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सामाजिक

वंदे मातरम्-विवाद नहीं, विकास का माध्यम बने

वंदे मातरम्-विवाद नहीं, विकास का माध्यम बने

सामाजिक
वंदे मातरम् को लेकर फिर बहस छिड़ गई है। मेरठ, इलाहाबाद और वाराणसी की नगर निगमों के कुछ पार्षदों ने इस राष्ट्रगान को गाने पर एतराज किया है। हाल ही में इलाहाबाद में वंदे मातरम को लेकर हंगामा हुआ था, कई सभासदों ने इस पर नाराजगी जताई और बैठक का बॉयकॉट कर दिया। इससे पहले मेरठ नगर निगम बोर्ड की बैठक में भी वंदे मातरम् को लेकर विवाद हो गया था। बैठक में विपक्षी मुस्लिम पार्षद वंदे मातरम गाने के दौरान सदन से उठकर बाहर चले गये थे क्योंकि इसे वे इस्लाम-विरोधी मानते हैं। उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस तरह राष्ट्र-गीत को लेकर बनी संकीर्णता एवं उसे गाएं या ना गाएं कोे लेकर विवाद होने को चिन्ता का विषय बताया है। जो वंदे मातरम् आजादी की लड़ाई में देशभक्ति का पावर बैंक हुआ करता था, वही वंदे मातरम् आजादी के बाद बदले वक्त में एक अलग ही राजनीतिक राग एवं संकीर्णता का प्रतीक बन गया, यह दुर्भाग्यपूर्ण ...
स्कूलों में कब आएँगे गुरु जी

स्कूलों में कब आएँगे गुरु जी

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किसी भी देश-समाज की पहचान का पैमाना वहां के शिक्षा के स्तर से ही तय होता है। मोटे तौर पर जहां पर शिक्षा के प्रसार-प्रचार पर ईमानदारी से बल दिया जाता है, वे ही देश प्रगति की दौड में आगे निकल जाते हैं। दुर्भाग्यवश हमारे देश में स्कूली शिक्षा का स्तर तो दर्दनाक स्थितिपर पहुंच गई है। सरकार ने बीते सोमवार को संसद के पटल पर ‘एक स्कूल-एक अध्यापक’ विषय से संबंधित एक रिपोर्ट रखी। इसके अनुसार देश में 1,05,630 स्कूलों में मात्र एक ही शिक्षक है। यानि कक्षाएं 5 या 6 और शिक्षक एक। रिपोर्ट का तटस्थभाव से विश्लेषण करने से समझ आता है कि स्कूली शिक्षा को लेकर लगभग सभी राज्यों का प्रदर्शन निराशाजनक है। अब चूंकि यह आंकड़ा शुद्ध रूप से सरकारी है, इसलिए इस पर विवाद के लिए स्थान भी है। स्पष्ट है कि देश में लाखों शिक्षकों के पद रिक्त हैं। इन्हें क्यों नहीं भरा जा रहा? यह एक अहम सवाल है। अब आप खुद देख लें कि हमा...
हम क्यों मनुष्य को बाँट रहे हैं?

हम क्यों मनुष्य को बाँट रहे हैं?

सामाजिक
डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में भारतीयों पर हमले थम नहीं रहे हैं। दिनोंदिन भारतीय नागरिकों के खिलाफ हिंसा की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। न केवल अमेरिका बल्कि ऑस्ट्रेलिया की इन नस्ली हिंसा की घटनाओं के साथ-साथ नोएडा की ताजा नस्ली घटना चिन्ता पैदा करती है। इस तरह की घोर निन्दनीय घटनाओं से मानवता भी आहत एवं शर्मसार हो रही है। जब अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया में इस घृणा का शिकार कोई भारतीय नागरिक या भारतीय मूल का व्यक्ति बनता है, तो हमें चिंता होती है। जब उसी घृणा का शिकार किसी पश्चिम एशियाई देश का व्यक्ति या कोई पाकिस्तानी बनता है, तो हम बेपरवाह हो जाते हैं। अपने देश में अफ्रीकियों पर हमला हमें चिन्तित नहीं करता। यह कैसी संकीर्णता है? यह कैसा मानव समाज निर्मित हो रहा है? इस तरह हम क्यों मनुष्य को बाँट रहे हैं? क्यों सत्य को ढक रहेे हैं? बढ़ती नस्ली हिंसा, मारकाट, अभद्र व्यवहार की घटना...
भोजन की बर्बादी एक त्रासदी है

