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संकट के दौर से गुजर रहा संयुक्त परिवार

संकट के दौर से गुजर रहा संयुक्त परिवार

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  किसी ने यह सच ही कहा है कि ‘‘दिल छोटा और बड़ा अहंकार, जिसने बिखेर कर रख दिया एक बड़ा सुखी परिवार। टुकड़ों में सब जीते हैं अब, गम के घुट अकेले पीते है सब। याद करते उन पलों को जब साथ में सब रहते थे, मिलजुल कर सब सहते थे। यह बिल्कुल सत्य है कि समय ने हमारे अहंकार को बड़ा कर दिया है और दिल को छोटा बना दिया है जिसके वजह से हमारा संयुक्त परिवार एकल परिवार में तब्दील होता जा रहा है। एक समय था जब हमारे यहां रिश्तों, संस्कारो और परम्पराओं को सबसे बढ़कर माना जाता था। लेकिन आधुनिकता ने इन सभी रिश्तों को न केवल कमजोर किया है बल्कि ईष्र्या और वैमनस्यता को भी इन रिश्तों के बीच ला खड़ा किया है। इन बातों को आसानी से महसूस की जा सकती है जिसमें आप पाएंगे कि वो प्यार, वो दुलार तेजी से बदलते दौर में कहीं गुम-सी गयी है। आखिर ऐसी क्या वजहें हैं कि आज के रिश्तें केवल नाममात्र के रह गए हैं जिसमें ...
अंधकार का प्रतीक बुर्का बने इतिहास की बात

अंधकार का प्रतीक बुर्का बने इतिहास की बात

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श्रीलंका में दिल-दहलाने वाले बम धमाकों के बाद  वहां की सरकार ने बुर्का पहनने पर रोक लगा दी। इसके तुरंत बाद अपने केरल  राज्य में एक मुस्लिम शिक्षा निकाय ने अपने कॉलेजों और स्कूलों में ड्रेस कोड पर सर्कुलर जारी कर दिया है। सर्कुलर के अनुसार छात्राओं को अपने चेहरे को बुर्के से ढकने की अनुमति नहीं दी जाएगी। हो सकता है कि कुछ मुसलमान और छदम सेक्यूलर वादी कहे जाने वाले मित्र श्रीलंका में बुर्के पर बैन को गंभीरता से न लें पर हमारे अपने देश की एक मुस्लिम शिक्षण ने संस्था ने सच में एक मील का पत्थर फैसला लिया है। उसने अपने फैसले को लागू करने के संबंध में उच्च न्यायालय के निर्देश का हवाला दिया है। यह एक बेहद क्रांतिकारी फैसला माना जाएगा। क्षमा चाहता  हूं कि मुसलमानों का एक बड़ा समूह अपने को प्रगति विरोधी के रूप में साबित करने पर आमादा रहता है। इन हालातों में केरल की उपर्युक्त संस्था ने उन  कठमुल्ला म...
दबाव एवं हिंसा की त्रासदी का शिकार बचपन

दबाव एवं हिंसा की त्रासदी का शिकार बचपन

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आज का बचपन केवल अपने घर में ही नहीं, बल्कि स्कूली परिवेश में बुलीइंग यानी दबाव एवं हिंसा का शिकार है। यह सच है कि इसकी टूटन का परिणाम सिर्फ आज ही नहीं होता, बल्कि युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते यह एक महाबीमारी एवं त्रासदी का रूप ले लेता है। यह केवल भारत की नहीं, बल्कि दुनिया की एक बड़ी समस्या है। लंदन के लैंकस्टर यूनिवर्सिटी मैनेजमेंट स्कूल के अर्थशास्त्र विभाग में असोसिएट रह चुकीं एम्मा गॉरमैन ने इस पर लम्बा शोध किया है। उन्होंने अपने इस शोध के लिए यूके के 7000 छात्र-छात्राओं को चुना। उन्होंने पहले उनसे तब बात की जब वे 14-16 की उम्र के थे। उसके बाद तकरीबन दस वर्षों तक उनसे समय-समय पर बातचीत की गई। गॉरमैन ने पाया कि किशोरावस्था की बुलीइंग यानी बच्चों को अभित्रस्त करना, उन पर अनुचित दबाव डालना या धौंस दिखाना, चिढ़ाना-मजाक उड़ाना या पीटना की घटनाओं ने बच्चों के भीतर के आत्मविश्वास, स्वतंत्र व्यक्...
विश्व उन्नति का दारोमदार मजदूर के कंधों पर

