR तक नहीं”

इन दिनों न्यायपालिका का हस्ताक्षेप एक अत्यंत गंभीर मुद्दा बन चुका है. इसी मुद्दे पर उपराष्ट्रपति ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा; ‘सुपर संसद’ न बने सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रपति को नहीं दे सकते आदेश.

1 महीने हो गए, कैश वाले जज पर FIR तक नहीं हुई और इस मामले की जांच तीन जजों की समिति कर रही है, लेकिन जांच करना कार्यपालिका का क्षेत्र है। जांच करना न्यायपालिका का क्षेत्र नहीं है।

क्या यह समिति भारत के संविधान के अधीन है? नहीं। क्या तीन न्यायाधीशों की इस समिति को संसद से पारित किसी कानून के तहत कोई मंजूरी मिली हुई है? नहीं। समिति अधिक से अधिक सिफ़ारिश कर सकती है।

हमारे पास जजों के लिए जिस तरह की व्यवस्था है, उसमें संसद ही एकमात्र कार्रवाई कर सकती है। एक महीना बीत चुका है। जांच के लिए तेजी, तत्परता और दोषी ठहराने वाली सामग्री को सुरक्षित रखने की जरूरत होती है।

देश के नागरिक होने के नाते और इस पद पर आसीन होने के नाते, मैं चिंतित हूँ। क्या हम कानून के शासन को कमजोर नहीं कर रहे हैं? क्या हम उन ‘हम लोगों’ के प्रति जवाबदेह नहीं हैं जिन्होंने हमें संविधान दिया है?

मैं सभी संबंधित पक्षों से आग्रह करता हूं कि वे इसे एक परीक्षण मामले के रूप में देखें। इस समिति के पास क्या वैधता और अधिकार क्षेत्र है? क्या हम एक वर्ग द्वारा बनाए गए कानून और उस वर्ग द्वारा बनाए गए कानून के बीच संविधान की बजाय संसद की बजाय अलग-अलग कानून रख सकते हैं? मेरे अनुसार, समिति की रिपोर्ट में कानूनी आधार का अभाव है।

राष्ट्रपति तक के निर्णय के ख़िलाफ़ जजमेंट दिया जा रहा है, पर एक जज के घर पर करोड़ो का कैश मिलने के बावजूद कोई कार्यवाही नहीं.

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को “वीटो पावर” नहीं दिया जाना चाहिए।

अगर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को सारी शक्ति दे देंगे तो ये खतरनाक साबित हो सकता है।

उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ कहते हैं;

“हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते जहाँ आप भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दें और किस आधार पर? संविधान के तहत आपके पास एकमात्र अधिकार अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या करना है। वहां, पांच या उससे अधिक न्यायाधीश होने चाहिए। जब अनुच्छेद 145(3) था, तब सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की संख्या आठ थी, यानी 8 में से 5, अब 30 में से 5 और विषम है।

लेकिन इसे भूल जाइए; जिन न्यायाधीशों ने वस्तुतः राष्ट्रपति को आदेश जारी किया था और एक परिदृश्य प्रस्तुत किया था कि यह देश का कानून होगा, वे संविधान की शक्ति को भूल गए हैं। न्यायाधीशों का यह समूह अनुच्छेद 145(3) के तहत किसी मामले से कैसे निपट सकता है, यदि इसे संरक्षित किया गया था, तो यह आठ में से पांच के लिए था।

हमें अब इसके लिए भी संशोधन करने की जरूरत है। आठ में से पांच का मतलब है कि व्याख्या बहुमत से होगी। खैर, पांच का मतलब आठ में से बहुमत से ज़्यादा है। लेकिन इसे एक तरफ़ रखिए। अनुच्छेद 142 लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ एक परमाणु मिसाइल बन गया है, जो न्यायपालिका के लिए चौबीसों घंटे उपलब्ध है…”

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