भोजन की बर्बादी एक त्रासदी है

सामाजिक
हर रविवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संवेदनशील एवं सामाजिक हो जाते हैं। देश की जनता से ‘मन की बात’ करते हुए वे सामाजिक, पारिवारिक एवं व्यक्तिगत मुद्दों को उठाते है और जन-जन को झकझोरते हैं। इसी श्ंाृखला की ताजा कड़ी में देशवासियों को भोजन की बर्बादी के प्रति आगाह किया। भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश के लिए यह पाठ पढ़ना जरूरी है। क्योंकि एक तरफ विवाह-शादियों, पर्व-त्यौहारों एवं पारिवारिक आयोजनों में भोजन की बर्बादी बढ़ती जा रही है, तो दूसरी ओर भूखें लोगों के द्वारा भोजन की लूटपाट देखने को मिल रही है। भोजन की लूटपाट जहां मानवीय त्रासदी है, वही भोजन की बर्बादी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। एक तरफ करोड़ों लोग दाने-दाने को मोहताज हैं, कुपोषण के शिकार हैं, वहीं रोज लाखों टन भोजन की बर्बादी एक विडम्बना है। एक आदर्श समाज रचना की प्रथम आवश्यकता है अमीरी-गरीबी के बीच का फासला खत्म हो। शादियों, उत्सवों...
गणगौर: नारी शक्ति और संस्कार का पर्व

गणगौर: नारी शक्ति और संस्कार का पर्व

सामाजिक
गणगौर का त्यौहार सदियों पुराना हैं। हर युग में कुंआरी कन्याओं एवं नवविवाहिताओं का अपितु संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं का गहरा संबंध इस पर्व से जुड़ा रहा है। यद्यपि इसे सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मान्यता प्राप्त है किन्तु जीवन मूल्यों की सुरक्षा एवं वैवाहिक जीवन की सुदृढ़ता में यह एक सार्थक प्रेरणा भी बना है। गणगौर शब्द का गौरव अंतहीन पवित्र दाम्पत्य जीवन की खुशहाली से जुड़ा है। कुंआरी कन्याएं अच्छा पति पाने के लिए और नवविवाहिताएं अखंड सौभाग्य की कामना के लिए यह त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाती हैं, व्रत करती हैं, सज-धज कर सोलह शृंगार के साथ गणगौर की पूजा की शुरुआत करती है। पति और पत्नी के रिश्तें को यह फौलादी सी मजबूती देने वाला त्यौहार है, वहीं कुंआरी कन्याओं के लिए आदर्श वर की इच्छा पूरी करने का मनोकामना पर्व है। यह पर्व आदर्शों की ऊंची मीनार है, सांस्कृतिक परम्पराओं की अद्वितीय कड़ी है एवं रीति...
वेदों के अनुसार आकाश की बिजली का प्रयोग संभव

वेदों के अनुसार आकाश की बिजली का प्रयोग संभव

सामाजिक
बिजली आज सभ्य समाज की बुनियादी जरूरत बन चुकी है। गरीब-अमीर सबको इसकी जरूरत है। विकासशील देशों में बिजली का उत्पादन इतना नहीं होता कि हर किसी की जरूरत को पूरा कर सके। इसलिए बिजली उत्पादन के वैकल्पिक स्त्रोत लगातार ढू़ढे जाते है। पानी से बिजली बनती है, कोयले से बनती है, न्यूक्लियर रियेक्टर से बनती है और सूर्य के प्रकाश से भी बनती है। लेकिन वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश कपूर जिन्होंने वैदिक विज्ञान के आधार पर आधुनिक जगत की कई बड़ी चुनौतियों को मौलिक रूप से सुलझाने का काम किया है, उनका दावा है कि बादलों में चमकने वाली बिजली को भी आदमी की जरूरत के लिए प्रयोग किया जा सकता है। यह कोई कपोल कल्पना नहीं बल्कि एक हकीकत है। दुनिया के विकसित देश जैसे अमेरिका, जापान, चीन, फ्रंास आदि तो इस बिजली के दोहन के लिए संगठित भी हो चुके हंै। उनकी संस्था का नाम है ‘इंटरनेशनल कमीशन आॅन एटमाॅस्फाॅरिक इलैक्ट्रिसिटी’। दुर्...
शौहर, बेगम और दूसरी पत्नी

शौहर, बेगम और दूसरी पत्नी

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  रांची राजमार्ग से तीन किलोमीटर अंदर की तरफ जाने पर इटकी प्रखंड आता है। मुख्य सड़क से अंदर जाने का रास्ता कच्चा-पक्का है। जब आप इटकी में दाखिल होते हैं, बायीं तरफ लड़कियों का एक मदरसा है। इस मदरसे को देखकर आप अनुमान करते हैं कि यह प्रखंड स्त्रियों के अधिकार को लेकर जागरूक प्रखंड होगा। इसी प्रखंड में एक घर है परवेज आलम (काल्पनिक नाम) का। परवेज शादी शुदा पुरुष हैं लेकिन शादी इन्होंने एक बार नहीं तीन बार की है। इनके घर में पत्नी के तौर पर तीन औरतें रहती हैं। पहली शकीना खातून (काल्पनिक नाम) और बाकि दो औरतें आदिवासी हैं। दूसरी रंजना टोप्पो (काल्पनिक नाम) और तीसरी मीनाक्षी लाकड़ा (काल्पनिक नाम)। इटकी के आस-पास के लोगों से बातचीत करते हुए यह अनुमान लगाना आसान था कि परवेज का मामला अकेला नहीं है, इटकी प्रखंड में। इस तरह के कई दर्जन मामले हैं, जिसमें एक से अधिक शादी हुई है और गैर आदिवासी सम...
वृन्दावन की विधवाएं