विश्व उन्नति का दारोमदार मजदूर के कंधों पर

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मजदूर दिवस/मई दिवस समाज के उस वर्ग के नाम है जिसके कंधों पर सही मायने में विश्व की उन्नति का दारोमदार होता है। कर्म को पूजा समझने वाले श्रमिक वर्ग के लगन से ही कोई काम संभव हो पाता है चाहे वह कलात्मक हो या फिर संरचनात्मक या अन्य लेकिन विश्व का शायद ही कोई ऐसा हिस्सा हो जहां मजदूरोें का शोषण न होता हो। बंधुआ मजदूरों खासकर महिला और बाल मजदूरों की हालत और भी दयनीय होती है जिन्हें अपनी मर्जी से न अपना जीवन जीने का अधिकार होता है और न ही सोचने का। ऐसे में मजदूरों की स्थिति में सुधार आवश्यक भी है और उसका अधिकार भी। दुनियाभर के मजदूरों को कई श्रेणियों में बांटा जाता रहा है जैसे कि संगठित-असंगठित क्षेत्र के मजदूर, कुशल-अकुशल आदि। समय-दर-समय मजदूरों की स्थिति में कुछ सुधार आया तो कुछ मामलों में स्थिति और भी बदतर हुई है। सुधारवाद की बात करें तो मजदूरों का पारिश्रमिक तय किया जाने लगा, उसके अधिकारों क...
क्या है सुन्दरता का मापदण्ड?

क्या है सुन्दरता का मापदण्ड?

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हाल ही में आइआइटी में पढने वाली एक लड़की के आत्महत्या करने की खबर आई कारण कि वो मोटी थी उसे अपने मोटा होना इतना शर्मिंदा करता था की वो अवसाद में चली गयी उसका अपनी परीक्षाओं में अव्वल आना भी उसे इस दुःख से बहार नहीं कर पाया यानी उसकी बौधिक क्षमता शारीरक आकर्षण से हार गयी दरअसल। आज हम जिस युग में जी रहे हैं वो एक ऐसा वैज्ञानिक और औद्योगिक युग है जहाँ भौतिकवाद अपने चरम पर है। इस युग में हर चीज का कृत्रिम उत्पादन हो रहा है। ये वो दौर है जिसमें ईश्वर की बनाई दुनिया से इतर मनुष्य ने एक नई दुनिया का ही अविष्कार कर लिया है यानी कि वर्चुअल वर्ल्ड। इतना ही नहीं बल्कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी आर्टिफिशल इनटेलीजेंस ने भी इस युग में अपनी क्रांतिकारी आमद दर्ज कर दी है। ऐसे दौर में सौंदर्य कैसे अछूता रह सकता था। इसलिए आज सुंदरता एक नैसर्गिक गुण नहीं रह गया है अपितु यह करोड़ों के कॉस्मेटिक उद्योग के बाज़रवाद ...
बच्चों को कुपोषण से बचा सकती है शिक्षित मां

बच्चों को कुपोषण से बचा सकती है शिक्षित मां

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कुपोषण को दूर करने के लिए भोजन की गुणवत्ता और आहार की मात्रा पर ध्यान देना जरूरी माना जाता है। लेकिन, एक नए अध्ययन में पता चला है कि बच्चों को पर्याप्त पोषण और विविधतापूर्ण आहार देने में शिक्षित मां की भूमिका परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति से अधिक महत्वपूर्ण हो सकती है। शोधकर्ताओं ने पाया कि पारिवारिक आय और मां के शैक्षणिक स्तर का सीधा असर बच्चों को दिए जाने वाले पोषण की मात्रा और आहार विविधता पर पड़ता है। बच्चों को दिए जाने वाले आहार में विविधता बहुत कम पायी गई है। जबकि, आहार की अपर्याप्त मात्रा का प्रतिशत अधिक देखा गया है। शिशु आहार में कद्दू, गाजर, हरे पत्ते वाली सब्जियां, मांस, मछली, फलियां और मेवे जैसे अधिक पोषण युक्त आहार पर्याप्त मात्रा में शामिल करने में मां के शैक्षणिक स्तर का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। जबकि, घरेलू आर्थिक स्थिति का संबंध दुग्ध उत्पादों के उपभोग पर अधिक देखा ग...
जीवन व्यस्त हो, अस्तव्यस्त नहीं

जीवन व्यस्त हो, अस्तव्यस्त नहीं

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असन्तुलन एवं अस्तव्यस्तता ने जीवन को जटिल बना दिया है। बढ़ती प्रतियोगिता, आगे बढ़ने की होड़ और अधिक से अधिक धन कमाने की इच्छा ने इंसान के जीवन से सुख, चैन व शांति को दूर कर दिया है। सब कुछ पा लेने की इस दौड़ में इंसान सबसे ज्यादा अनदेखा खुद को कर रहा है। बेहतर कल के सपनों को पूरा करने के चक्कर में अपने आज को नजरअंदाज कर रहा है। वह भूल रहा है कि बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता, इसलिए कुछ समय अपने लिए, अपने शरीर, अपने शौकों और उन कामों के लिए, जो आपको खुशियां देते हैं, रखना भी बहुत जरूरी है। समय ही नहीं मिलता! कितनी ही बार ये शब्द आप दूसरों को बोलते हैं तो कितनी ही बार दूसरे आपको। क्या वाकई समय नहीं मिलता? सच ये भी तो है कि जिनसे हम बात करना या मिलना चाहते हैं, उनके लिए समय निकाल ही लेते हैं। यही समय प्रबन्धन है, इसके लिये लेखिका पैट होलिंगर पिकेट कहती हैं, ‘ये आपको तय करना है कि ...
गुड़ी पड़वा या नववर्ष क्या है?