वृन्दावन की विधवाएं

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हर शहर की अपनी एक कहानी होती है, जिसमें वह जीता है, जिसके कारण वह पूरे जगत में विख्यात या कुख्यात होता है। ये बहुत मामूली नहीं होती, यह पर्यटकों और नागरिकों के दृष्टिपटल पर छा जाने वाली एक कहानी होती है। कभी कभी यह गुलाबी होती है तो कभी यह इस गुलाबीपन में अंधेरे को बसाए हुए। और कभी कभी इस अंधेरे से किसी आशा की किरण का फूटना। ऐसी ही कहानी है वृन्दावन की। जो पिछले दिनों या कहें पिछले कई वर्षों से कुछ अलग कारणों से चर्चा में है। होली के आते ही कई पत्रकारों और टीवी के समाचार चैनलों का रुख वृन्दावन की तरफ होने लगता है। विदेशी पत्रकार अपनी स्टोरी करने के लिए वृन्दावन पहुंचने लगते हैं। ऐसा लगता है कुछ अनोखा और अनूठा घट रहा है। दरअसल वे सब जाते हैं, सुलभ इंटरनेश्नल द्वारा आयोजित विधवाओं के लिए होली कार्यक्रम देखने। इसके दो कारण हो सकते हैं कि एक तो वे विधवाओं की जि़न्दगी को दिखाना चाहते हैं या फिर...
लोहिया एवं राजव्यवस्था

लोहिया एवं राजव्यवस्था

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23 मार्च को डॉ. राम मनोहर लोहिया का जन्म दिवस है। कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा। तस्वीरों पर फूल मालाएं चढ़ायी जाएगी परन्तु उनके दर्शन, सिद्धान्त और नीतियों को भुला दिया जाएगा। समलक्ष-समबोध, समदृष्टि, समता समाज और समूल परिवर्तन की राह पर चलकर उनका अनुसरण नहीं किया जाएगा। जाति प्रथा के समूल नाश के लिए वे जीवन भर सामाजिक चेतना जागृत करने में लगे रहे। जब तक जाति प्रथा रहेगी तब तक जातिवाद और जातीयता चलती रहेगी। जब तक जातिवाद रहेगा तब तक परिवार वाद और सामाजिक सामन्तवाद चलता रहेगा। इसको तोडऩे के लिए कोई पार्टी और सरकार कुछ नहीं कर रही है। इस पर चिन्तन करना चाहिए। एक कारण लगता है कि चुनाव लडऩे वाली सभी पार्टियां जातियों का धु्रवीकरण कर सत्ता प्राप्त करना चाहती है। वाणी से जातीयता का विरोध और कर्म से समर्थन करते हैं। डॉ. लोहिया जीवन भर जाति तोड़ो सम्मेलन करवाते रहे। उन्होंने कार्यक्रम दिया था...
परिवार को पतन की पराकाष्ठा न बनने दे

परिवार को पतन की पराकाष्ठा न बनने दे

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वर्तमान दौर की एक बहुत बड़ी विडम्बना है कि पारिवारिक परिवेश पतन की चरम पराकाष्ठा को छू रहा है। अब तक अनेक नववधुएँ सास की प्रताड़ना एवं हिंसा से तंग आकर भाग जाती थी या आत्महत्याएँ कर बैठती थी वहीं अब नववधुओं की प्रताड़ना एवं हिंसा से सास उत्पीड़ित है, परेशान है। वे भी अब आत्महत्या का सहारा ले रही हंै, जो कि न केवल समाज के असभ्य एवं त्रासद होने का सूचक है बल्कि नयी बनी रही पारिवारिक संरचना की एक चिन्तनीय स्थिति है। आखिर ऐसे क्या कारण रहे हैं जो सास जिन्हें सासू मां भी कहा जाता है, आत्महत्या को विवश हो रही है। इसका कारण है हमारी आधुनिक सोच और स्वार्थपूर्ण जीवन शैली। हम खुलेपन और आज़ादी की एक ऐसी सीमा लांघ रहे हैं, जिसके आगे गहरी ढलान है। ऐसा लग रहा है कि व्यक्ति केवल अपनी सोच रहा है, परिवार नाम का शब्द उसने शब्दकोश में वापिस डाल दिया। तने के बिना शाखाओं का और शाखाओं के बिना फूल-पत्तों का अस्तित्व ...