गुड़ी पड़वा या नववर्ष क्या है?

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गुड़ी पड़वा-नवसंवत्सर-नववर्ष-वर्ष प्रतिपदा चैत्र मास की  शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा या नववर्ष का आरम्भ माना गया है। ‘गुड़ी’ का अर्थ होता है विजय पताका । ऐसा माना गया है कि शालिवाहन नामक कुम्हार के पुत्र ने मिट्टी के सैनिकों का निर्माण किया और उनकी एक सेना बनाकर उस पर पानी छिड़ककर उनमें प्राण फूँक दिये। उसमें सेना की सहायता से शक्तिषाली शत्रुओं को पराजित किया। इसी विजय के उपलक्ष्य में प्रतीक रूप में ‘‘षालिवाहन शक’ का प्रारम्भ हुआ। पूरे महाराष्ट्र में बड़े ही उत्साह से गुड़ी पड़वा के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। कष्मीरी हिन्दुओं द्वारा नववर्ष के रूप में एक महत्वपूर्ण उत्सव की तरह इसे मनाया जाता है। इसे हिन्दू नव संवत्सर या नव संवत् भी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन सृष्टि की रचना प्रारम्भ की थी। इसी दिन से विक्रम संवत् के नये साल का आरम्भ भी होता है। सिंधी नववर्ष चेटी...
विक्रम संवत् में शामिल है जीवन की वैज्ञानिकता का सार!

विक्रम संवत् में शामिल है जीवन की वैज्ञानिकता का सार!

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विज्ञानसम्मत हैं हिंदू पर्व और मान्यताऐं भारत एक ऐसा देश है जहां, लगभग हर दिन और हर वार कोई न कोई उत्सव मनाया जाता है। यहां का हर दिन किसी न किसी धार्मिक मान्यता से जुड़ा होता है। यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि, हिंदू धर्म से जुड़े सभी पर्व और इन पर्वों से जुड़ी विभिन्न मान्यताओं का वैज्ञानिक आधार है। हिंदू पंचांग के नववर्ष में जब हम विभिन्न पहलूओं पर चर्चा कर रहे हों, तब इन मान्यताओं की वैज्ञानिकता और भी प्रासंगिक हो जाती है। हिंदू मान्यताओं और पर्वों का विज्ञानसम्मत होने का एक कारण यह भी है कि, सभी पर्व लगभग 57 ई.पू. प्रवर्तित किए गए, विक्रम संवत् के आधार पर मनाए जाते हैं। यह संवत् प्रकृति आधारित है। विद्वानों का मानना है कि इस संवत् की मान्यताओं में विज्ञान की बातें शामिल हैं। हिंदू पंचांग जिसे विक्रम संवत् के नाम से जाना जाता है। उसका प्रत्येक माह चंद्रमा की कलाओं पर आधारित होता है। ...
स्वयं से रूबरू होने का लक्ष्य बनाएं

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सफल एवं सार्थक जीवन के लिये व्यक्ति और समाज दोनांे अपना विशेष अर्थ रखते हैं। व्यक्ति समाज से जुड़कर जीता है, इसलिए समाज की आंखों से वह अपने आप को देखता है। साथ ही उसमें यह विवेकबोध भी जागृत रहता है ‘मैं जो हूं, जैसा भी हूं’ इसका मैं स्वयं जिम्मेदार हूं। उसके अच्छे बुरे चरित्र का बिम्ब समाज के दर्पण में तो प्रतिबिम्बित होता ही है, उसका स्वयं का जीवन भी इसकी प्रस्तुति करता है। यह सही है कि हम सबकी एक सामाजिक जिंदगी भी है। हमें उसे भी जीना होता है। हम एक-दूसरे से मिलते हैं, आपस की कहते-सुनते हैं। हो सकता है कि आप बहुत समझदार हों। लोग आपकी सलाह को तवज्जो देते हों। पर यह जरूरी नहीं कि आप अपने आस-पास घट रही हर घटना पर सलाह देने में लगे रहें। हम सबकी एक अपनी अलग दुनिया भी होती है, जिसके लिए समय निकालना भी जरूरी होता है। क्योंकि आध्यात्मिकता जिंदगी जीने का तरीका है खुद के साथ-साथ दूसरों से उचित व्य...